Friday 18 August 2017

..हर बार की तरह लौटा हूँ घर .

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हर बार की तरह लौटा हूँ घर .और
घर लौट आया है मुझ में ..
वह घर जो मेरा है ..मेरा नहीं है .!
इसकी दीवारों पर लिखे अनगिनत किस्से ,सपने मेरे अपने हैं ,..
पर यह अलग बात है ..जो कोई मायने नहीं रखते ..
जब भी मैं लौटता हूँ घर ,मेरा घर दौड़ कर लिपट जाता है
मुझसे ढूंढता है मेरी आँखों में अपने लिए सहानुभूति
बताता है अपनी बदहाली के किस्से
किस तरह चुपके से अपनों ने ही कुतर दिया घरेलू रिश्तों की बुनियाद .
किस तरह धीरे धीरे मर गया घर का चरित्र
आज वह मुझे पढवाता है
तनहाइयों में दीवारों पर लिखे कुछ शब्द
बताता है की कैसे कैसे उलझनों में वह उलझ गया ,
खामोश खड़ी दीवारें
निःशब्द कह जाती है अपनी ब्यथा कथा
बीमार हवाएं रिश्तों में फूटते दुर्गन्ध का बयान करती हैं
खुद को सम्हालने की असफल कोशिस करता मै
सहेजता हूँ ठंढी होती दिनचर्या में जीवन की गर्माहट,
मन का हरापन भोलापन दिल का ,अक्खड़ पन, जुझारू पन ,
एक शाश्वत प्रश्न खड़ा होता है क्यों ?
किसके लिए ?
पर वह मेरे भीतर जो एक मन और है ..
जो नहीं जनता दैन्य हार मानता नहीं ..
कहता है डटे रहो मोर्चे पर
लड़ना है अपने हिस्से का महाभारत अकेले ही
इस दौर में भी बचाने को बहुत कुछ बचा है हमारे पास ///

घूमी पुरुवा सोंधी सोंधी


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घूमी पुरुवा सोंधी सोंधी ,महक उठे सीवान
चढ़े आकाश तैरते बादल,ब्याकुल हुआ किसान
दंवागारा आस चढी /

चढ़ा अषाढ़ गगन घन गरजा ,पपीहा पीव पुकारे
आम्मा झोर चली पूर्वी ,बरखा सगुन उतारे
पहली बूँद परी /


रातों रात ऋतुमती धरती ,नथुनों सोंधी गंध
अंगूर अंगूर खेत चीरते पढ़ें करम के छंद
भाग की रेख खींची /


डीभी डीभी इच्छा उठती ,अन्खुवा स्वप्न जगाये
धनी रंग चुनरिया पहने ,धरती सावन गाये
स्वाती बूँद झरी /


झडी झर रहीं बीर बहूटी वर्षा चढी जवानी
नदी नल तलब सरोवर केवल पानी पानी
भादों झडी लगी /


काली रात अन्धेरा डरपे ,हाँथ न सूझत हाँथ
बदरा गरजे गोरी लरजे ,टपकत पानी पात
प्रिय सों प्रीति बढी /

पत्नी


पिछले ५० वर्षों से
चूल्हा फूँकते फूँकते
वह
फुंकनी बन गयी
और
न जाने कब
फुंकनी से चूल्‍हे मे
तब्दील हो गयी |
नित्य
सुबहो शाम
आंटागूँथते लोई बनाते
वह गुँथी गयी
और
न जाने कब लोई बन गयी
वह ख़ुसी ख़ुसी
रोटी मे तब्दील हो गयी |
वर्षों
सुई मे धागा पिरोते पिरोते
वह सुई धागा बन गयी
और धीरे धीरे करघा मे
तब्दील हो गयी |
मुँह अंधेरे
बुहारी से घर आँगन
बुहारते बुहारते
वह बुहारी बन गयी और
पूरी निष्ठा से
घर आँगन मे तब्दील हो गयी |
क्या इतना आसान है
अपने को धरती बना लेना ?

सुनो दुखी मत हो

सुनो दुखी मत हो
ये दिन भी बीत जायेंगे
हौसला बनाये रखो
कुछ भी ठहरा नहीं रहता
सुख नही तो दुःख भी नही
देखो तुम्हारे पति के पास
किसान की विरासत है
उसने कभी अपनी मा की आँखों में
सांझ नही देखी
अपने पिता को कभी हारते नहीं देखा .
देखना
मै जीत ही जाऊंगा एक दिन.
बस तुम मेरा हाथ पकड़ी रहो
मुस्कराती रहो
एक दिन पलकों पर सहेज कर
फिर लाऊंगा बहारों को
तब तुम
धीरे से उतार लेना उन्हें अपने जीवन में
.
देखो .मेरी तरफ देखो
थका नहीं हूँ मै ..अभी
अभी उम्र भी नहीं है मेरी थकने की
तुम पगली जाने क्यों घबराती हो
चलो अच्छा है
इसी बहाने आस पास तो मंडराती हो
लेकिन सुनो ..जोर से हंसो
तुमको मालूम नहीं
सचमुच
तुम कितनी अच्छी लगती हो
जब दिल खोलकर हस्ती हो
सच मानो
जितनी हंसी तुम्हारे ओंठों पर
उतनी खुसी हमारे जीवन में