Friday 27 July 2012

मै ब्राम्हण हूँ.....सरोज मिश्र

Edit by Saroj Mishra on Sunday, April 29, 2012 at 11:29pm · मै ब्राम्हण हूँ . यह मेरे लिए स्वाभिमान का विषय है मेरे भीतर कोई अपराध बोध नहीं की मै किसी से क्षमा मांगूं अपनी मुक्ति के लिए मेरे पूर्वजों ने कभी कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे किसी दलित या मुस्लिम का दिल दुखा हो मेरे बड़े पिता जी अक्सर दोपहर का खाना .. समुझ सेवक फागू मुन्नर के साथ खाते थे खेतों में मुझे गरमदल के साथ चुनी की रोटी खिलाये बिना समुझ ने कभी खाना नहीं खाया सारे वेद मन्त्रों के साथ बहादुर और मुन्नर मेरे घर से ताजिया उठाते समय मर्सिया पढ़ते थे मुहर्रम में सबसे बड़ा ताजिया मेरे दादा बनवाते थे . और फिर ताजिये के आगे ऐसे चलते थे .. जैसे जग जीतने जा रहे हों महथा ,रौता,मथौली के सारे मुस्लमान उनके पीछे चलते थे अपने ओने गाँव की ताजिया के साथ सोमई रजई रामदयाल झिन्काई भीमल कोमल अखाड़े में एक साथ भिड़ते थे होली दिवाली ईद हम मिलकर मानते थे पीर मोहम्मद के घर से सेंवई आती थी हास्टल में एक साथ खाते थे हम खाना . कोई बंटवारा नहीं था ,कोई आरक्षण नहीं था मेरे ही कमरे में थे अल्ताफ और जुगुनू ठंढ में मुझे जुगनू अपनी रजाई दे देता था कैसे भूल सकता हूँ उन बेफ़िकर दिनों को नहीं है यद् मुझको की कभी किसी दलित महिला की इज्जत मेरे गाँव में लूट ली गयी हो . हर जन्मे बच्चे को पिलाया है अपना दूध नार कटाने के बाद समुझ की माँ ने दूध का यह रिश्ता खून के रिश्ते से कमतर नहीं था हम कहीं से भी शर्मिंदा नहीं हैं . बल्कि एक ताकत है जो हमें अपने गाँव के गंगा जमुनी तहजीब से मिली है . वर्जित था हमारे लिए किसी दलित ,मुस्लिम या कमजोर को नाम से पुकारना .हम रिश्तों से पुकारते थे ... रमई काका .झल्लर भैया ,फुलवा दीदी .बलई फूफा हिन्दू को काका चाचा काकी चाची मुस्लमान को चच्चा चच्ची .यही अंतर था . नाश हो खुराफाती दिमागों का .जिन्होंने .बाँट दिया हमें अनगिनत टुकड़ों में .खंडो में .पाखंडों में.जातिमें. धर्म में क्षेत्र में ,भाषा बोली में .मंदिर मस्जिद में जब जब मेरे गाँव की कोई बहू या बिटिया माँ बनी बच्चे का जन्म कराया समुझ की माँ ने . ठाकुरदीन बहू ने और छांगुर की पत्नी ने सुनता था मै की माँ का दूध नहीं उतर रहा है . इन्ही मेसे कोई एक बच्चे को अपना दूध पिलाती थी हर घर की यही कहानी थी .कोई ही होगा शायद जिसने इनका दूध न पिया हो सब की रगों में पैतृक रक्त के साथ दलित दाईऔर माँ का दूध बह रहा है शायद यही बात है की इतने पाखंडी झंझावातों के बावजूद आज भी हमारे गाँव में रिश्ते बचे हैं अभी भी किसी माँ बहन की इज्जत पर कोई बुरी निगाह नहीं डालता दलित हो .मुस्लिम हो पिछड़ा हो या कोई और- जब जब मेरे गाँव की कोई बहू या बिटिया माँ बनी बच्चे का जन्म कराया समुझ की माँ ने . ठाकुरदीन बहू ने और छांगुर की पत्नी ने सुनता था मै की माँ का दूध नहीं उतर रहा है . इन्ही मेसे कोई एक बच्चे को अपना दूध पिलाती थी हर घर की यही कहानी थी .कोई ही होगा शायद जिसने इनका दूध न पिया हो सब की रगों में पैत्रिक रक्त के साथ दलित दाईऔर माँ का दूध बह रहा है शायद यही बात है की इतने पाखंडी झंझावातों के बावजूद आज भी हमारे गाँव में रिश्ते बचे हैं अभी भी किसी माँ बहन की इज्जत पर कोई बुरी निगाह नहीं डालता दलित हो .मुस्लिम हो पिछड़ा हो या कोई और .