Thursday, 16 February 2012
हमें उदास होना नहीं आता ,
हड्डियों को लकड़ी,
और,
केशों को घास की तरह
जलते देख कर
कभी कोई कबीर उदास हो गया था .
रही होंगी
उसके समाज के दिलों में धडकने
रहा होगा
उसका उठना बैठना
किसी जीवित परिवेश में
तभी तो
वह कर सका भेद
जीवन और मृत्यु का .
पा सका बोध
जीवन की नश्वरता का .और
कर सका अलग ,अपने को अन्यो से
गा सका गीत आत्मा का
कर सका उद्घोष
हम न मरें मरिहैं संसार .
वह पाचुका था जीने का स्वाद
समझ चुका था जीने की कला और
जीवित रहने का रहस्य .
परन्तु जो मिला है हमें ....
ईंट गारे का ताबूत ,जिसकी
बुनियादों में भूचाल ,दीवारों में
षड्यंत्रों का पलस्तर ,रंग रोगन धूर्तता का
स्वार्थी रिश्तों की अर्चना,दम्भी प्रतिशोध की बेदी
लोलुपता का घृत और विद्वेष की आग से
उठते जड़ता के धुंए में ,थम्ही हुई धड़कने .
बेजान जिन्स सी जिन्दा लाशों की समिधा
सड़े हुए समबन्धों की चिरायद गंध .
जीवन को नरक करदेने वाली यज्ञ शाला .
हम खड़े हैं धधकते ज्वाला मुखी के मुहाने पर
फिर भी हम इसे घर कहते हैं .
हमारा उत्साह,हमारी हिम्मत, हमारी जिजीविषा, तो देखो
हम इसी घर में रहते हैं ,हमें उदास होना नहीं आता ,
हमने भी विकसित कर ली है अपनी जीने की कला.
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