आज मुहर्रम के दिन मुझे मेरे दादा जी बहुत याद आये /हमारा छोटा सा गाँव प्रायः सभी जातियां .मुसलमान सिर्फ एक, वह भी उनमे छोटी जाती का गरीब /मेरे दादा जी को काका कहते थे /.मुहर्रम के दस दिन पहले दादा जी फेरु को बुलाकर हिदायत देते थे की ताजिया ठीक से बनानासब गांवों से बड़ा बनाना /सबकुछ मेरे घर से बांस से लेकर लेई तक,अबरी पेपर के लिए पैसा भी ,हम सब फेरु की सहायता करते थे , ताजिया बनता था,दादाजी तक़...रीर करते थे ,हमलोग सुनते थे , झंघडिया बनते थे, दाहा का बाजा रात भर बजाते थे....... कड़वा कड़ाक्कड़ दहवा क लक्कड़ घंमड घंमड , बहुत मजा आता था .हमलोग पड़ोस के गाँव में अपना ताजिया ले जाते थे ,वह मुसल्मानो का गाँव था ,वहां सभी ताजिये इकट्ठा होकर फिर कर्बला जाते थे ,पंडित काका सबसे आगे .उनका ताजिया सबसे आगे. सबसे ऊँचा क्या शान थी .वाह रे दिन ...ईश्वर ने हमें केवल इन्सान बनाया लोंगो ने हमे हिन्दू मुस्लमान बनाया सम्बेदाना सहिस्नुता , सब हलाल कर दिया
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