Wednesday 13 July 2022

संघियों का हठ योग बनाम नेहरू की भारतीयता

 

संघियों का हठ योग बनाम नेहरू की भारतीयता
जब से भाजपा के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी है तब से उसका प्रयास पंडित जवाहर लाल नेहरू के नामोनिशान मिटाने का रहा है। कुछ माह पहले ही बांडुंग सम्मेलन की वर्षगांठ मनाई गई है और उसमें हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने नेहरू का नाम भी नहीं लिया। इधर अनेक अफ्रीकी देशों के नेता भारत आए थे। हमारे प्रधानमंत्री ने उनके बीच उनका नाम भी नहीं लिया यद्यपि अफ्रीकी नेताओं ने पंडित नेहरू के योगदान को सराहा और रेखांकित किया कि नवस्वतंत्र देशों को एकजुट करने में उनके प्रयास को भुलाया नहीं जा सकता। तब से हमारे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने नहीं चाहते हुए भी पंडित नेहरू का नाम लेना शुरू किया है। प्रधानमंत्री ब्रिटेन के दौरे पर थे जहां उन्होंने नेहरू का नाम अनेक बार लिया भले ही नहीं चाहते हुए। खैर, हमारा सत्तारूढ़ दल जितनी भी कोशिश करे वह न भारत का इतिहास बदल सकता है और न उसमें पं. नेहरू की भूमिका। आइए हम देखें कि नेहरू किस तरह के भारत का निर्माण आजादी के बाद करना चाहते थे। 1920 के दशक में उन्होंने पश्चिमी विश्व और तत्कालीन सोवियत संघ का दौरा किया और वहां समाजवादी उभार का अध्ययन किया। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि राष्ट्रवादी दृष्टि भारत जैसे देश के स्वतंत्रता संग्राम के लिए बेहद जरूरी है मगर आजादी प्राप्त होने के बाद हम किस दिशा में जाएंगे उसका खाका भी तैयार होना चाहिए। उनका मानना था कि राष्ट्रवादी दृष्टि को समाजवाद से जोडऩा होगा। याद रहे कि समाजवाद की रूपरेखा भारत की परिस्थितियों के अनुकूल होगा। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस उसे अवश्य स्वीकार करेगी। स्वतंत्रता संग्राम में जुटे एशिया और अफ्रीका के देशों को समाजवाद के आधार पर जोड़ा जा सकता है। उनके सामने समस्या थी कि भारत की परिस्थितियों को देखते हुए समाजवाद की क्या रूपरेखा होनी चाहिए। स्पष्ट है कि सोवियत संघ में अपनाई जा रही समाजवाद की रूपरेखा की कार्बन कॉपी को भारत में लागू करने का प्रयास सफल नहीं हो सकता। वह हमारी परिस्थितियों के अनुकूल होना चाहिए। उन्होंने देश के विभिन्न भागों में जाकर अपने समाजवादी विचारों और दृष्टि पर लोगों के साथ विचार विमर्श आरंभ किया। 18 मार्च 1928 को युवा लोगों के सामने तीन बातों को रखा: 1. भारत को पूर्ण आ•ाादी मिलनी चाहिए, 2. धर्म को विशुद्ध व्यक्तिगत मामला होना चाहिए और उसे राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक मुद्दों में हस्तक्षेप की इजाजत नहीं दी जा सकती, और 3. देश के सभी नागरिकों को जाति, वर्ग और संपदा का बिना ख्याल किए समाज अवसर मिलना चाहिए। उन्होंने देश में घूमकर लोगों, विशेषकर कांग्रेस कर्मियों को, स्वतंत्रता के महत्व के विषय में समझाया और इस बात पर जोर दिया कि हमें एक नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना की ओर बढऩा चाहिए। उन्होंने ऑल बंगाल स्टूडेंट्स कांफ्रेंस को बतलाया कि पूर्ण राष्ट्रीय आ•ाादी के बिना हम अपनी भावी प्रगति की दिशा और रूपरेखा तय नहीं कर सकते और न ही हम राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता की ओर बढ़ सकते हैं। राष्ट्रीय आ•ाादी का यह मतलब कतई नहीं है कि हम दूसरे राष्ट्रों के साथ लड़ाई-भिड़ाई करने और अपना विस्तार करने में जुट जाएं। हमें एक विश्व राष्ट्रमंडल बनाने की दिशा में प्रयास करना चाहिए जिससे उनके बीच सहयोग और एकजुटता बढ़े। उन्होंने रेखांकित किया कि जब तक दुनिया में साम्राज्यवाद रहेगा तब तक उपर्युक्त विचार आगे नहीं बढ़ सकता क्योंकि साम्राज्यवाद कमजोर देशों पर कब्जा जमाने के फेर में रहता है। राजनीतिक स्वतंत्रता आवश्यक है मगर वह अंतिम लक्ष्य का मात्र एक भाग है। उसके अन्य भाग हैं : सामाजिक और आर्थिक मुक्ति और बिना भेदभाव के आर्थिक विकास हो। भारत में जनसंख्या का एक बड़ा भाग युगों से दबाया जाता रहा है और उसे धर्म या तथाकथित परंपरा के नाम पर प्रगति से वंचित रखा गया है। सारे देश में लाखों मजदूरों को उनके योगदान का उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता है जिससे वे गरीबी और तंगहाली की जिंदगी जीने को मजबूर हैं। यह स्थिति तब तक नहीं बदलेगी जब तक हम समाजवादी व्यवस्था को नहीं अपनाएंगे। यदि हम सामाजिक समानता की दिशा में बढऩा चाहते हैं तो समाजवाद का कोई विकल्प नहीं हो सकता। पूरे देश में भ्रमण कर नेहरू ने लोगों को बतलाया कि देश की पूर्ण राजनीतिक आ•ाादी और सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण का एक ही मार्ग है : समाजवाद। उन्होंने गरीबी और दरिद्रता को महिमामंडित करने के प्रयास पर करारा प्रहार किया। उन्होंने उन लोगों की कड़ी आलोचना की कि अभी गरीबी और दरिद्रता की जिंदगी जीने वालों को परलोक में संपूर्ण सुख एवं शांति मिलेगी। उन्होंने रेखांकित किया कि गरीबी कोई अच्छी चीज नहीं है। उसे जड़मूल से उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है तभी आदमी का जीवन सुखमय हो सकेगा। गरीब पर न दया दिखाने की आवश्यकता है और न ही उसे किसी के दान पर निर्भर रहना चाहिए। नेहरू का मानना था कि गरीबी को जन्म देने वाली व्यवस्था का समूल नाश होना चाहिए। यह तभी संभव हो सकता है जब समाज में जन्मजात गरीबी का नाश हो। वर्तमान सामाजिक-अर्थव्यवस्था के स्थान पर भारत के लिए उपयुक्त समाजवादी व्यवस्था आए। नेहरू की इस नयी सोच को हम ''स्वराज और सोशियलिज्म में स्पष्ट रूप से देखते हैं। यह लेख 11 अगस्त 1928 को ''द न्यू लीडर नामक पत्रिका में छपा था। यहां प्रश्न उठाया गया था कि भारत के आजाद होने पर हम कौन सी व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं। हम भारत को आजादी के बाद किस दिशा में ले जाना चाहते हैं? इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए हमें देश की सीमाओं के बाहर देखना होगा और हमें देखना होगा कि पश्चिमी यूरोप में औद्योगिक क्रांति के बाद क्या परिवर्तन हुए हैं। आज हमारे देश में ऐसे अनेक लोग हैं जो हमारे इर्द-गिर्द क्या हो रहा है उसकी ओर ध्यान देने के बदले अब भी अतीत में जी रहे हैं। कुछ लोग वैदिक युग लाना चाहते हैं तो कई इस्लाम के आरंभिक दिनों को फिर से स्थापित करना चाहते हैं। हम इस बात को भुला रहे हैं कि हमारी प्राचीन सभ्यताएं बिल्कुल भिन्न स्थितियों में पनपी थीं। हमें बीते हुए कल को छोड़कर वर्तमान की ओर देखना होगा। पुराने मिथकों और धारणाओं को त्याग कर वर्तमान काल की परिस्थितियों और वास्तविकताओं की ओर देखना और उन्हें समझना होगा। यहां पर उन्होंने रूस का जिक्र किया और कहा कि किस प्रकार वह पूंजीवाद को त्याग कर सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण की ओर बढ़ रहा है। उसने समझ लिया है कि पूंजीवाद का रास्ता देर-सबेर साम्राज्यवाद और औपनिवेशिक शोषण की ओर ले जाएगा। व्यापार के क्षेत्र में गैरबराबरी की शर्तों और युद्ध की ओर ढकेलेगा। आजादी के बाद भारत का सामाजिक-आर्थिक आधुनिकीकरण पूंजीवाद के रास्ते पर चल कर नहीं हो सकता क्योंकि एक व्यक्ति का शोषण दूसरे व्यक्ति तथा एक जनसमूह का शोषण दूसरे जनसमूह से बचना काफी कठिन है। हम ब्रिटिश साम्राज्यवाद और शोषण के विरुद्ध हैं। इसी से यह बात सामने आती है कि हम पूंजीवाद का रास्ता नहीं अपना सकते क्योंकि वही साम्राज्यवाद की जननी है। विकल्प है कि हम समाजवाद के किसी न किसी रूप को अपनाएं जो भारत की स्थितियों और परिस्थितियों के अनुरूप हो। इस प्रकार भारत पर ब्रिटिश दबदबे के खिलाफ हम उठ खड़े हों। ऐसा हम राष्ट्रवादी आधार पर ही न करें बल्कि सामाजिक एवं अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को देखते हुए आवश्यक है। हम ध्यान से देखें तो पाएंगे कि पंडित नेहरू नवउपनिवेशवाद के विभिन्न पहलुओं से अवगत थे। उन्होंने रेखांकित किया कि ब्रिटेन हमें काफी हद तक राजनीतिक क्षेत्र में स्वतंत्रता दे सकता है। हम देश के अंदर चुनाव के आधार पर सरकार भी बना सकते हंै मगर वह अपना आर्थिक आधिपत्य नहीं छोड़ सकता। स्पष्ट है कि आर्थिक आजादी के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता बेमानी है। एक स्वतंत्र अर्थव्यवस्था के बिना राजनीतिक आजादी काफी कुछ निरर्थक है। हम देश की आजादी की मांग अनेक दृष्टियों से कर सकते हैं मगर आर्थिक आ•ाादी के बिना यह सब बेमानी है। असल चीज तो आर्थिक आजादी है। हमें देश की जनता की समस्याओं को देखते हुए अर्थव्यवस्था की दिशा और उसकी आंतरिक स्थितियों को नियोजित करने की पूरी आजादी होनी चाहिए। नेहरू ने बार-बार इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि हमारी आजादी की लड़ाई को अन्य देशों के स्वतंत्रता संग्राम के साथ जोड़कर देखना चाहिए। हम अलग-थलग नहीं रह सकते। देश की सीमाओं के बाहर जो कुछ हो रहा है हम उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। हमें आजादी मिलने के बाद देश के सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण की दिशा क्या होगी उस पर पहले से विचार कर उसकी रूपरेखा बनानी चाहिए। आज नरेंद्र मोदी की सरकार मुख्य रूप से विदेशी प्रत्यक्ष निवेश पर निर्भर दिखती है। वह इस बात को नजरअंदाज कर रही है कि मूडी ने क्या कहा है। मूडी दुनिया की तीन बड़ी रेटिंग एजेंसियों में एक है। बाहर से आकर यहां निवेश करने वाले उससे मार्गदर्शन लेते हैं। मूडी ने रेखांकित किया है कि देश के अंदर ऐसी ताकतें हैं जो देश का सांप्रदायिक विभाजन करना चाहते हैं। इस स्थिति में यहां निवेश करना भारी जोखिम उठाना है। कहना न होगा कि नरेंद्र मोदी के तमाम विदेश भ्रमण के बावजूद आशानुकूल मात्रा में विदेशी निवेश नहीं आया है।

*धर्म (Dharma)*

 

*धर्म (Dharma)*
किसी भी वस्तु के स्वाभाविक गुणों को उसका धर्म कहते है जैसे अग्नि का धर्म उसकी गर्मी और तेज है। गर्मी और तेज के बिना अग्नि की कोई सत्ता नहीं।अत: *मनुष्य का स्वाभाविक गुण मानवता है। यही उसका धर्म है।*
*कुरान* कहता है – *मुस्लिम बनो।*
*बाइबिल* कहती है – *ईसाई बनो।*
किन्तु *वेद* कहता है – *मनुर्भव अर्थात मनुष्य बन जावो (ऋग्वेद 10-53-6)।*
अत: *वेद (Ved) मानवधर्म का नियम शास्त्र है।* जब भी कोई समाज, सभा या यंत्र आदि बनाया जाता है तो उसके सही संचालन के लिए नियम पूर्व ही निर्धारित कर दिये जाते है परमात्मा (god) ने सृष्टि के आरंभ में ही मानव कल्याण के लिए वेदों के माध्यम से इस अद्भुत रचना सृष्टि के सही संचालन व सदुपयोग के लिए दिव्य ज्ञान प्रदान किया। *अत: यह कहना गलत है कि वेद केवल आर्यों (हिंदुओं) के लिए है, उन पर जितना हक हिंदुओं का है उतना ही मुस्लिमों का भी है।*
मानवता का संदेश देने वाले वैदिक धर्म (vedic religion) के अलावा दूसरे अन्य मत किसी व्यक्ति विशेष द्वारा चलाये गए। मत चलाते समय उन्होने अपने को ईश्वर का दूत व ईश्वर पुत्र बताया, ताकि लोग उनका अनुसरण करें। जैसे – *इस्लाम धर्म पैगंबर मुहम्मद (Prophet Muhammad) द्वारा, ईसाई धर्म ईसा-मसीह (Jesus-Christ) द्वारा और बौद्ध धर्म महात्मा बुद्ध (Buddha) द्वारा आदि।* क्योंकि सभी अनुयायियों को धर्म के चलाने वाले पर विश्वास लाना आवश्यक है। अत: ये धर्म नहीं, मत है। ये सब मत वैज्ञानिक (scientific) भी नहीं है, जबकि धर्म और विज्ञान का आपस में अभिन्न संबंध है। जहाँ धर्म है वहाँ विज्ञान है। *देखो, बाइबिल में सूर्य को पृथ्वी के चारों ओर परिक्रमा करना बताया है जबकि वेद कहता है कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर जल सहित घूमती है।* इतना ही नहीं विज्ञान का कोई भी क्षेत्र हो, वेदों से नहीं छूटा। अत: जो मत विज्ञान की कसौटी पर खरे नहीं उतरते, वे धर्म भी नहीं है। गीता में श्रीकृष्ण जी कहते है कि *‘यतो धर्मस्ततो जय:’* अर्थात जहाँ धर्म है वहाँ विजय है आगे आता है कि *‘वेदोsखिलो धर्ममुलं’* अर्थात वेद धर्म का मूल है।
वेदों के आधार पर महर्षि मनु (manu) ने धर्म के 10 लक्षण बताए है :-
*धृति क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह:*
*धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणमं ॥*
*(1) धृति कठिनाइयों से न घबराना।
*(2) क्षमा शक्ति होते हुए भी दूसरों को माफ करना।
*(3) दम मन को वश में करना (समाधि के बिना यह संभव नहीं) ।
*(4) अस्तेय चोरी न करना। मन, वचन और कर्म से किसी भी परपदार्थ या धन का लालच न करना ।
*(5) शौच शरीर, मन एवं बुद्धि को पवित्र रखना।
*(6) इंद्रिय-निग्रह इंद्रियों अर्थात आँख, वाणी, कान, नाक और त्वचा को अपने वश में रखना और वासनाओं से बचना।
*(7) धी बुद्धिमान बनना अर्थात प्रत्येक कर्म को सोच-विचारकर करना और अच्छी बुद्धि धारण करना।
*(😎 विद्या सत्य वेद ज्ञान ग्रहण करना।
*(9) सत्य सच बोलना, सत्य का आचरण करना।
*(10) अक्रोध क्रोध न करना। क्रोध को वश में करना।
*इन दश नियमों का पालन करना धर्म है।* यही धर्म के दस लक्षण है। यदि *ये गुण या लक्षण किसी भी व्यक्ति में है तो वह धार्मिक है।* मनुष्य बिना सिखाये अपने आप कुछ नहीं सीखता है। जबकि ईश्वर ने अन्य जीवों को कुछ स्वाभाविक ज्ञान दिया है जिससे उनका जीवन चल जावे। जैसे :- मनुष्य को बिना सिखाये न चलना आवे, न बोलना, न तैरना और न खाना आदि। जबकि हिरण का बच्चा पैदा होते ही दौड़ने लगता है, तैरने लगता है। यही बात अन्य गाय,भैंस,शेर,मछ्ली,सर्प,कीट-पतंग आदि के साथ है। अत: *ईश्वर ने मनुष्य के सीखने के लिए भी तो कोई ज्ञान दिया होगा जिसे धर्म कहते है।* जैसे भारत के संविधान को पढ़कर हम भारत के धर्म, कानून, व्यवस्था, अधिकार आदि को जानते है वैसे ही *ईश्वरीय संविधान वेद को पढ़कर ही हम मानवता व इस ईश्वर की रचना सृष्टि को जानकर सही उन्नति को प्राप्त कर सकते है।* आर्यसमाज निरंतर इसी वेद प्रचार के विश्व शांति व उन्नति के कार्य में यथासामर्थ्य लगा हुआ है। *यदि विश्व के किसी भी कोने के मनुष्य को वेदों को समझने के लिए आर्यसमाज का सहयोग लेना ही होगा अन्यथा गलत व्याख्या रूप में आपको मेक्समूलर आदि के किए ग्वारु भाष्य वाले वेद ही मिलेंगे । पूर्ण वैज्ञानिक वैदिक ज्ञान के लिए प्रयत्नशील सभी मनुष्य कृपया आर्यसमाज में जावे ओर अपनी, अपने राष्ट्र की व सारे विश्व की उन्नति के लिए वैदिक धर्म को यथास्वरूप अपनावे।

Thursday 7 July 2022

 

कबीर कर्म का प्रमाण है .वह निष्काम कर्मयोगी गृहस्थ ...वेद की ब्याख्या है .पुरानो की समीक्षा है वेदांत दर्शन का निचोड़ है ..
इस धरती पर कबीर से बड़ा कोई इन्सान पैदा ही नहीं हुआ ,एक मुकम्मल इन्सान क्या होता है जानने के लिए हर किसी को कबीर पढ़ना चाहिए .अनगढ़ ,सहज ,भीतर- बाहर एक ,निर्भय ,आस्थावान ,जागृत विवेक .बिना पढ़े पूरी तरह ज्ञानी ,प्रेमानुभूति की पराकाष्ठा को समझाने वाला .मनुष्यता का रक्षक ,जागृत ,त्यागी गृहस्थ ,मनुष्यता की रक्षा के लिए भगवान से भी मुठभेड़ करने को आमादा ,जीवन और जगत को पूरी तरह समझाने वाला ,उसकी नश्वरता का गायक .मनुष्य इस धरती पर दूसरा कोई नहीं ...कबीर को जानना एक तपस्या है .उसे समझना मनुष्य बनने के रस्ते में एक सफल कदम है, उसे जीना ही मनुष्य होना है .कबीर सत्य है, कबीर नित्य है, कबीर .लोक है ,कबीर लोक राग है ,कबीर जिजीविषा है ..अपने लोक को ,अपने लोकराग को .अपने सत्य को अपने नित्य में जी पाना ही कबीर होना है .उसे पढ़ना एक रोमांच है .उसे समझना ब्रम्ह को ,प्राणी को जानना है ,उसे जीना एक ताकत है ,कबीर जीवन की हिम्मत है .जीवन की कला है ..आज कबीर की ही सबसे जादा जरूरत है . कबीर धर्म की ब्याख्या है .कबीर कर्म का प्रमाण है .वह निष्काम कर्मयोगी गृहस्थ ...वेद की ब्याख्या है .पुरानो की समीक्षा है वेदांत दर्शन का निचोड़ है

आखिर है ही क्या हिन्दू ?? ..........

 

आखिर है ही क्या हिन्दू ??
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कुछ लोग हिन्दू शब्द को ऋग्वेद में ढूंढ़ने का बौद्धिक विलास जैसा करते हैं, परन्तु वेद और उसके अंग में जैसे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद,अथर्ववेद, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद, अर्थवेद, ऐतरेय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण, ताण्ड्य ब्राह्मण, साम ब्राह्मण, विंश ब्राह्मण, गोपथ ब्राह्मण या किसी १०२७ वेद की शाखाओ में हिन्दू शब्द उपलब्ध नही है । इसके अतिरिक्त धर्म विधान ग्रंथ स्मृतियों जैसे कि- मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, वशिष्ठ स्मृति, पराशर स्मृति,अत्रि स्मृति इत्यादि , आध्यात्मिक ग्रंथ उपनिषदों और दार्शनिक ग्रंथ जैसे- योग, सांख्य, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत में भी हिन्दू शब्द अनुपलब्ध है। ऐतिहासिक ग्रंथ वाल्मीकि रामायण, २३५६० श्लोक और महाभारत १००२१७ श्लोकों में हिन्दू शब्द नही मिला। और न ही किसी नीतिशास्त्र जैसे- चाणक्य नीति, भर्तृहरि की नीतिशतकम्, शुक्राचार्यनीति, विदुरनीति या कौटिल्य अर्थशास्त्र में भी हिन्दू शब्द के दर्शन नही हुए। सम्पूर्ण संस्कारों के ग्रन्थ जैसे गृहसूत्र- गोभिल सूत्र, आश्वलायन सूत्र इत्यादि और १८ पुराण १८ उपपुराण में भी हिन्दू शब्द दिग्दर्शित नहीं हुआ। संस्कृत साहित्य जैसे मुद्राराक्षस, अभिज्ञानशाकुंतलम, पंचतंत्र, भरतनाट्यम्, नैषधीयचरितम, हर्षचरितम्, दशकुमारचरितम् रघुवंश, इत्यादि में भी हिन्दू शब्द के दर्शन नही हुए।।
कुछ इतिहासकारो का तर्क यह है कि सिंधु नदी के किनारे बसने वाले को हिंदू कहा जाता है क्योंकि पर्सियन लोग स को ह बोलते है इसलिए सिन्धु सभ्यता हिन्दू हो गया । परन्तु पारसी लोगों का धर्म ग्रन्थ जंदावस्ता यानि अवेस्ता है इसका उच्चारण पारसी लोग स ही करते है ईरान का प्रमुख शहर इस्फ़हान है इसको भी स ही बोलते है।यदि स को ह बोलते है तो ध का द कैसे हो गया। ? गुजरात के लोग *'स'* को *'ह'* उच्चारित करते हैं । यद्यपि भारतवर्ष में ११४९० किमी० हमने पैदल चलकर भ्रमण किया है परंतु किसी भारतीय को सिंधु नदी का नाम हिंदू नदी कहते नहीं सुना और ना ही किसी गुजराती से सिंधु को हिन्दू बोलते हुए सुना । एक सज्जन ने तर्क प्रस्तुत किया कि ऋग्वेद में शैन्धव शब्द आया है कालांतर में शैन्धव से हैन्दव हुआ और हैन्दव से हिंदू हो गया परंतु किसी वेद पाठी ने शैन्धव को हैन्दव आज तक नहीं पढ़ा । ऐसे बुद्धिवादियों के ऊपर हम दया ही कर सकते हैं ।
वैसे भी शैंधव शब्द का संस्कृत भाषा में अर्थ *घोड़ा* और *नमक* होता है क्या घोड़े और नमक के आधार पर जाति का नाम हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर उन्हीं बुद्धिमान मनीषी के पास हो सकता है।
अधिकांश इतिहासविदो का मानना है कि ‘हिंदू’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अरब के लोगों द्वारा प्रयोग किया गया था लेकिन कुछ इतिहासविद्दों का यह भी मानना है कि यह लोग पारसी थे जिन्होंने हिमालय के उत्तर पश्चिम के रास्ते से भारत में आकर वहां के बाशिंदों के लिए प्रयोग किया था।
धर्म और ग्रन्थ के शब्दकोष के वोल्यूम # 6,सन्दर्भ # 699 के अनुसार हिंदू शब्द का प्रादुर्भाव/प्रयोग भारतीय साहित्य या ग्रन्थों में मुसलमानों के भारत आने के बाद हुआ था।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में पेज नम्बर 74 और 75 पर लिखा है कि “the word Hindu can be earliest traced to a source of a tantric in 8th century and it was used initially to describe the people, it was never used to describe religion…” पंडित जवाहरलाल नेहरू के अनुसार हिंदू शब्द तो बहुत बाद में प्रयोग में लाया गया। हिन्दुज्म शब्द की उत्पत्ति हिंदू शब्द से हुई और यह शब्द सर्वप्रथम 19वीं सदी में अंग्रेज़ी साहित्कारों द्वारा यहाँ के बाशिंदों के धार्मिक विश्वास हेतु प्रयोग में लाया गया।
नई शब्दकोष ब्रिटानिका के अनुसार, जिसके वोल्यूम# 20 सन्दर्भ # 581 में लिखा है कि भारत के बाशिंदों के धार्मिक विश्वास हेतु (ईसाई, जो धर्म परिवर्तन करके बने उनको को छोड़ कर) हिन्दुज्म शब्द सर्वप्रथम अंग्रेज़ी साहित्यकारों द्वारा सन् 1830 में प्रयोग किया गया था।
कहते हैं तो हिमालय से लेकर समुद्र पर्यन्त इस भूमि को हिंदुस्थान कहते है अर्थात् हिंदू भूगोल का शब्द है । यहाँ स्मरण रहे कि- उपर्युक्त श्लोक या पुस्तक की रचना मुस्लिम और ब्रिटिश शासन के मध्य का है किसी प्राचीन ऋषि मुनि द्वारा निर्मित नही है। जैसे मुग़ल काल में अकबर को खुश करने के लिए पण्डितो ने अल्लोपनिषद नामक ग्रन्थ की रचना कर डाली थी। तथाकथित विद्वान लोग ऋग्वेद के मन्त्र सप्त सिन्धव: से सिन्धु सभ्यता सिन्धु नदी की कल्पना करते है। स्मरण रहे कि वेद के शब्दों के आधार पर नगर नदी और मनुष्यों के नाम लोगों ने रखा , परन्तु वेदों में इतिहास ढूँढना बौधिक दिवलियापन का परिचय देना है।
अनेक विद्वान तर्क प्रस्तुत करते हैं कि पर्सियन लोग सिंधु के इस पार रहने वाले लोगो को हिन्दू कहते थे इसलिए हम लोग हिंदू हो गए। प्रश्न उत्पन्न होता है कि दूसरों के द्वारा प्रदान किए गए सम्बोधन को हमें क्यू स्वीकार करना चाहिए ? फ़ारसी भाषा में हिन्दू शब्द का क्या अर्थ होता है? इसे जानने का प्रयत्न करना चाहिए । भारत देश के गुजरात राज्य में एक गोण्डल नामक राज्य था वहाँ के महाराजा सर भगवत सिंह जी जो उस समय के सर्वाधिक शिक्षित एवं प्रगतिशील शाशक थे । उन्होंने गुजराती शब्दकोष तैयार कराया था जिसे भगवत गोमण्डल के नाम से जाना जाता है । इसमें 281000 शब्दों के 822000 अर्थ है यह 9 Volumes 9266 पृष्ठ का ग्रन्थ है। इस शब्दकोष के अन्तर्गत पृष्ट 9216 पर *हिंदू* का अर्थ *चोर, लुटेरा, ग़ुलाम, काला, हिन्दू धर्म को मानने वाला* इत्यादि लिखा है । (1987 प्रवीण प्रकाशन) महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने अपने पुणे प्रवचन में हिंदू जाति सूचक शब्द के लिए इसी प्रकार के विचार प्रकट किए थे।।
हम सभी भारतवासी भारतीय है जिसका उल्लेख ऋग्वेद मे इसप्रकार है - आ नो यज्ञं भारती।। ऋग्वेद-१०/११०/८ भरत आदित्यस्तस्य भा:॥ निरुक्त-८/१३* सहैष सूर्यो भर्तः।।
(शतपथ-४/६/७/२१) भरत नाम सूर्य का है, सूर्य का प्रकाश ज्ञान का आलोक ही भारत है इस दृष्टिकोण से हमारा देश भारत है, और हमारी संस्कृति भारती है।।
तत्पश्चात प्रश्न उत्पन होता है कि हम लोगों का जातिगत नाम क्या है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि हमलोगो का जातिगत नाम *आर्य* है। इसका प्रमाण सभी शास्त्रों में उपलब्ध है। परन्तु आधुनिक युग में तथाकथित विद्वान लोग हम भारतीयों को भ्रमित करने का प्रयत्न करते है कि आर्य विदेशी है, ये लोग ईरान से आए है । *जबकि ईरान के स्कूलों में पढ़ाया जाता है कि- कुछ हजार साल पहले आर्य लोग हिमालय से उतर कर आये और यहाँ का जलवायु अनुकूल जानकर यही बस गए। (*चंद हज़ार साल पेश जमाना माजीरा बजुर्गी अज़ निजा़द आर्या अज़ कोहहाय कफ् काज़ गुज़िश्त: बर सर ज़मीने की इमरोज़ मस्कने मास्त कदम निहाद्धन्द। ब चूं.आबो हवाय ई सर ज़मीरा मुआफ़िक तब' अ खुद याफ्तन्द दरीं जा मस्कने गुज़ीदत्र ब आंरा बनाम खेश ईरान ख़यादन्द ।- देखो- जुग़राफ़िया पंज क़ितअ बनाम तदरीस रहसल पंजुम इब्तदाई, सफ़ा ७८; कालम १, मतब अ दरसनहि तिहरान, सन् हिजरी १३०९, सीन अव्वल व चहारम अज़ तर्फ़ विज़ारत मुआरिफ् व शरशुदः।।*) ईरान के बादशाह सदा अपने नाम के साथ *'आर्यमेहर'* की उपाधि लगाते रहे हैं। फारसी में *'मेहर'* सूर्य को कहते हैं। ईरान के लोग अपने को *'सूर्यवंशी क्षत्रिय आर्य'* मानते है। Prof. Maxmular ने Chips from a German Workshop 1967 Page No. 85 में लिखा है कि ईरानियों के पूर्वज ईरान पहुँचने से पहले भारत में बसे थे।और वहाँ से ईरान गये थे।
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आर्य शब्द के कुछ प्रमाण-
वेद- अहं भूमिमददामार्य्याय (ऋग्वेद-४/२६/२)
सर्वशक्तिमान ईश्वर कहते है कि यह पृथ्वी हम आर्यों के लिए प्रदान करते है। यज्ञमानमार्य्यम् (-ऋग्वेद) आर्य यजमान होता है अर्थात् परोपकारी, त्यागी, संयमी एव तपस्वी होता है।कृण्वन्तो विश्वमार्यम् (ऋ. ९/६३/५ ) अर्थात सारे संसार के मनुष्यों को श्रेष्ठ बनाओ।
मनुस्मृति- मद्य मांसा पराधेषु गाम्या पौराः न लिप्तकाः।‌आर्या ते च निमद्यन्ते सदार्यावर्त्त वासिनः। अर्थात वे ग्राम व नगरवासी जो मद्य, मांस और अपराधों में लिप्त न हों तथा सदा से आर्यावर्त्त के निवासी हैं वे 'आर्य' कहे जाते हैं।The denizens of

संघ क्या ? और उसकी विचारधारा क्या

 

संघ क्या ? और उसकी विचारधारा क्या?काफी लिखा जा चुका .. आखिर संघ नही तो क्या?? और अभी संघ है तो आगे क्या? शायद दूसरा सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण होगा। इसके लिए इतिहास और घटनाओ का भी जिक्र करना जरूरी है। जो इस प्रकार है- आर.एस.एस., यानी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खुद को एक सांस्कृतिक संगठन व “सच्चे देशभक्तों” का संगठन बताता है। उसका दावा है कि उसकी विचारधारा हिन्दुत्व और “राष्ट्रवाद” है। अपनी “प्रार्थना” और “प्रतिज्ञा” में संघी हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू समाज की रक्षा की बात करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा क्या है? अगर संघ के सबसे लोकप्रिय सरसंघचालक गोलवलकर और संस्थापक हेडगेवार के प्रेरणा-स्रोतों में से एक मुंजे की जुबानी सुनें तो संघ की विचारधारा स्पष्ट तौर पर फ़ासीवाद कह सकते है। गोलवलकर ने अपनी पुस्तकों ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड’ और ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में स्पष्ट शब्दों में इटली के फासीवाद और जर्मनी के नात्सीवाद की हिमायत की। हिटलर ने यहूदियों के सफाये के तौर पर जो ‘अन्तिम समाधान’ पेश किया, गोलवलकर ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है और लिखा है कि हिन्दुस्तान में भी हिन्दू जाति की शुद्धता की हिफ़ाज़त के लिए इसी प्रकार का ‘अन्तिम समाधान’ करना होगा। संघ का सांगठनिक ढांचा भी मुसोलिनी और हिटलर की पार्टी से हूबहू मेल खाता है। इटली का फ़ासीवादी नेता मुसोलिनी जनतंत्र का कट्टर विरोधी था और तानाशाही में आस्था रखता था। मुसोलिनी के मुताबिक “एक व्यक्ति की सरकार एक राष्ट्र के लिए किसी जनतंत्र के मुकाबले ज़्यादा असरदार होती है।” फ़ासीवादी पार्टी में ‘ड्यूस’ के नाम पर शपथ ली जाती थी, जबकि हिटलर की नात्सी पार्टी में ‘फ़्यूहरर’ के नाम पर। संघ का ‘एक चालक अनुवर्तित्व’ जिसके अन्तर्गत हर सदस्य सरसंघचालक के प्रति पूर्ण कर्मठता और आदरभाव से हर आज्ञा का पालन करने की शपथ लेता है, उसी तानाशाही का प्रतिबिम्बन है जो संघियों ने अपने जर्मन और इतावली पिताओं से सीखी है। संघ ‘कमाण्ड स्ट्रक्चर’ यानी कि एक केन्द्रीय कार्यकारी मण्डल, जिसे स्वयं सरसंघचालक चुनता है, के ज़रिये काम करता है, जिसमें जनवाद की कोई गुंजाइश नहीं है। यही विचारधारा है जिसके अधीन गोलवलकर (जो संघ के सबसे पूजनीय सरसंघचालक थे) ने 1961 में राष्ट्रीय एकता परिषद् के प्रथम अधिवेशन को भेजे अपने सन्देश में भारत में संघीय ढाँचे (फेडरल स्ट्रक्चर) को समाप्त कर एकात्म शासन प्रणाली को लागू करने का आह्वान किया था। ((अब आगे आप लोगो को निष्कर्ष निकालना है)
Manoj Shukla और Vikas Sahu
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पहले प्रधानमंत्री कि जानकारी रखना कांग्रेसी होना नही होता

 

पहले प्रधानमंत्री कि जानकारी रखना कांग्रेसी होना नही होता भक्तों। तुम तुलना ही गलत करते हो समय ओर हालात विपरीत थे उस दौर में उसने प्रतिमाये नहीं बनवाई
संस्थानों के प्रतिमान बनाये !
उसकी आँखों के सामने एक ऐसा भारत था जहां आदमी की उम्र 32 साल थी। अन्न का संकट था। बंगाल के अकाल में ही पंद्रह लाख से ज्यादा लोग मौत का निवाला बन गए थे। टी बी ,कुष्ठ रोग , प्लेग और चेचक जैसी बीमारिया महामारी बनी हुई थी। पूरे देश में 15 मेडिकल कॉलेज थे। उसने विज्ञानं को तरजीह दी।
यह वह घड़ी थी जब देश में 26 लाख टन सीमेंट और नो लाख टन लोहा पैदा हो रहा था। बिजली 2100 मेगावाट तक सीमित थी। यह नेहरू की पहल थी। 1952 में पुणे में नेशनल वायरोलोजी इन्स्टिटूट खड़ा किया गया। कोरोना में यही जीवाणु विज्ञानं संस्थान सबसे अधिक काम आया है। टीबी एक बड़ी समस्या थी। 1948 में मद्रास में प्रयोगशाला स्थापित की गई और 1949 ,में टीका तैयार किया गया। देश की आधी आबादी मलेरिया के चपेट में थी। इसके लिए 1953 में अभियान चलाया गया । एक दशक में मलेरिया काफी हद तक काबू में आ गया।
छोटी चेचक बड़ी समस्या थी। 1951 में एक लाख 48 हजार मौते दर्ज हुई। अगले दस साल में ये मौते 12 हजार तक सीमित हो गई। भारत की 3 फीसद जनसंख्या प्लेग से प्रभावित रहती थी। 1950 तक इसे नियंत्रित कर लिया गया। 1947 में पंद्रह मेडिकल कॉलेजों में 1200 डॉक्टर तैयार हो रहे थे। 1965 में मेडिकल कॉलेजों की संख्या 81 और डॉक्टरस की तादाद दस हजार हो गई। 1956 में भारत को पहला AIMS मिल गया। यही एम्स अभी कोरोना में मुल्क का निर्देशन कर रहा है। 1958 में मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज और 1961 में गोविन्द बल्ल्भ पंत मेडिकल संस्थान खड़ा किया गया।
पंडित नेहरू उस दौर के नामवर वैज्ञानिको से मिलते और भारत में ज्ञान विज्ञानं की प्रगति में मदद मांगते। वे जेम्स जीन्स और आर्थर एडिंग्टन जैसे वैज्ञानिको के सम्पर्क में रहे। नेहरू ने सर सी वी रमन ,विक्रम साराभाई ,होमी भाभा ,सतीश धवन और अस अस भटनागर सरीखे वैज्ञानिको को साथ लिया। इसरो तभी स्थापित किया गया/ विक्रम साराभाई इसरो के पहले पहले प्रमुख बने। भारत आणविक शक्ति बने। इसकी बुनियाद नेहरू ने ही रखी। 1954 में भारत ने आणविक ऊर्जा का विभाग और रिसर्च सेंटर स्थापित कर लिया था। फिजिकल रीसर्च लैब ,कौंसिल ऑफ़ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रीसर्च ,नेशनल केमिकल लेबोरटरी ,राष्ट्रिय धातु संस्थान ,फ्यूल रिसर्च सेंटर और गिलास एंड सिरेमिक रिसर्च केंद्र जैसे संस्थान खड़े किये। आज दुनिया की महफ़िल में भारत इन्ही उपलब्धियों के सबब मुस्कराता है। अमेरिका की अम आई टी MIT का तब भी संसार में बड़ा नाम था। नेहरू 1949 में अमेरिका में MIT गए ,जानकारी ली और भारत लौटते ही IIT आइ आइ टी स्थापित करने का काम शुरू कर दिया। प्रयास रंग लाये। 1950 में खड़गपुर में भारत को पहला IIT मिल गया। आज इसमें दाखिला अच्छे भविष्य की जमानत देता है./ आइ आइ टी प्रवेश इतना अहम पहलु है कि एक शहर की अर्थव्यवस्था इसने नाम हो गई है। 1958 में मुंबई ,1959 में मद्रास और कानपुर और आखिर में 1961 में दिल्ली IIT वाले शहर हो गए।
उसने बांध बनवाये ,इस्पात के कारखाने खड़े किये और इन सबको आधुनिक भारत के तीर्थ स्थल कहा।
नेहरू ने जब संसार को हमेशा के लिए अलविदा कहा ,बलरामपुर के नौजवान सांसद वाजपेयी [29 मई 1964] संसद मुखातिब हुए / नेहरू के अवसान को वाजपेयी ने इन शब्दों में बांधा '' एक सपना था जो अधूरा रह गया ,एक गीत था जो गूंगा हो गया ,एक लौ अनंत में विलीन हो गई , एक ऐसी लो जो रात भर अँधेरे से लड़ती रही ,हमे रास्ता दिखा कर प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गई। और भी बहुत कुछ कहा।
आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुए वो 3259 दिन जेल में रहा। उसने सच में कुछ नहीं किया। लेकिन कोई पीढ़ियों की सोचता है ,कोई रूढ़ियों की।
शत शत नमन/


 

हाँ दोषी हैं प.नेहरू,मगर किसके?तब सुनिए जरा
कश्मीर के शेख अब्दुल्लाह को वर्षों जेल में डालकर सड़ाया था नेहरू ने जब उसने भारत के खिलाफ आंख उठाया और अपना मनमानी करने लगा।
ओबैसी खानदान के आका और हिंदुओं को हैदराबाद में कत्ल करवाने वाले गद्दार कासिम रिजवी को भी प.नेहरू ने आजादी के बाद लगभग 10 साल तक जेल में डालकर सड़ा दिया था और अंत मे वह गद्दार पाकिस्तान चला गया और फिर कासिम रिजवी पाकिस्तान जाते वक्त ओबैसी के पिता को अपने संगठन का मुखिया बना दिया और आज ओबैसी उसी संगठन से सांसद हैं।
मतलब कासिम रिजवी ने अपने गुलामों को जाते वक्त अपना संगठन खैरात या इनाम में बांटकर गया।जिस तरीके से हिंदुओं का कत्ल ओबैसी खानदान की मदद से हैदराबाद में कासिम रिजवी ने अपने रजाकारों द्वारा करवाया था उसकी एक झलक ओबैसी के भाई के बयानों में मिलता है जिसमें उसने कहा था कि
"ऐ हिंदुस्तान 15 मिनट के लिए पुलिस हटा लो,तब 100 करोड़ के साथ क्या होता है देख लेना"।
ओबैसी के पिता यदि रिजवी के नजदीक न होते तब रिजवी उन्हें अपना संगठन न सौंपता।इससे एक बात तो जाहिर है कि ओबैसी के पिता भी हिंदुओं के कत्लेआम में शामिल थे।यह और बात है वह इंसान भी सांसद बना रहा आजाद भारत में और आज उन्हीं का बेटा सांसद हैं असददुद्दीन ओबैसी।
पंडित जी की बेटी इंद्रा गांधी ने भी वही किया भिंडरवाले के साथ।पंजाब के घरेलू राजनीति में अकालियों के प्रभाव को खत्म करने के लिए और कांग्रेस को स्थापित करने के लिए भिंडरवाले का इस्तेमाल किया उन्होंने फैक्ट है यह।
जब उस सांप ने भारत माता के खिलाफ फन उठाया तब नेहरू पुत्री इंद्रा गांधी ने उस फन को कुचल दिया।इंद्रा जी देश हित मे साम, दाम, दंड,भेद सब करना जानती थीं।यह और बात है धोखे में रखकर आस्तीन के उन सांपों ने उन्हें शहीद कर दिया।
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आप, Manoj Shukla, Anil Tiwari और 2 अन्य लोग