संघियों का हठ योग बनाम नेहरू की भारतीयता
जब से भाजपा के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी है तब से उसका प्रयास पंडित जवाहर लाल नेहरू के नामोनिशान मिटाने का रहा है। कुछ माह पहले ही बांडुंग सम्मेलन की वर्षगांठ मनाई गई है और उसमें हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने नेहरू का नाम भी नहीं लिया। इधर अनेक अफ्रीकी देशों के नेता भारत आए थे। हमारे प्रधानमंत्री ने उनके बीच उनका नाम भी नहीं लिया यद्यपि अफ्रीकी नेताओं ने पंडित नेहरू के योगदान को सराहा और रेखांकित किया कि नवस्वतंत्र देशों को एकजुट करने में उनके प्रयास को भुलाया नहीं जा सकता। तब से हमारे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने नहीं चाहते हुए भी पंडित नेहरू का नाम लेना शुरू किया है। प्रधानमंत्री ब्रिटेन के दौरे पर थे जहां उन्होंने नेहरू का नाम अनेक बार लिया भले ही नहीं चाहते हुए। खैर, हमारा सत्तारूढ़ दल जितनी भी कोशिश करे वह न भारत का इतिहास बदल सकता है और न उसमें पं. नेहरू की भूमिका। आइए हम देखें कि नेहरू किस तरह के भारत का निर्माण आजादी के बाद करना चाहते थे। 1920 के दशक में उन्होंने पश्चिमी विश्व और तत्कालीन सोवियत संघ का दौरा किया और वहां समाजवादी उभार का अध्ययन किया। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि राष्ट्रवादी दृष्टि भारत जैसे देश के स्वतंत्रता संग्राम के लिए बेहद जरूरी है मगर आजादी प्राप्त होने के बाद हम किस दिशा में जाएंगे उसका खाका भी तैयार होना चाहिए। उनका मानना था कि राष्ट्रवादी दृष्टि को समाजवाद से जोडऩा होगा। याद रहे कि समाजवाद की रूपरेखा भारत की परिस्थितियों के अनुकूल होगा। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस उसे अवश्य स्वीकार करेगी। स्वतंत्रता संग्राम में जुटे एशिया और अफ्रीका के देशों को समाजवाद के आधार पर जोड़ा जा सकता है। उनके सामने समस्या थी कि भारत की परिस्थितियों को देखते हुए समाजवाद की क्या रूपरेखा होनी चाहिए। स्पष्ट है कि सोवियत संघ में अपनाई जा रही समाजवाद की रूपरेखा की कार्बन कॉपी को भारत में लागू करने का प्रयास सफल नहीं हो सकता। वह हमारी परिस्थितियों के अनुकूल होना चाहिए। उन्होंने देश के विभिन्न भागों में जाकर अपने समाजवादी विचारों और दृष्टि पर लोगों के साथ विचार विमर्श आरंभ किया। 18 मार्च 1928 को युवा लोगों के सामने तीन बातों को रखा: 1. भारत को पूर्ण आ•ाादी मिलनी चाहिए, 2. धर्म को विशुद्ध व्यक्तिगत मामला होना चाहिए और उसे राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक मुद्दों में हस्तक्षेप की इजाजत नहीं दी जा सकती, और 3. देश के सभी नागरिकों को जाति, वर्ग और संपदा का बिना ख्याल किए समाज अवसर मिलना चाहिए। उन्होंने देश में घूमकर लोगों, विशेषकर कांग्रेस कर्मियों को, स्वतंत्रता के महत्व के विषय में समझाया और इस बात पर जोर दिया कि हमें एक नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना की ओर बढऩा चाहिए। उन्होंने ऑल बंगाल स्टूडेंट्स कांफ्रेंस को बतलाया कि पूर्ण राष्ट्रीय आ•ाादी के बिना हम अपनी भावी प्रगति की दिशा और रूपरेखा तय नहीं कर सकते और न ही हम राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता की ओर बढ़ सकते हैं। राष्ट्रीय आ•ाादी का यह मतलब कतई नहीं है कि हम दूसरे राष्ट्रों के साथ लड़ाई-भिड़ाई करने और अपना विस्तार करने में जुट जाएं। हमें एक विश्व राष्ट्रमंडल बनाने की दिशा में प्रयास करना चाहिए जिससे उनके बीच सहयोग और एकजुटता बढ़े। उन्होंने रेखांकित किया कि जब तक दुनिया में साम्राज्यवाद रहेगा तब तक उपर्युक्त विचार आगे नहीं बढ़ सकता क्योंकि साम्राज्यवाद कमजोर देशों पर कब्जा जमाने के फेर में रहता है। राजनीतिक स्वतंत्रता आवश्यक है मगर वह अंतिम लक्ष्य का मात्र एक भाग है। उसके अन्य भाग हैं : सामाजिक और आर्थिक मुक्ति और बिना भेदभाव के आर्थिक विकास हो। भारत में जनसंख्या का एक बड़ा भाग युगों से दबाया जाता रहा है और उसे धर्म या तथाकथित परंपरा के नाम पर प्रगति से वंचित रखा गया है। सारे देश में लाखों मजदूरों को उनके योगदान का उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता है जिससे वे गरीबी और तंगहाली की जिंदगी जीने को मजबूर हैं। यह स्थिति तब तक नहीं बदलेगी जब तक हम समाजवादी व्यवस्था को नहीं अपनाएंगे। यदि हम सामाजिक समानता की दिशा में बढऩा चाहते हैं तो समाजवाद का कोई विकल्प नहीं हो सकता। पूरे देश में भ्रमण कर नेहरू ने लोगों को बतलाया कि देश की पूर्ण राजनीतिक आ•ाादी और सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण का एक ही मार्ग है : समाजवाद। उन्होंने गरीबी और दरिद्रता को महिमामंडित करने के प्रयास पर करारा प्रहार किया। उन्होंने उन लोगों की कड़ी आलोचना की कि अभी गरीबी और दरिद्रता की जिंदगी जीने वालों को परलोक में संपूर्ण सुख एवं शांति मिलेगी। उन्होंने रेखांकित किया कि गरीबी कोई अच्छी चीज नहीं है। उसे जड़मूल से उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है तभी आदमी का जीवन सुखमय हो सकेगा। गरीब पर न दया दिखाने की आवश्यकता है और न ही उसे किसी के दान पर निर्भर रहना चाहिए। नेहरू का मानना था कि गरीबी को जन्म देने वाली व्यवस्था का समूल नाश होना चाहिए। यह तभी संभव हो सकता है जब समाज में जन्मजात गरीबी का नाश हो। वर्तमान सामाजिक-अर्थव्यवस्था के स्थान पर भारत के लिए उपयुक्त समाजवादी व्यवस्था आए। नेहरू की इस नयी सोच को हम ''स्वराज और सोशियलिज्म में स्पष्ट रूप से देखते हैं। यह लेख 11 अगस्त 1928 को ''द न्यू लीडर नामक पत्रिका में छपा था। यहां प्रश्न उठाया गया था कि भारत के आजाद होने पर हम कौन सी व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं। हम भारत को आजादी के बाद किस दिशा में ले जाना चाहते हैं? इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए हमें देश की सीमाओं के बाहर देखना होगा और हमें देखना होगा कि पश्चिमी यूरोप में औद्योगिक क्रांति के बाद क्या परिवर्तन हुए हैं। आज हमारे देश में ऐसे अनेक लोग हैं जो हमारे इर्द-गिर्द क्या हो रहा है उसकी ओर ध्यान देने के बदले अब भी अतीत में जी रहे हैं। कुछ लोग वैदिक युग लाना चाहते हैं तो कई इस्लाम के आरंभिक दिनों को फिर से स्थापित करना चाहते हैं। हम इस बात को भुला रहे हैं कि हमारी प्राचीन सभ्यताएं बिल्कुल भिन्न स्थितियों में पनपी थीं। हमें बीते हुए कल को छोड़कर वर्तमान की ओर देखना होगा। पुराने मिथकों और धारणाओं को त्याग कर वर्तमान काल की परिस्थितियों और वास्तविकताओं की ओर देखना और उन्हें समझना होगा। यहां पर उन्होंने रूस का जिक्र किया और कहा कि किस प्रकार वह पूंजीवाद को त्याग कर सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण की ओर बढ़ रहा है। उसने समझ लिया है कि पूंजीवाद का रास्ता देर-सबेर साम्राज्यवाद और औपनिवेशिक शोषण की ओर ले जाएगा। व्यापार के क्षेत्र में गैरबराबरी की शर्तों और युद्ध की ओर ढकेलेगा। आजादी के बाद भारत का सामाजिक-आर्थिक आधुनिकीकरण पूंजीवाद के रास्ते पर चल कर नहीं हो सकता क्योंकि एक व्यक्ति का शोषण दूसरे व्यक्ति तथा एक जनसमूह का शोषण दूसरे जनसमूह से बचना काफी कठिन है। हम ब्रिटिश साम्राज्यवाद और शोषण के विरुद्ध हैं। इसी से यह बात सामने आती है कि हम पूंजीवाद का रास्ता नहीं अपना सकते क्योंकि वही साम्राज्यवाद की जननी है। विकल्प है कि हम समाजवाद के किसी न किसी रूप को अपनाएं जो भारत की स्थितियों और परिस्थितियों के अनुरूप हो। इस प्रकार भारत पर ब्रिटिश दबदबे के खिलाफ हम उठ खड़े हों। ऐसा हम राष्ट्रवादी आधार पर ही न करें बल्कि सामाजिक एवं अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को देखते हुए आवश्यक है। हम ध्यान से देखें तो पाएंगे कि पंडित नेहरू नवउपनिवेशवाद के विभिन्न पहलुओं से अवगत थे। उन्होंने रेखांकित किया कि ब्रिटेन हमें काफी हद तक राजनीतिक क्षेत्र में स्वतंत्रता दे सकता है। हम देश के अंदर चुनाव के आधार पर सरकार भी बना सकते हंै मगर वह अपना आर्थिक आधिपत्य नहीं छोड़ सकता। स्पष्ट है कि आर्थिक आजादी के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता बेमानी है। एक स्वतंत्र अर्थव्यवस्था के बिना राजनीतिक आजादी काफी कुछ निरर्थक है। हम देश की आजादी की मांग अनेक दृष्टियों से कर सकते हैं मगर आर्थिक आ•ाादी के बिना यह सब बेमानी है। असल चीज तो आर्थिक आजादी है। हमें देश की जनता की समस्याओं को देखते हुए अर्थव्यवस्था की दिशा और उसकी आंतरिक स्थितियों को नियोजित करने की पूरी आजादी होनी चाहिए। नेहरू ने बार-बार इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि हमारी आजादी की लड़ाई को अन्य देशों के स्वतंत्रता संग्राम के साथ जोड़कर देखना चाहिए। हम अलग-थलग नहीं रह सकते। देश की सीमाओं के बाहर जो कुछ हो रहा है हम उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। हमें आजादी मिलने के बाद देश के सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण की दिशा क्या होगी उस पर पहले से विचार कर उसकी रूपरेखा बनानी चाहिए। आज नरेंद्र मोदी की सरकार मुख्य रूप से विदेशी प्रत्यक्ष निवेश पर निर्भर दिखती है। वह इस बात को नजरअंदाज कर रही है कि मूडी ने क्या कहा है। मूडी दुनिया की तीन बड़ी रेटिंग एजेंसियों में एक है। बाहर से आकर यहां निवेश करने वाले उससे मार्गदर्शन लेते हैं। मूडी ने रेखांकित किया है कि देश के अंदर ऐसी ताकतें हैं जो देश का सांप्रदायिक विभाजन करना चाहते हैं। इस स्थिति में यहां निवेश करना भारी जोखिम उठाना है। कहना न होगा कि नरेंद्र मोदी के तमाम विदेश भ्रमण के बावजूद आशानुकूल मात्रा में विदेशी निवेश नहीं आया है।