Sunday, 18 March 2012
कहाँ जांय.क्या करें .दम घुटता है
कहाँ जांय.क्या करें .दम घुटता है .
इससे परे कोई दुनियां है क्या !मन कहता है
कुछ खुसी हो जहाँ हम वहां पर चलें .
जिन्दगी हो जहाँ चल वहां पर चलें .
नित वही चन्दन, नित वही पानी,
सब कुछ तो सड़ गया है .
बदबू और सड़ांध से ,बजबजाती जिन्दगी
ऋतू धर्म से भींगे लथफत लत्ते के तरह
अलग थलग फेक दी गई जिन्दगी
आँख भर पसरी उदासी खुरदुरी ........
इसके उस पार है क्या कोई तिलस्मी दुनियां
जहाँ चैन से सुकून से कुछ क्षण जी सकता हो आदमी
जहाँ फेफड़ा भर सकता हो एकबार सिर्फ एकबार ताजी हवा से
जहाँ इंसानियत अदब .इमानदारी से .चैन की साँस ले सके .
एक अदद बसंत की प्रतीक्षा में .
पतझर की वीरानी पसर गई है रोम रोम में .
भीतर अंतस में उग आये हैं हजारों ठूंठ .
इन पर कभी नहीं कूकती कोयल.
ठंढी हवा को इधर से गुजरे अरसा बीत गया.
उमर भटकते बना भिखारी जीवन ही जंजाल हो गया.
चेतन सब निर्जीव हो गए और मौन भगवान हो गया.
और कितनी प्रतीक्षा !कितनी परीक्षा !
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