यह कविता नही .
मेरे एकांत का प्रवेशद्वार है
यहीं आकर सुस्ताता हूँ मैं
टिकाता हूँ यहाँ अपना सिर
जिन्दगी की जद्दो जहद से थक हार कर |
जब भी लौटता हूँ यहाँ
आहिस्ता से खुलता है
इसके भीतर एक द्वार
जिसमे धीरे से प्रवेश करता मैं
तलाशता हूँ अपना निजी एकांत.
यहीं मई होता हूँ वह
जिसे होने के लिए
मुझे कोई प्रयास नही करना पड़ता....
पूरी दुनिया से छिटक कर
अपनी नाभि नाल से जुड़ता हूँ मैं यहीं
मेरे एकांत में देवता नही होते
न ही उनके लिए होती हैकोई प्रार्थना
मेरे पास होती हैं
जीवन की बाधाएं
कुछ स्वपन और कुछ कथाएं ..
होती है धुंधली सी एक धुन
हर देश काल में जिसे
अपनी तरह से पकड़ता पुरुष
बहार आता है अपने आप से ____
No comments:
Post a Comment