Sunday, 11 December 2011

एक नन्हा लड़का रोज चौराहे के पास

एक नन्हा  लड़का  रोज चौराहे के पास
दिखता था  अपनी अंधी माता के साथ
कहता था खाना दो पैसा दो ..
उसकी अबोध आँखों में सपने नहीं दिखते
झांकती थीं रोटियां ..भूख का दर्द
मिली हुई झिडकियां ,घृणा तिरस्कार   ...
आदमी की औलाद होने का पुरस्कार
याचना में फैले हुए,  हाँथ मांगते थे भात /
एक दिन अचानक ,सुनाई पड़ा ..
रेलवे जोन खतरे में है ,सभी निकल पड़े सडको पर लेकर झंडे/
कालेज स्कूलों के छात्र, युवक, खेतिहर, मजदूर
कृषक  और राजनीति के पंडे/
घोषणा की गई आज शहर बंद है ,होगा घेराव
पुलिस ने भी अपने निकल लिए डंडे
सात दिन लगातार आगजनी  फायर पथराव
कर्फ्यू की कैद में मेरा शहर ,भोगता ही रहा ,तनाव
इधर आक्रोश उधर दमन बेबस , करता रह सब कुछ सहन
आठवें दिन कर्फ्यू के बंधन जब शिथिल हुए
निकल पड़े सड़कों पर लोग ,किन्तु नहीं दिखा मुझे
वह अधनंगा  लड़का, अपनी माँ अंधी के साथ ,
 उस परिचित चौराहे के पास
किसी ने बताया .एक अंधी की लाश ,पड़ी हुई होटल के पीछे
कर रही है जूठन की तलाश  /प्रजातंत्र के रक्षक ,जेइल अस्पतालों में
फोटो खिचवाने और भाषण  छपवाने में ब्यस्त ,पार्टी कार्यालयों में
लिखा जा रहा था उपलब्धि का इतिहास
,इसी वर्ष निर्वाचन हो जाता काश ...
अंधी ली लाश को घेर ,खड़े तमाशबीनो की  भीड़ को चीर कर
 एक नग्न लड़के ने लाश की छाती पर खड़े हो कर
 दिया एक हलफ नामा
बंद करो करना बकवास,फूंक दो झूठे इतिहास ,,,
और वे हाथ जो मांगते थे भात ,
उठ गए विरोध में ब्यवस्था के उसीदिन एक साथ ?


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