Saturday, 26 May 2012
.दर्द के गाँव से नित गुजरना ही है
दर्द के गाँव से नित गुजरना ही है ,हम को जीना यहीं ,यहीं मरना भी है
अपनी फितरत में है दर्द को जीतना, दर्द लेना भी है दर्द सहना भी है
दर्द के गीत ही मीत अपने हुए, इनको जीना भी है इनको गाना भी है
इस जहां में नहीं कोई ऐसी जगह ,दर्द के रास्ते जिन से गुजरे न हो
दर्द ही मीत है ,दर्द ही गीत है, दर्द ही प्यार है ,दर्द संसार है
दर्द को ओढ़ना दर्द बिस्तर भी है ,दर्द का ही सिरहाना लगता हूँ मै .
इसलिए तो सदा गुनगुनाता हूँ मै ,इसलिए तो सदा खिल खिलता हूँ मै
.दर्द के गाँव से नित गुजरना ही है ,हम को जीना यहीं ,यहीं मरना भी है
अपनी फितरत में है दर्द को जीतना, दर्द लेना भी है दर्द सहना भी
Friday, 25 May 2012
जगह-जगह फूल खिलें
प्रसिद्ध रूसी विचारक मैडम ब्लावत्स्की अपनी हर यात्रा में एक थैला रखती थीं, जिसमें कई तरह के फूलों के बीज होते थे। वह जगह-जगह उन बीजों को जमीन पर बिखेरती रहती थीं। लोगों को उनकी यह आदत बड़ी बेतुकी लगती थी। लोग समझ नहीं पाते थे कि इस तरह बीज बिखेरते रहने से क्या होगा। उन्हें आश्चर्य होता था कि मैडम ब्लावत्स्की जैसी समझदार महिला सब कुछ जानते हुए भी ऐसा क्यों कर रही हैं। पर लोगों को उनसे इस बारे में पूछने का साहस ही नहीं होता था।
लेकिन एक दिन एक व्यक्ति ने पूछ ही लिया-मैडम अगर आप बुरा न मानें तो कृपया बताएं कि आप इस तरह क्यों फूलों के बीज बिखराती रहती हैं? मैडम ने सहज होकर कहा- वह इसलिए कि बीज सही जगह अंकुरित हो जाएं और जगह-जगह फूल खिलें। उस व्यक्ति ने इस पर फिर सवाल किया-आपकी बात तो सही है पर क्या आप यह दोबारा देखने जाएंगी कि बीज अंकुरित हुए या नहीं, फूल खिले कि नहीं?
इस पर मैडम ने कहा-इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं उन रास्तों पर दोबारा जाऊं या नहीं। मैं अपने लिए फूल नहीं खिलाना चाह रही। मैं तो बस बीज डाल रही हूं ताकि चारों तरफ फूल खिलें और धरती का शृंगार हो जाए। धरती सुंदर हो जाए। फिर जो इन फूलों को देखेगा उनकी आंखों से भी मैं ही देखूंगी। फूल हों या अच्छे विचार, उन्हें फैलाने के काम में हर किसी को योगदान करना चाहिए। अगर प्रयासों में ईमानदारी है तो सफलता मिलेगी ही।
Tuesday, 22 May 2012
अच्छा बननाशेष रह गया .
अच्छा बननाशेष रह गया .
मै उतना अच्छा आदमी नहीं निकला
जितनी की मुझे उम्मीद थी कि मै हो पाउँगा
कई बार अच्छा बनाने कि कोशिश में सारी अच्छाई झर जाती है
और अच्छा बनाना फिर भी शेष रह जता है
मुझे भरोषा तो था लेकिन जाहिर है
मैंने उतनी कोशिश नहीं कि जितनी कि जरूरत थी
मुझे अपने बच्चों कि पढ़ी लिखी का जादा तो नहीं
पर इतना अता पता तो रहा कि वे किस दर्जे में पढ़ते हैं
मैंने उन्हें बहुत सलाह नहीं दी और नसीहत या उपदेश भी नहीं
पर उन्हें साफ सफाई से जीवन बसर करना ,किसी पर निर्भर न रहना
अपना कम खुद करना सर न झुकना ,किसी का एहसान न लेना ,भरसक मददगार होना
अपने पद ,पोजीशन का नजायज फायदा न उठाना वगौरह वगैरह तो आ ही गया /
उनकी अपनी मुश्किलें हैं ,तो मेरी ही कौन सी कम हैं
एक अच्छा पिता ,उन्हें अवसर का लाभ उठाने आज कि दुनिया में
अपना कम निकालने कि कुछ हिकमतें तो बता ही सकता था
जो मैंने नहीं किया क्यों कि -
बासठ बरस कि उम्र हो जाने के बाद भी
मुझे खुद ही पता नहीं है कि
हमारे समय में जिन्दगी जी कैसे जाती है .
सिर्फ इतना ही समझ पाया कि कैसे
जुटाया जाता है ,छत छप्पर जगह और रहत का सामान .
नहीं समझ पाया कि कैसे खादी कि जाती हैं दीवारें ,तोड़े जाते हैं रिश्ते .
क्या होता है चरित्र का छल ,कैसे बनाया जता है घर को बाजार
इस मायने में पूरा राज कपूर ही रहा -
सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशयारी सच है दुनिया वालों कि हम हैं अनारी .
मेरे बच्चों ! अगर तुम सफल नहीं होते तो इसका जिम्मा मेरा जरूर होता
हलन की आज तुम मुझ पर निर्भर नहीं हो .
जिन्दगी तुम्हारे साथ कल क्या करेगी इस बारे में मैं कोई अटकल लगना नहीं चाहता
पर अगर मई अच्छा होता ,तो तुम्हे इअतना अबोध न छोड़ता
जितना मैंने तुम्हे शायद इस खूंखार वक्त में छोड़ दिया है
तभी तो चालक चालों की शरारत ने तुम्हे आमूल चूल बदल दिया है
हालाँकि तुम सब अब भी मेरी प्यारी संताने हो .मई तुम्हे बे हद प्यार करता हूँ .
मई अच्छा पिता तो नहीं बन सका तो अच्छा इन्सान बनाने का तो सवाल ही नहीं उठाता
चूक मुझसे कहीं वफादारी में भी हुई है ,शायद अपने लालच में
मैंने सोचा कि कई जगहें हैं ,हो सकती हैं ,और एक जगह दूसरी को रद्द नहीं करती
मुझे ख्याल तो था कि दुनिया के इतने विशाल होने के बावजूद जगहें बहुत कम ही हैं
जिसे जितनी मिली है उसी पर जम कर काबिज है
और इसकी मोहलत नहीं कि आप जगहों के बीच आवा जाही करते रहें .
मैंने प्रेम ,बांटा नहीं बल्कि पाया कि यह एक ओर बढ़ने से
दूसरी ओर कमतर नहीं होता बढ़ता ही है
आश्मान कि तरह एक शून्य बना रहता है जिसे कई कई सूरज भरते रहते हैं
उन्ही कि धुप में मैं खिलाता और कुम्हिलता रहा .
मैंने जीवन और कविता को आपस में उल्झादिया
जीवन की कई सच्चाइयों और सपनो को कविता में ले गया
आश्वश्त हुआ कि जो शब्दों में है वह बचा रहेगा कविता में .
भले ही जीवन में नहीं,गलती यह हुई .
जो कविता में हुआ उसे जीवन में हुआ मन कर संतोष कटा रहा .
अपने सुख और दुःख को अपने से बड़ा मनाकर
दूसरों के पास उसे शब्दों में ले जाने कि कोशिश में वे सब बदल गए और मई भी
और जो कुछ पन्हुछा शायद न मई था न मेरे सुख दुःख ,मुझे ठीक से पता ही नहीं था कि
हमारे समय में अच्छे दोस्त ही सच्चे दुश्मन होते हैं
अपने ही पक्के पराये .क्यों कि औरों को आप या आप कि
जिन्दगी में दखल देने कि फुर्सत कहाँ है
कभी कभार के भावुक विष्फोट के अलावा किसी से अपने दुःख का सज्खा नहीं किया
न मदद मांगी न शक किया ,गप्पबाजी में ही मन के शक को बह जाने दिया
कुछ शोहरत ,खासी बदनामी मिली ,पर बुढ़ापे के लिए ,अपने लिए ,
मुश्किल वक्त के लिए ,कुछ बचाया और जोड़ा नहीं .
किसी दोस्त ने कभी ऐसा करने कि गंभीर सलाह भी नहीं दी
इसी आपा धापी में किसी कदर आदमी बनाने कि कोशिश में
बासठ बरस गुजर गये पर अच्छा बनाना शेष रह गया
अब तो जो होना था हो गया
दल के पक्षी अचानक उड़ गए सब फुर्र से
बया बेचारा अकेला रहा गया ,घोसले के द्वार पर लटका हुआ /
Sunday, 20 May 2012
जीवन इतना कठिन है
जीवन इतना कठिन है और कठिन क्यों करना
जो कुछ दिया विधाता ने उस में ही खुश रहना
तेरे भाग्य में जो भी होगा तय है उसका मिलाना
किसी और की चुपड़ी रोटी से फिर क्यों जलना
चार दिनों का यह मेला है लेना नहीं झमेला
हंसी ख़ुशी से सबसे मिल कर खेल जाओ यह खेला
याद रखेगी तुमको दुनिया जब तुम हंस कर जाओगे
भाई बन्धु और कुटुंब कबीला दोस्त मित्र हरसाओगे
Saturday, 19 May 2012
पानी बीच बताशा भैया तन का यही तमाशा है
पानी बीच बताशा भैया तन का यही तमाशा है
क्या ले आया क्या ले जायगा क्या बैठा पछताता है
मुट्ठी बांधे आया बन्दे हाथ पसारे जाता है
किसकी नारी कौन पुरुष है कहाँ से लगता नाता है
बड़े बिहाल खबर न तन की बिरही लहर बुझाता है
एक दिन जीना, दस दिन जीना ,जीना बरस पचासा है
अंत काल बीसा सो जीना फिर मरने की आशा है
ज्यों ज्यों पांव धरो धरती मेंत्यों त्यों यम नियराता है
कहै कबीर सुनो भाई संतो गाफिल गोता खाता है
फुहरी.
Friday, 18 May 2012
तुलसी ने काम को पीट पीट कर राम बना दिया
Wednesday, 9 May 2012
अब्दुल रहीम खान खाना - क्रमशः ..2..गतांक से आगे
Tuesday, 8 May 2012
अब्दुल रहीम खान खाना
Sunday, 6 May 2012
.जगंनजासुनवभतयचापमग्रा..
Saturday, 5 May 2012
गर्मी के दिन :कुछ अभंग छंद
काल - कलौती
उषा पीसती नेह जतन से
जांत चले भिनसारे
भोर लीपती रच रच आँगन
पूरे चौक दुआरे ..
मूसल छांटे बिपति दुपहरी
ओखली धरी ओसारे
साँझ झोंकती थकी जवानी
चूल्हे में सिर डारे ...
आधी रात बदलती करवट
आँख समय बिरुआरे
चेहरे पर चौरासी झुर्री
मईया ठाढ़ दुआरे ....
लाले लाले गोड़ कनईया
आँखे सपना बुनतीं
काल कलौती उज्जर धोती
मंशा चुनती मोती....
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