वंशवादी’ नेहरू ने इंदिरा को नहीं, सरदार पटेल की बेटी-बेटे को संसद भेजा था !
नरेंद्र मोदी की बीजेपी को इसके लिए धन्यवाद ज़रूर देना चाहिए कि उसने इतिहास में लोगों की दिलचस्पी नए सिरे से पैदा की। बीजेपी और संघ के प्रचारतंत्र ने नेहरू को विलेन बनाने के लिए जैसा अविश्वसनीय अभियान चलाया, उसने लोगों को मजबूर किया कि वे हक़ीक़त का पता करने के लिए व्हाट्सऐप और फ़ेसबुक जैसे सोशल मीडिया के प्लेटफ़ॉर्म से उतर कर किताबों की धूल झाड़ें।
संघ संप्रदाय ने पटेल और सुभाष बोस का इस्तेमाल हमेशा नेहरू को निशाना बनाने के लिए किया। कुछ ऐसे अंदाज़ में जैसे कि जैसे उनमें कोई निजी दुश्मनी थी। लेकिन जब आप इतिहास के पन्नो से गुज़रते हैं तो पता चलता है कि तमाम विषयों पर मतभेद के बावजूद उनमें एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना में कोई कमी नहीं थी। पटेल ने ख़ुद लिखा है कि वे ‘नेहरू के वफ़ादार सिपाही हैं’ और सुभाष बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज में ‘नेहरू ब्रिगेड’ की स्थापना की थी।
इन दिनों, ख़ासकर गुजरात चुनाव को ध्यान में रखते हुए लगातार सोशलमीडिया में ऐसी कहानियाँ प्रचारित की जा रही हैं जिनमें कहा जा रहा है कि पटेल की मौत के बाद उनके बच्चों का कोई ख़्याल नहीं रखा गया। उन्होंने बड़े दुर्दिन देखे। तमाम सच्चे-झूठे क़िस्से प्रचारित किए जा रहे हैं जिसके निशाने पर पटेल विरोधी ‘वंशवादी’ नेहरू हैं, जिन्होंने अपने ख़ानदान को राजनीति में आगे बढ़ाया।
संघ संप्रदाय ने पटेल और सुभाष बोस का इस्तेमाल हमेशा नेहरू को निशाना बनाने के लिए किया। कुछ ऐसे अंदाज़ में जैसे कि जैसे उनमें कोई निजी दुश्मनी थी। लेकिन जब आप इतिहास के पन्नो से गुज़रते हैं तो पता चलता है कि तमाम विषयों पर मतभेद के बावजूद उनमें एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना में कोई कमी नहीं थी। पटेल ने ख़ुद लिखा है कि वे ‘नेहरू के वफ़ादार सिपाही हैं’ और सुभाष बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज में ‘नेहरू ब्रिगेड’ की स्थापना की थी।
इन दिनों, ख़ासकर गुजरात चुनाव को ध्यान में रखते हुए लगातार सोशलमीडिया में ऐसी कहानियाँ प्रचारित की जा रही हैं जिनमें कहा जा रहा है कि पटेल की मौत के बाद उनके बच्चों का कोई ख़्याल नहीं रखा गया। उन्होंने बड़े दुर्दिन देखे। तमाम सच्चे-झूठे क़िस्से प्रचारित किए जा रहे हैं जिसके निशाने पर पटेल विरोधी ‘वंशवादी’ नेहरू हैं, जिन्होंने अपने ख़ानदान को राजनीति में आगे बढ़ाया।
आख़िर सच्चाई क्या है ?
सच्चाई यह है कि वंशवादी नेहरू ने अपने जीते जी कभी इंदिरा गाँधी को संसद का मुँह नहीं देखने दिया, जबकि पटेल के बेटे और बेटी को लगातार संसद भेजा। ( भेजा का अर्थ यही है कि उन्हें काँग्रेस का टिकट देकर चुनाव में जिताया। )
इंदिरा गाँधी, स्वतंत्रता सेनानी थी, उन्हीं के बीच पली बढ़ी थीं। जब नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उनकी सहायक के रूप में लगातार काम करती रहीं, लेकिन नेहरू ने उन्हें सांसद या मंत्री बनाने के बारे में नहीं सोचा। 1959 के दिल्ली अधिवेशन में वे काँग्रेस की अध्यक्ष ज़रूर चुनी गई थीं, लेकिन 1960 में ही इस पद पर नीलम संजीव रेड्डी आ गए थे। 1964 में नेहरू की मौत के बाद काँग्रेस ने इंदिरा गाँधी को राज्यसभा भेजा। इस तरह वे पहली बार सांसद बनीं। राज्यसभा की इस ‘गूँगी गुड़िया’ को काँग्रेस दिग्गजों ने प्रधानमंत्री बनाया था, न कि नेहरू ने।
अब आइए देखते हैं कि नेहरू ने अपने अनन्य सहयोगी सरदार पटेल के बच्चों के साथ क्या किया जिनकी 1950 में मृत्यु हो गई थी।
मणिबेन अपने पिता सरदार पटेल के लिए उसी तरह थीं जैसे कि इंदिरा, नेहरू के लिए। वे सरदार पटेल के साथ साये की तरह रहती थीं। पटेल की मृत्यु के बाद उनके दुख को नेहरू से ज़्यादा कौन समझ सकता था। लिहाज़ा 1952 के पहले ही आम चुनाव में ही नेहरू जी ने उन्हें काँग्रेस का टिकट दिलवाया। वे दक्षिण कैरा लोकसभा क्षेत्र से सांसद बनीं। 1957 में वे आणंद लोकसभा क्षेत्र से चुनी गईं। 1964 में उन्हें काँग्रेस ने राज्यसभा भेजा। वे 1953 से 1956 के बीच गुजरात प्रदेश काँग्रेस कमेटी की सचिव और 1957 से 1964 के बीच उपाध्यक्ष रहीं।
इस तरह नेहरू के रहते मणिबेन को काँग्रेस में पूरा मान-सम्मान मिला। यही नहीं, नेहरू के समय ही सरदार पटेल के बेटे डाह्याभाई पटेल को भी लोकसभा का टिकट मिला। वे 1957 और 1962 में लोकसभा के लिए चुने गए और फिर 1973 में अपनी मौत तक राज्यसभा सदस्य रहे। (यह सहज ही समझा जा सकता है कि काँग्रेस प्रत्याशी बतौर मणिबेन और दाह्याभाई को संघ और जनसंघ के विरोध का सामना करना पड़ा होगा।)
यानी एक समय ऐसा भी था जब सरदार पटेल के बेटे और बेटी, दोनों ही एक साथ लोकसभा और फिर राज्यसभा में थे। भाई-बहन के लिए ऐसा संयोग ‘वंशवादी नेहरू’ ने ही निर्मित किया था जिन्होंने अपनी बेटी इंदिरा को जीते-जी काँग्रेस का टिकट नहीं मिलने दिया। नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे, न कि इंदिरा गाँधी।
ऐसा ही कुछ मामला नेता जी सुभाषचंद्र बोस को लेकर भी है। लगातार दुष्प्रचार किया गया कि सुभाष बोस से जुड़ी ‘फाइलों’ में ऐसी गोपनीय बातें हैं जिससे नेहरू शर्मसार हो सकते हैं, इसलिए उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जाता। यह बात भुला दी गई कि दोनों ही काँग्रेस के समाजवादी खेमे के नेता थे। कोई निजी मतभेद नहीं था। सुभाषचंद्र बोस की ‘सैन्यवाद प्रवृत्ति’ को गाँधी और उनके अनुयायी उचित नहीं मानते थे। नेहरू भी उनमें थे। लेकिन परस्पर सम्मान ऐसा कि जब सुभाष बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज बनाई तो एक ब्रिगेड का नाम नेहरू के नाम पर रखा। गाँधी जी को ‘राष्ट्रपिता’ का संबोधन भी नेता जी ने ही दिया था।
बहरहाल, मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद एक बार फिर ‘बोस फ़ाइल्स’ का हल्ला मचा। जनवरी 2016 में कई फ़ाइलें सार्वजनिक की गईं तो जो सामने आये वह प्रचार से बिलकुल उलट था। पता चला कि नेहरू ने सुभाष बोस की, विदेश में पल रही बेटी के लिए हर महीने आर्थिक मदद भिजवाने की व्यवस्था की थी।
इन गोपनीय फाइलों से खुलासा हुआ कि ‘अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी’ (एआईसीसी) ने 1954 में नेताजी की बेटी की मदद के लिए एक ट्रस्ट बनाया था, जिससे उन्हें 500 रुपये प्रति माह आर्थिक मदद दी जाती थी। दस्तावेजों के मुताबिक, 23 मई, 1954 को अनिता बोस के लिए दो लाख रुपये का एक ट्रस्ट बनाया गया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी. सी. रॉय उसके ट्रस्टी थे।
नेहरू द्वारा 23 मई, 1954 को हस्ताक्षरित एक दस्तावेज के अनुसार, “डॉ. बी. सी. राय और मैंने आज वियना में सुभाष चंद्र बोस की बच्ची के लिए एक ट्रस्ट डीड पर हस्ताक्षर किए हैं। दस्तावेजों को सुरक्षित रखने के लिए मैंने उनकी मूल प्रति एआईसीसी को दे दी है।”
एआईसीसी ने 1964 तक अनिता को 6,000 रुपये वार्षिक की मदद की। 1965 में उनकी शादी के बाद यह आर्थिक सहयोग बंद कर दिया गया। यह मत समझिए कि तब 500 रुपये महीने कोई छोटी रकम थी। बड़े-बड़े अफ़सरों को भी इतना वेतन नहीं मिलता था।‘वंशवादी’ नेहरू ने इंदिरा को नहीं, सरदार पटेल की बेटी-बेटे को संसद भेजा था !
इंदिरा गाँधी, स्वतंत्रता सेनानी थी, उन्हीं के बीच पली बढ़ी थीं। जब नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उनकी सहायक के रूप में लगातार काम करती रहीं, लेकिन नेहरू ने उन्हें सांसद या मंत्री बनाने के बारे में नहीं सोचा। 1959 के दिल्ली अधिवेशन में वे काँग्रेस की अध्यक्ष ज़रूर चुनी गई थीं, लेकिन 1960 में ही इस पद पर नीलम संजीव रेड्डी आ गए थे। 1964 में नेहरू की मौत के बाद काँग्रेस ने इंदिरा गाँधी को राज्यसभा भेजा। इस तरह वे पहली बार सांसद बनीं। राज्यसभा की इस ‘गूँगी गुड़िया’ को काँग्रेस दिग्गजों ने प्रधानमंत्री बनाया था, न कि नेहरू ने।
अब आइए देखते हैं कि नेहरू ने अपने अनन्य सहयोगी सरदार पटेल के बच्चों के साथ क्या किया जिनकी 1950 में मृत्यु हो गई थी।
मणिबेन अपने पिता सरदार पटेल के लिए उसी तरह थीं जैसे कि इंदिरा, नेहरू के लिए। वे सरदार पटेल के साथ साये की तरह रहती थीं। पटेल की मृत्यु के बाद उनके दुख को नेहरू से ज़्यादा कौन समझ सकता था। लिहाज़ा 1952 के पहले ही आम चुनाव में ही नेहरू जी ने उन्हें काँग्रेस का टिकट दिलवाया। वे दक्षिण कैरा लोकसभा क्षेत्र से सांसद बनीं। 1957 में वे आणंद लोकसभा क्षेत्र से चुनी गईं। 1964 में उन्हें काँग्रेस ने राज्यसभा भेजा। वे 1953 से 1956 के बीच गुजरात प्रदेश काँग्रेस कमेटी की सचिव और 1957 से 1964 के बीच उपाध्यक्ष रहीं।
इस तरह नेहरू के रहते मणिबेन को काँग्रेस में पूरा मान-सम्मान मिला। यही नहीं, नेहरू के समय ही सरदार पटेल के बेटे डाह्याभाई पटेल को भी लोकसभा का टिकट मिला। वे 1957 और 1962 में लोकसभा के लिए चुने गए और फिर 1973 में अपनी मौत तक राज्यसभा सदस्य रहे। (यह सहज ही समझा जा सकता है कि काँग्रेस प्रत्याशी बतौर मणिबेन और दाह्याभाई को संघ और जनसंघ के विरोध का सामना करना पड़ा होगा।)
यानी एक समय ऐसा भी था जब सरदार पटेल के बेटे और बेटी, दोनों ही एक साथ लोकसभा और फिर राज्यसभा में थे। भाई-बहन के लिए ऐसा संयोग ‘वंशवादी नेहरू’ ने ही निर्मित किया था जिन्होंने अपनी बेटी इंदिरा को जीते-जी काँग्रेस का टिकट नहीं मिलने दिया। नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे, न कि इंदिरा गाँधी।
ऐसा ही कुछ मामला नेता जी सुभाषचंद्र बोस को लेकर भी है। लगातार दुष्प्रचार किया गया कि सुभाष बोस से जुड़ी ‘फाइलों’ में ऐसी गोपनीय बातें हैं जिससे नेहरू शर्मसार हो सकते हैं, इसलिए उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जाता। यह बात भुला दी गई कि दोनों ही काँग्रेस के समाजवादी खेमे के नेता थे। कोई निजी मतभेद नहीं था। सुभाषचंद्र बोस की ‘सैन्यवाद प्रवृत्ति’ को गाँधी और उनके अनुयायी उचित नहीं मानते थे। नेहरू भी उनमें थे। लेकिन परस्पर सम्मान ऐसा कि जब सुभाष बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज बनाई तो एक ब्रिगेड का नाम नेहरू के नाम पर रखा। गाँधी जी को ‘राष्ट्रपिता’ का संबोधन भी नेता जी ने ही दिया था।
बहरहाल, मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद एक बार फिर ‘बोस फ़ाइल्स’ का हल्ला मचा। जनवरी 2016 में कई फ़ाइलें सार्वजनिक की गईं तो जो सामने आये वह प्रचार से बिलकुल उलट था। पता चला कि नेहरू ने सुभाष बोस की, विदेश में पल रही बेटी के लिए हर महीने आर्थिक मदद भिजवाने की व्यवस्था की थी।
इन गोपनीय फाइलों से खुलासा हुआ कि ‘अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी’ (एआईसीसी) ने 1954 में नेताजी की बेटी की मदद के लिए एक ट्रस्ट बनाया था, जिससे उन्हें 500 रुपये प्रति माह आर्थिक मदद दी जाती थी। दस्तावेजों के मुताबिक, 23 मई, 1954 को अनिता बोस के लिए दो लाख रुपये का एक ट्रस्ट बनाया गया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी. सी. रॉय उसके ट्रस्टी थे।
नेहरू द्वारा 23 मई, 1954 को हस्ताक्षरित एक दस्तावेज के अनुसार, “डॉ. बी. सी. राय और मैंने आज वियना में सुभाष चंद्र बोस की बच्ची के लिए एक ट्रस्ट डीड पर हस्ताक्षर किए हैं। दस्तावेजों को सुरक्षित रखने के लिए मैंने उनकी मूल प्रति एआईसीसी को दे दी है।”
एआईसीसी ने 1964 तक अनिता को 6,000 रुपये वार्षिक की मदद की। 1965 में उनकी शादी के बाद यह आर्थिक सहयोग बंद कर दिया गया। यह मत समझिए कि तब 500 रुपये महीने कोई छोटी रकम थी। बड़े-बड़े अफ़सरों को भी इतना वेतन नहीं मिलता था।‘वंशवादी’ नेहरू ने इंदिरा को नहीं, सरदार पटेल की बेटी-बेटे को संसद भेजा था !
नरेंद्र मोदी की बीजेपी को इसके लिए धन्यवाद ज़रूर देना चाहिए कि उसने इतिहास में लोगों की दिलचस्पी नए सिरे से पैदा की। बीजेपी और संघ के प्रचारतंत्र ने नेहरू को विलेन बनाने के लिए जैसा अविश्वसनीय अभियान चलाया, उसने लोगों को मजबूर किया कि वे हक़ीक़त का पता करने के लिए व्हाट्सऐप और फ़ेसबुक जैसे सोशल मीडिया के प्लेटफ़ॉर्म से उतर कर किताबों की धूल झाड़ें।
संघ संप्रदाय ने पटेल और सुभाष बोस का इस्तेमाल हमेशा नेहरू को निशाना बनाने के लिए किया। कुछ ऐसे अंदाज़ में जैसे कि जैसे उनमें कोई निजी दुश्मनी थी। लेकिन जब आप इतिहास के पन्नो से गुज़रते हैं तो पता चलता है कि तमाम विषयों पर मतभेद के बावजूद उनमें एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना में कोई कमी नहीं थी। पटेल ने ख़ुद लिखा है कि वे ‘नेहरू के वफ़ादार सिपाही हैं’ और सुभाष बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज में ‘नेहरू ब्रिगेड’ की स्थापना की थी।
इन दिनों, ख़ासकर गुजरात चुनाव को ध्यान में रखते हुए लगातार सोशलमीडिया में ऐसी कहानियाँ प्रचारित की जा रही हैं जिनमें कहा जा रहा है कि पटेल की मौत के बाद उनके बच्चों का कोई ख़्याल नहीं रखा गया। उन्होंने बड़े दुर्दिन देखे। तमाम सच्चे-झूठे क़िस्से प्रचारित किए जा रहे हैं जिसके निशाने पर पटेल विरोधी ‘वंशवादी’ नेहरू हैं, जिन्होंने अपने ख़ानदान को राजनीति में आगे बढ़ाया।
संघ संप्रदाय ने पटेल और सुभाष बोस का इस्तेमाल हमेशा नेहरू को निशाना बनाने के लिए किया। कुछ ऐसे अंदाज़ में जैसे कि जैसे उनमें कोई निजी दुश्मनी थी। लेकिन जब आप इतिहास के पन्नो से गुज़रते हैं तो पता चलता है कि तमाम विषयों पर मतभेद के बावजूद उनमें एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना में कोई कमी नहीं थी। पटेल ने ख़ुद लिखा है कि वे ‘नेहरू के वफ़ादार सिपाही हैं’ और सुभाष बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज में ‘नेहरू ब्रिगेड’ की स्थापना की थी।
इन दिनों, ख़ासकर गुजरात चुनाव को ध्यान में रखते हुए लगातार सोशलमीडिया में ऐसी कहानियाँ प्रचारित की जा रही हैं जिनमें कहा जा रहा है कि पटेल की मौत के बाद उनके बच्चों का कोई ख़्याल नहीं रखा गया। उन्होंने बड़े दुर्दिन देखे। तमाम सच्चे-झूठे क़िस्से प्रचारित किए जा रहे हैं जिसके निशाने पर पटेल विरोधी ‘वंशवादी’ नेहरू हैं, जिन्होंने अपने ख़ानदान को राजनीति में आगे बढ़ाया।
आख़िर सच्चाई क्या है ?
सच्चाई यह है कि वंशवादी नेहरू ने अपने जीते जी कभी इंदिरा गाँधी को संसद का मुँह नहीं देखने दिया, जबकि पटेल के बेटे और बेटी को लगातार संसद भेजा। ( भेजा का अर्थ यही है कि उन्हें काँग्रेस का टिकट देकर चुनाव में जिताया। )
इंदिरा गाँधी, स्वतंत्रता सेनानी थी, उन्हीं के बीच पली बढ़ी थीं। जब नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उनकी सहायक के रूप में लगातार काम करती रहीं, लेकिन नेहरू ने उन्हें सांसद या मंत्री बनाने के बारे में नहीं सोचा। 1959 के दिल्ली अधिवेशन में वे काँग्रेस की अध्यक्ष ज़रूर चुनी गई थीं, लेकिन 1960 में ही इस पद पर नीलम संजीव रेड्डी आ गए थे। 1964 में नेहरू की मौत के बाद काँग्रेस ने इंदिरा गाँधी को राज्यसभा भेजा। इस तरह वे पहली बार सांसद बनीं। राज्यसभा की इस ‘गूँगी गुड़िया’ को काँग्रेस दिग्गजों ने प्रधानमंत्री बनाया था, न कि नेहरू ने।
अब आइए देखते हैं कि नेहरू ने अपने अनन्य सहयोगी सरदार पटेल के बच्चों के साथ क्या किया जिनकी 1950 में मृत्यु हो गई थी।
मणिबेन अपने पिता सरदार पटेल के लिए उसी तरह थीं जैसे कि इंदिरा, नेहरू के लिए। वे सरदार पटेल के साथ साये की तरह रहती थीं। पटेल की मृत्यु के बाद उनके दुख को नेहरू से ज़्यादा कौन समझ सकता था। लिहाज़ा 1952 के पहले ही आम चुनाव में ही नेहरू जी ने उन्हें काँग्रेस का टिकट दिलवाया। वे दक्षिण कैरा लोकसभा क्षेत्र से सांसद बनीं। 1957 में वे आणंद लोकसभा क्षेत्र से चुनी गईं। 1964 में उन्हें काँग्रेस ने राज्यसभा भेजा। वे 1953 से 1956 के बीच गुजरात प्रदेश काँग्रेस कमेटी की सचिव और 1957 से 1964 के बीच उपाध्यक्ष रहीं।
इस तरह नेहरू के रहते मणिबेन को काँग्रेस में पूरा मान-सम्मान मिला। यही नहीं, नेहरू के समय ही सरदार पटेल के बेटे डाह्याभाई पटेल को भी लोकसभा का टिकट मिला। वे 1957 और 1962 में लोकसभा के लिए चुने गए और फिर 1973 में अपनी मौत तक राज्यसभा सदस्य रहे। (यह सहज ही समझा जा सकता है कि काँग्रेस प्रत्याशी बतौर मणिबेन और दाह्याभाई को संघ और जनसंघ के विरोध का सामना करना पड़ा होगा।)
यानी एक समय ऐसा भी था जब सरदार पटेल के बेटे और बेटी, दोनों ही एक साथ लोकसभा और फिर राज्यसभा में थे। भाई-बहन के लिए ऐसा संयोग ‘वंशवादी नेहरू’ ने ही निर्मित किया था जिन्होंने अपनी बेटी इंदिरा को जीते-जी काँग्रेस का टिकट नहीं मिलने दिया। नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे, न कि इंदिरा गाँधी।
ऐसा ही कुछ मामला नेता जी सुभाषचंद्र बोस को लेकर भी है। लगातार दुष्प्रचार किया गया कि सुभाष बोस से जुड़ी ‘फाइलों’ में ऐसी गोपनीय बातें हैं जिससे नेहरू शर्मसार हो सकते हैं, इसलिए उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जाता। यह बात भुला दी गई कि दोनों ही काँग्रेस के समाजवादी खेमे के नेता थे। कोई निजी मतभेद नहीं था। सुभाषचंद्र बोस की ‘सैन्यवाद प्रवृत्ति’ को गाँधी और उनके अनुयायी उचित नहीं मानते थे। नेहरू भी उनमें थे। लेकिन परस्पर सम्मान ऐसा कि जब सुभाष बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज बनाई तो एक ब्रिगेड का नाम नेहरू के नाम पर रखा। गाँधी जी को ‘राष्ट्रपिता’ का संबोधन भी नेता जी ने ही दिया था।
बहरहाल, मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद एक बार फिर ‘बोस फ़ाइल्स’ का हल्ला मचा। जनवरी 2016 में कई फ़ाइलें सार्वजनिक की गईं तो जो सामने आये वह प्रचार से बिलकुल उलट था। पता चला कि नेहरू ने सुभाष बोस की, विदेश में पल रही बेटी के लिए हर महीने आर्थिक मदद भिजवाने की व्यवस्था की थी।
इन गोपनीय फाइलों से खुलासा हुआ कि ‘अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी’ (एआईसीसी) ने 1954 में नेताजी की बेटी की मदद के लिए एक ट्रस्ट बनाया था, जिससे उन्हें 500 रुपये प्रति माह आर्थिक मदद दी जाती थी। दस्तावेजों के मुताबिक, 23 मई, 1954 को अनिता बोस के लिए दो लाख रुपये का एक ट्रस्ट बनाया गया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी. सी. रॉय उसके ट्रस्टी थे।
नेहरू द्वारा 23 मई, 1954 को हस्ताक्षरित एक दस्तावेज के अनुसार, “डॉ. बी. सी. राय और मैंने आज वियना में सुभाष चंद्र बोस की बच्ची के लिए एक ट्रस्ट डीड पर हस्ताक्षर किए हैं। दस्तावेजों को सुरक्षित रखने के लिए मैंने उनकी मूल प्रति एआईसीसी को दे दी है।”
एआईसीसी ने 1964 तक अनिता को 6,000 रुपये वार्षिक की मदद की। 1965 में उनकी शादी के बाद यह आर्थिक सहयोग बंद कर दिया गया। यह मत समझिए कि तब 500 रुपये महीने कोई छोटी रकम थी। बड़े-बड़े अफ़सरों को भी इतना वेतन नहीं मिलता था।
इंदिरा गाँधी, स्वतंत्रता सेनानी थी, उन्हीं के बीच पली बढ़ी थीं। जब नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उनकी सहायक के रूप में लगातार काम करती रहीं, लेकिन नेहरू ने उन्हें सांसद या मंत्री बनाने के बारे में नहीं सोचा। 1959 के दिल्ली अधिवेशन में वे काँग्रेस की अध्यक्ष ज़रूर चुनी गई थीं, लेकिन 1960 में ही इस पद पर नीलम संजीव रेड्डी आ गए थे। 1964 में नेहरू की मौत के बाद काँग्रेस ने इंदिरा गाँधी को राज्यसभा भेजा। इस तरह वे पहली बार सांसद बनीं। राज्यसभा की इस ‘गूँगी गुड़िया’ को काँग्रेस दिग्गजों ने प्रधानमंत्री बनाया था, न कि नेहरू ने।
अब आइए देखते हैं कि नेहरू ने अपने अनन्य सहयोगी सरदार पटेल के बच्चों के साथ क्या किया जिनकी 1950 में मृत्यु हो गई थी।
मणिबेन अपने पिता सरदार पटेल के लिए उसी तरह थीं जैसे कि इंदिरा, नेहरू के लिए। वे सरदार पटेल के साथ साये की तरह रहती थीं। पटेल की मृत्यु के बाद उनके दुख को नेहरू से ज़्यादा कौन समझ सकता था। लिहाज़ा 1952 के पहले ही आम चुनाव में ही नेहरू जी ने उन्हें काँग्रेस का टिकट दिलवाया। वे दक्षिण कैरा लोकसभा क्षेत्र से सांसद बनीं। 1957 में वे आणंद लोकसभा क्षेत्र से चुनी गईं। 1964 में उन्हें काँग्रेस ने राज्यसभा भेजा। वे 1953 से 1956 के बीच गुजरात प्रदेश काँग्रेस कमेटी की सचिव और 1957 से 1964 के बीच उपाध्यक्ष रहीं।
इस तरह नेहरू के रहते मणिबेन को काँग्रेस में पूरा मान-सम्मान मिला। यही नहीं, नेहरू के समय ही सरदार पटेल के बेटे डाह्याभाई पटेल को भी लोकसभा का टिकट मिला। वे 1957 और 1962 में लोकसभा के लिए चुने गए और फिर 1973 में अपनी मौत तक राज्यसभा सदस्य रहे। (यह सहज ही समझा जा सकता है कि काँग्रेस प्रत्याशी बतौर मणिबेन और दाह्याभाई को संघ और जनसंघ के विरोध का सामना करना पड़ा होगा।)
यानी एक समय ऐसा भी था जब सरदार पटेल के बेटे और बेटी, दोनों ही एक साथ लोकसभा और फिर राज्यसभा में थे। भाई-बहन के लिए ऐसा संयोग ‘वंशवादी नेहरू’ ने ही निर्मित किया था जिन्होंने अपनी बेटी इंदिरा को जीते-जी काँग्रेस का टिकट नहीं मिलने दिया। नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे, न कि इंदिरा गाँधी।
ऐसा ही कुछ मामला नेता जी सुभाषचंद्र बोस को लेकर भी है। लगातार दुष्प्रचार किया गया कि सुभाष बोस से जुड़ी ‘फाइलों’ में ऐसी गोपनीय बातें हैं जिससे नेहरू शर्मसार हो सकते हैं, इसलिए उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जाता। यह बात भुला दी गई कि दोनों ही काँग्रेस के समाजवादी खेमे के नेता थे। कोई निजी मतभेद नहीं था। सुभाषचंद्र बोस की ‘सैन्यवाद प्रवृत्ति’ को गाँधी और उनके अनुयायी उचित नहीं मानते थे। नेहरू भी उनमें थे। लेकिन परस्पर सम्मान ऐसा कि जब सुभाष बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज बनाई तो एक ब्रिगेड का नाम नेहरू के नाम पर रखा। गाँधी जी को ‘राष्ट्रपिता’ का संबोधन भी नेता जी ने ही दिया था।
बहरहाल, मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद एक बार फिर ‘बोस फ़ाइल्स’ का हल्ला मचा। जनवरी 2016 में कई फ़ाइलें सार्वजनिक की गईं तो जो सामने आये वह प्रचार से बिलकुल उलट था। पता चला कि नेहरू ने सुभाष बोस की, विदेश में पल रही बेटी के लिए हर महीने आर्थिक मदद भिजवाने की व्यवस्था की थी।
इन गोपनीय फाइलों से खुलासा हुआ कि ‘अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी’ (एआईसीसी) ने 1954 में नेताजी की बेटी की मदद के लिए एक ट्रस्ट बनाया था, जिससे उन्हें 500 रुपये प्रति माह आर्थिक मदद दी जाती थी। दस्तावेजों के मुताबिक, 23 मई, 1954 को अनिता बोस के लिए दो लाख रुपये का एक ट्रस्ट बनाया गया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी. सी. रॉय उसके ट्रस्टी थे।
नेहरू द्वारा 23 मई, 1954 को हस्ताक्षरित एक दस्तावेज के अनुसार, “डॉ. बी. सी. राय और मैंने आज वियना में सुभाष चंद्र बोस की बच्ची के लिए एक ट्रस्ट डीड पर हस्ताक्षर किए हैं। दस्तावेजों को सुरक्षित रखने के लिए मैंने उनकी मूल प्रति एआईसीसी को दे दी है।”
एआईसीसी ने 1964 तक अनिता को 6,000 रुपये वार्षिक की मदद की। 1965 में उनकी शादी के बाद यह आर्थिक सहयोग बंद कर दिया गया। यह मत समझिए कि तब 500 रुपये महीने कोई छोटी रकम थी। बड़े-बड़े अफ़सरों को भी इतना वेतन नहीं मिलता था।
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