अमीर खुसरो.हिन्दवी बोली और मुकरी
(पढ़िए और टिप्पड़ी जरुर कीजिये )
अमीर खुसरो देवनागरी में लिखना शुरू करने वाला पहला फकीर
इस भाषा को उस ज़माने में /आज भी हिन्दवी नाम से पुकारते है खुसरो को दिल्ली की आबोहवा नहीं जमी इस लिए
खुसरो हैदराबाद चले गए थे वंही लिखते थे
इस लिए आज लोग इसे दक्खिनी हिंदी के नाम से पुकारते हैं
मुकरी शब्द खुसरो की देंन है यह फारसी में नहीं था .
उस समय प्रचालन में इसके दो प्रकार थे
मुहमुकरी या कहमुकरी.मतलब है कह के मुकर जाना या सुन के मुकर जाना .इसकी शुरुआत खुसरो ने ही की थी .पहेली तो हिंदी में लोग कहने लगे यह हिन्दवी का शब्द है मुकरी
१)गुप्त घाव तन में लगे और जिया रहत बेचैन
ओखत (औषधि )खाय दुःख बढे सो करो सखी कुछ बैन
२)दिल का तो दुम्बल(फोड़ा)भया और नैनं का नासूर
जो ओखत से दुःख कटे तो मै भी करूं जरूर (दोनों का उत्तर -इश्क (प्रेम )
३)अपने समय में इक नार आय
तुक देखे और फिर छुप जाय
बूझ के उठियो कसम है तुम पर
आग बिना उजियारा दुम पर (जुगुनू )
४)फूल तो वा का ओखद सहाय
फल सब जग के कम में आय
उजड़ी खेती जावे नास
जब देखो जब पास का पास (कपास)
५)ठौर नीर पर होत है और भीतर के जल जाय
हांथी घोडा ऊंट शलीता वाही के बल जांय (पुल )
यह है हिंदी का प्रारंभिक रूप जो अमीर खुसरो ने शुरू किया .हिट होगया था
मित्रों अमीर खुसरो के नाम से जो भी हिन्दी काब्य में प्रचलित है वह जन श्रुति का हिस्सा है कोई लिखित प्रमाण नहीं है /अवध के शाही पुस्तकालय में खुसरो की कुछ पांडुलिपियाँ सुरक्षित थीं /उनके हिंदी काब्य पर पहला लेख १८५२ में जर्नल ऑफ़ एसियाटिक सोसाइटी बंगाल ने प्रकाशित किया था ...इस प्रस्तुति का मूल आधार वही लेख है ...
पहेली /मुकरी ....
१)जल का उपजा देखा जल में, कांटे हैं वाके कल कल में
गीला हो तो हाट बिकाय,सूखे से कई कम आये /(सिंघाड़ा )
2)दो नर में है एक ही नार, यही रहें हैं सबके द्वार
दो नर से वह नारी जूझे, जब जानो जब चट पट बूझे/ (कुंडा /सांकल )
३)एक नारी में जब नर जाय, काला मुंह कर उलटा आय
छाती घाव अपनी सहे, मन के वचन पर आय कहे/ (दावत -कलम )
४)काला मुंह कर जग दिखलावे, भूला बिसरा याद दिलावे
रैन दिना चातर गम खाता, मूरख को लेखा नहीं आता /(खाता बही कलम )
५)मुंह से उगले मुंह से खाय ,मुंह से मुंह को लगाती जाय
ठोक बदन कहलाती है, हर दम में बन चलती है /(तुफंग अर्थात प्रक्षिप्त )
६)बिलक बिलक भोजन करे, और कास कास में बीठ
जनवर है पर जो नहीं लेत सवारी पीठ ( ढेंकुली )
खुसरो की पहेलियों .का संग्रह खालिक बरी के नाम से प्रचलित है किन्तु इसके भाषिक तथा कलात्मक दोष के कारन कुछ लोग इसे खुसरो की कृति नहीं मानते /खुसरो प्रतिभा शाली बुद्धि मान और हिन्दवी की बोलियों ठोलियों में रचे बसे थे अरबी फ़ारसी में निष्णात थे इन्हें हिन्दवी -तथा अरबी फ़ारसी शब्दों के अलंकारिक अर्थ सम्बन्ध जोड़ने में दक्षता प्राप्त थी /
अमीर खुसरो के नाम से जिस हिंदी उर्दू या हिन्दुस्तानी काब्य को जोड़ा जाता है उसके बारे में पहला सवाल यह उठता है की उसे कौन सी संज्ञा दी जाय क्यों की हिंदी उर्दू हिन्दुस्तानी का वर्तमान भाषिक अर्थ तेरहवीं शताब्दी में नहीं था ग्रियर्सन ने पूर्वी हिंदी और पश्चिमी हिंदी का जो विभाजन और शब्दावली निर्माण बिहार से पंजाब तक के भारतीय आर्य बोलियों के वर्गीकरण के लिए किया था उसे अमीर खुसरो की भाषा पर चस्पा कर देना ठीक नहीं /क्यों की एक तो यह शब्दावली मात्र है ,इस नाम की कोई भाषा या बोली नहीं है दूसरे उसकी संकल्पना भी बहुत बाद की है ,खड़ी बोली ,ब्रज ,हरियाणवी के नाम भी बाद में ही प्रचलित हुए .उस काल की बोलियों के नाम मध्य युग श्रोतों से जो भी प्राप्त है दोष युक्त या अधूरे है ,लेखकों ने उन्ही बोलियों के नाम का उल्लेख किया है जिन्हें वे जानते थे जिनके प्रदेशों से परिचित थे ,१५ वीं शदी के अंत में शेख बहाउद्दीन वाजन की भाषा "जबान- ये -देहलवी'कहलाती थी/ १६ वीं शदी में अबुल फजल ने, आईन-ये-अकबरी में हिंदी की केवल दो भाषा देहलवी और मारवाड़ी (राजस्थानी) का उल्लेख किया है जाहिर है इनके आलावा और भी बहुत सी बोलियाँ थीं..
..अब कुछ मुकरियां .
1-माथे वाके छेक है और चरण थूर कर यहांव
बहियन पर छाती टिकी रहे और पीठ पर वाके पांव /(चोली)
२-सर बल जावे नारी एक छोटी ऊपर छोटी देख
सीना व का सब को भावे सभी जगत के कम में आवे/ (सोजन )
३-भूके प्यासे आते हैं वो बुजुर्ग क्यों कहलाते हैं
फ़िक्र से उनको मुंह में रखे बैकुंठो में भोजन चखे/ (रोजा )
४-आई थी भोजन करन भोजन हो गई आप
पिछलों से कहती गई की भोजन नहीं यह पाप /
५-भोजन था सो जल गया और या में मीन न मेख
छेड़ छाड़ जाती रही सो कांता खटकत देख/ (१४/१५ बंसी -ओ -माही)
६- एक थाल मोती से भरा सब के सर पर औधा धरा .थाली चारो और फिरे मोती उसमे से एक न गिरे
७ -दौरी थी पिय मिलन को खांची मन में रेख अब मौनी क्यों हो गयी चलनी के कई देख
८-खीर पकाई जतन से चरखा दिया चलाय आया कुत्ता खा गया तू बैठी ढोल बजाय
मैं बिभिन्न बोलियों की चर्चा कर रहा था /शेख बहाउद्दीन वाजन /अबुल फजल /आईने अकबरी की चर्चा की थी ..आधुनिक भाषा वैज्ञानिक अनुसन्धान के सन्दर्भ में यह तथ्य जान लिया गया है की उस समय हरियाना दिल्ली और प. उत्तर प्रदेश में शौरसेनी अपभ्रंश की प्रधानता थी /अपभ्रंश का कोई एक ब्यवस्थित रूप नहीं होता निश्चय ही प्रत्येक अपभ्रंश में गौण प्रादेशिक बोलियाँ भी सन्निहित रही होंगी ,जिन्हों ने सम्बंधित प्रदेश की बोलियों को जन्म दिया होगा /हमें पता है की ब्रज भाषा की परम्परा अकबर से भी पहले की है और अकबर के काल में ब्रज भाषा में कृष्ण भक्तिअवधी में राम भक्ति की रचनाएँ हो रही थींतुलसी और सूर दो महान रचना कार लिख रहे थे तो अबुल फजल के कथन में शुद्धता का अभाव दिखता है/ यही दिल्ली के आस पास की बोलियों की होगी जो आगे चल कर खड़ी बोली कहलाईं ...
.अब कुछ और मुकरियां
१-एक नार है घेर घुमेली भीतर वाके लकड़ी मैली
फिरा करे चलने की आन उसकी इसमें बूझ आ सान /..सान
2 -बंद किये से निकला जाय छोड़ दिए से जावे आय
मूरख को देही नहीं सूझे ज्ञानी हो एक दम में बूझे /.दम
३नर नारी में कुश्ती है कुश्ती है बे पुश्ती है
बूझ पहेली जो कोई जाये बैकुंठे में बासा पाए /...रूह
४-जिसके पैरों वा पड़ी उसका जी घबराय ,
बहुत दुखों से कदम उठे ,रह न निबडी जाय /...बेड़ी
५-सागर बासा भोजन रक्त फूल रहत है क्यों
सीस छेद जबदह लिया फिर वह ज्यों की त्यों /...जोंक
६- ओ पक्षी है जगत में जो बसत भुइं से दूर
रैन को उसको बीना देखा दिन में देखा सूर /....चमगादर
(सान ,दम ,रूह ,बेड़ी ,जोंक ,चमगादर )
(पढ़िए और टिप्पड़ी जरुर कीजिये )
अमीर खुसरो देवनागरी में लिखना शुरू करने वाला पहला फकीर
इस भाषा को उस ज़माने में /आज भी हिन्दवी नाम से पुकारते है खुसरो को दिल्ली की आबोहवा नहीं जमी इस लिए
खुसरो हैदराबाद चले गए थे वंही लिखते थे
इस लिए आज लोग इसे दक्खिनी हिंदी के नाम से पुकारते हैं
मुकरी शब्द खुसरो की देंन है यह फारसी में नहीं था .
उस समय प्रचालन में इसके दो प्रकार थे
मुहमुकरी या कहमुकरी.मतलब है कह के मुकर जाना या सुन के मुकर जाना .इसकी शुरुआत खुसरो ने ही की थी .पहेली तो हिंदी में लोग कहने लगे यह हिन्दवी का शब्द है मुकरी
१)गुप्त घाव तन में लगे और जिया रहत बेचैन
ओखत (औषधि )खाय दुःख बढे सो करो सखी कुछ बैन
२)दिल का तो दुम्बल(फोड़ा)भया और नैनं का नासूर
जो ओखत से दुःख कटे तो मै भी करूं जरूर (दोनों का उत्तर -इश्क (प्रेम )
३)अपने समय में इक नार आय
तुक देखे और फिर छुप जाय
बूझ के उठियो कसम है तुम पर
आग बिना उजियारा दुम पर (जुगुनू )
४)फूल तो वा का ओखद सहाय
फल सब जग के कम में आय
उजड़ी खेती जावे नास
जब देखो जब पास का पास (कपास)
५)ठौर नीर पर होत है और भीतर के जल जाय
हांथी घोडा ऊंट शलीता वाही के बल जांय (पुल )
यह है हिंदी का प्रारंभिक रूप जो अमीर खुसरो ने शुरू किया .हिट होगया था
मित्रों अमीर खुसरो के नाम से जो भी हिन्दी काब्य में प्रचलित है वह जन श्रुति का हिस्सा है कोई लिखित प्रमाण नहीं है /अवध के शाही पुस्तकालय में खुसरो की कुछ पांडुलिपियाँ सुरक्षित थीं /उनके हिंदी काब्य पर पहला लेख १८५२ में जर्नल ऑफ़ एसियाटिक सोसाइटी बंगाल ने प्रकाशित किया था ...इस प्रस्तुति का मूल आधार वही लेख है ...
पहेली /मुकरी ....
१)जल का उपजा देखा जल में, कांटे हैं वाके कल कल में
गीला हो तो हाट बिकाय,सूखे से कई कम आये /(सिंघाड़ा )
2)दो नर में है एक ही नार, यही रहें हैं सबके द्वार
दो नर से वह नारी जूझे, जब जानो जब चट पट बूझे/ (कुंडा /सांकल )
३)एक नारी में जब नर जाय, काला मुंह कर उलटा आय
छाती घाव अपनी सहे, मन के वचन पर आय कहे/ (दावत -कलम )
४)काला मुंह कर जग दिखलावे, भूला बिसरा याद दिलावे
रैन दिना चातर गम खाता, मूरख को लेखा नहीं आता /(खाता बही कलम )
५)मुंह से उगले मुंह से खाय ,मुंह से मुंह को लगाती जाय
ठोक बदन कहलाती है, हर दम में बन चलती है /(तुफंग अर्थात प्रक्षिप्त )
६)बिलक बिलक भोजन करे, और कास कास में बीठ
जनवर है पर जो नहीं लेत सवारी पीठ ( ढेंकुली )
खुसरो की पहेलियों .का संग्रह खालिक बरी के नाम से प्रचलित है किन्तु इसके भाषिक तथा कलात्मक दोष के कारन कुछ लोग इसे खुसरो की कृति नहीं मानते /खुसरो प्रतिभा शाली बुद्धि मान और हिन्दवी की बोलियों ठोलियों में रचे बसे थे अरबी फ़ारसी में निष्णात थे इन्हें हिन्दवी -तथा अरबी फ़ारसी शब्दों के अलंकारिक अर्थ सम्बन्ध जोड़ने में दक्षता प्राप्त थी /
अमीर खुसरो के नाम से जिस हिंदी उर्दू या हिन्दुस्तानी काब्य को जोड़ा जाता है उसके बारे में पहला सवाल यह उठता है की उसे कौन सी संज्ञा दी जाय क्यों की हिंदी उर्दू हिन्दुस्तानी का वर्तमान भाषिक अर्थ तेरहवीं शताब्दी में नहीं था ग्रियर्सन ने पूर्वी हिंदी और पश्चिमी हिंदी का जो विभाजन और शब्दावली निर्माण बिहार से पंजाब तक के भारतीय आर्य बोलियों के वर्गीकरण के लिए किया था उसे अमीर खुसरो की भाषा पर चस्पा कर देना ठीक नहीं /क्यों की एक तो यह शब्दावली मात्र है ,इस नाम की कोई भाषा या बोली नहीं है दूसरे उसकी संकल्पना भी बहुत बाद की है ,खड़ी बोली ,ब्रज ,हरियाणवी के नाम भी बाद में ही प्रचलित हुए .उस काल की बोलियों के नाम मध्य युग श्रोतों से जो भी प्राप्त है दोष युक्त या अधूरे है ,लेखकों ने उन्ही बोलियों के नाम का उल्लेख किया है जिन्हें वे जानते थे जिनके प्रदेशों से परिचित थे ,१५ वीं शदी के अंत में शेख बहाउद्दीन वाजन की भाषा "जबान- ये -देहलवी'कहलाती थी/ १६ वीं शदी में अबुल फजल ने, आईन-ये-अकबरी में हिंदी की केवल दो भाषा देहलवी और मारवाड़ी (राजस्थानी) का उल्लेख किया है जाहिर है इनके आलावा और भी बहुत सी बोलियाँ थीं..
..अब कुछ मुकरियां .
1-माथे वाके छेक है और चरण थूर कर यहांव
बहियन पर छाती टिकी रहे और पीठ पर वाके पांव /(चोली)
२-सर बल जावे नारी एक छोटी ऊपर छोटी देख
सीना व का सब को भावे सभी जगत के कम में आवे/ (सोजन )
३-भूके प्यासे आते हैं वो बुजुर्ग क्यों कहलाते हैं
फ़िक्र से उनको मुंह में रखे बैकुंठो में भोजन चखे/ (रोजा )
४-आई थी भोजन करन भोजन हो गई आप
पिछलों से कहती गई की भोजन नहीं यह पाप /
५-भोजन था सो जल गया और या में मीन न मेख
छेड़ छाड़ जाती रही सो कांता खटकत देख/ (१४/१५ बंसी -ओ -माही)
६- एक थाल मोती से भरा सब के सर पर औधा धरा .थाली चारो और फिरे मोती उसमे से एक न गिरे
७ -दौरी थी पिय मिलन को खांची मन में रेख अब मौनी क्यों हो गयी चलनी के कई देख
८-खीर पकाई जतन से चरखा दिया चलाय आया कुत्ता खा गया तू बैठी ढोल बजाय
मैं बिभिन्न बोलियों की चर्चा कर रहा था /शेख बहाउद्दीन वाजन /अबुल फजल /आईने अकबरी की चर्चा की थी ..आधुनिक भाषा वैज्ञानिक अनुसन्धान के सन्दर्भ में यह तथ्य जान लिया गया है की उस समय हरियाना दिल्ली और प. उत्तर प्रदेश में शौरसेनी अपभ्रंश की प्रधानता थी /अपभ्रंश का कोई एक ब्यवस्थित रूप नहीं होता निश्चय ही प्रत्येक अपभ्रंश में गौण प्रादेशिक बोलियाँ भी सन्निहित रही होंगी ,जिन्हों ने सम्बंधित प्रदेश की बोलियों को जन्म दिया होगा /हमें पता है की ब्रज भाषा की परम्परा अकबर से भी पहले की है और अकबर के काल में ब्रज भाषा में कृष्ण भक्तिअवधी में राम भक्ति की रचनाएँ हो रही थींतुलसी और सूर दो महान रचना कार लिख रहे थे तो अबुल फजल के कथन में शुद्धता का अभाव दिखता है/ यही दिल्ली के आस पास की बोलियों की होगी जो आगे चल कर खड़ी बोली कहलाईं ...
.अब कुछ और मुकरियां
१-एक नार है घेर घुमेली भीतर वाके लकड़ी मैली
फिरा करे चलने की आन उसकी इसमें बूझ आ सान /..सान
2 -बंद किये से निकला जाय छोड़ दिए से जावे आय
मूरख को देही नहीं सूझे ज्ञानी हो एक दम में बूझे /.दम
३नर नारी में कुश्ती है कुश्ती है बे पुश्ती है
बूझ पहेली जो कोई जाये बैकुंठे में बासा पाए /...रूह
४-जिसके पैरों वा पड़ी उसका जी घबराय ,
बहुत दुखों से कदम उठे ,रह न निबडी जाय /...बेड़ी
५-सागर बासा भोजन रक्त फूल रहत है क्यों
सीस छेद जबदह लिया फिर वह ज्यों की त्यों /...जोंक
६- ओ पक्षी है जगत में जो बसत भुइं से दूर
रैन को उसको बीना देखा दिन में देखा सूर /....चमगादर
(सान ,दम ,रूह ,बेड़ी ,जोंक ,चमगादर )
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