परसों
से हर चैनल ने यह समाचार तो जरुर दिखाया कि लंबे समय से दो शर्तों के
कारण भारत और अमेरिका के बीच अटकी पड़ी न्यूक्लियर डील को बराक ओबामा के
साथ बात कर मोदी ने पहले दिन ही क्लीयर करवा दी। लेकिन किसी ने भी यह नहीं
बताया कि इसकी देश ने कितनी बड़ी कीमत चुकाई।
यूपीए सरकार ने भारत ने देशहित को सामने रखकर न्यूक्लियर डील पर हस्ताक्षर जरूर किए लेकिन उसकी दो शर्तों के कारण वह आज तक लागू नहीं हो सकीं थीं।
यूपीए सरकार ने भारत ने देशहित को सामने रखकर न्यूक्लियर डील पर हस्ताक्षर जरूर किए लेकिन उसकी दो शर्तों के कारण वह आज तक लागू नहीं हो सकीं थीं।
1)
डील में पहली बाधा इस बात पर एकमत न होना था --भारत का कहना था कि चूंकि
इस डील का प्रेरक और निर्माता बनने का श्रेय अमेरिका बन रहा है तो भविष्य
में चेरनोबिल जैसी घटना होने पर दुर्घटनाग्रस्त लोगों को मदद के लिए 1500
करोड़ रूपए का एक फंड बने जिसमें अमेरिका योगदान दे।
2) दूसरी बाधा मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली सरकार द्वारा अमेरिका की यह थोपी हुई यह शर्त मानना बना था कि -अमेरिका जब और जितनी बार चाहे भारत के सभी न्यूक्लियर संयंत्रों की जांच कर सकता है।
अमेरिका यह दो शर्तें मनवाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सहित विश्व के हर मंच का उपयोग कर भारत पर दबाव बनवाता रहा लेकिन मनमोहन सिंह इस शर्त को मानने के बाद भारत के भविष्य के साथ होनेवाले खतरों को जानते थे और उन्हें देश की सार्वभौमिकता का अंदाज था इसलिए वे अमेरिका के सामने नहीं झुके।
ओबामा की यात्रा के पहले दिन ही भारत ने दोनों शर्तों को स्वीकार ही नहीं किया बल्कि देश की सुरक्षा के साथ ऐसा समझौता किया है जिसकी सजा देश सदियों तक भुगतेगा।
भारत ने स्वीकार कर लिया है कि
1) 1500 करोड़ रू.के फंड को भारत ही देगा। 750 करोड़ देश की चार बीमा कंपनियां देंगी और शेष 750 भारत सरकार देगी।
2) भारत ने अनंत काल तक के लिए अपने सारे न्यूक्लियर संयंत्रों की जांच अमेरिका के बदले --न्यूक्लियर पावरवाले देशों के संगठन से--करवाना स्वीकार कर लिया। यह सभी जानते हैं कि विश्वबैंक और आईएमएफ की तरफ यह संगठन भी अमेरिका की ही जेबी संस्था है।
अब भारतवासियों को खुद अपने अंदर झांककर देखना है कि उसने तीन दिवसीय तमाशे की कितनी बड़ी कीमत चुकाई है।
2) दूसरी बाधा मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली सरकार द्वारा अमेरिका की यह थोपी हुई यह शर्त मानना बना था कि -अमेरिका जब और जितनी बार चाहे भारत के सभी न्यूक्लियर संयंत्रों की जांच कर सकता है।
अमेरिका यह दो शर्तें मनवाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सहित विश्व के हर मंच का उपयोग कर भारत पर दबाव बनवाता रहा लेकिन मनमोहन सिंह इस शर्त को मानने के बाद भारत के भविष्य के साथ होनेवाले खतरों को जानते थे और उन्हें देश की सार्वभौमिकता का अंदाज था इसलिए वे अमेरिका के सामने नहीं झुके।
ओबामा की यात्रा के पहले दिन ही भारत ने दोनों शर्तों को स्वीकार ही नहीं किया बल्कि देश की सुरक्षा के साथ ऐसा समझौता किया है जिसकी सजा देश सदियों तक भुगतेगा।
भारत ने स्वीकार कर लिया है कि
1) 1500 करोड़ रू.के फंड को भारत ही देगा। 750 करोड़ देश की चार बीमा कंपनियां देंगी और शेष 750 भारत सरकार देगी।
2) भारत ने अनंत काल तक के लिए अपने सारे न्यूक्लियर संयंत्रों की जांच अमेरिका के बदले --न्यूक्लियर पावरवाले देशों के संगठन से--करवाना स्वीकार कर लिया। यह सभी जानते हैं कि विश्वबैंक और आईएमएफ की तरफ यह संगठन भी अमेरिका की ही जेबी संस्था है।
अब भारतवासियों को खुद अपने अंदर झांककर देखना है कि उसने तीन दिवसीय तमाशे की कितनी बड़ी कीमत चुकाई है।
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