Sunday, 23 June 2013

रति गंध न मिल जाय


मानवीय  चेतना का विनाश
संत्राश.
धीरे धीरे सुलगता हुआ दाह
निरंतर कचोटती हुई स्थितियों में
जीता हुआ,मरता हुआ मन .
झुलसते    इक्षाओं के अंगारे
कफ़न सी सफ़ेद आर पार फ़ैली हुई
चांदनी के नीचे
सुबकती सांसें .
जीता जागता जहन्नुम
बिलबिलाती हुई इक्षाएं
हिनहिनाता क्रोध ,
खुद बुदाते  प्रेम ......
गेगरीन के घाव के
मवाद सी जिन्दगी
खुर्राट वेश्या के
सिफलिस सड़े अंगों सी
नुची चुथी बजबजाती
ब्यवस्था में ,झल्लाती जिन्दगी.
ऋतु गंध में भीगे कपडे सी
फेंक दी गयी
इसलिए की उसे
रति गंध न मिल जाय.

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