Saturday 28 January 2017

गुरू गोलवलकर और आरएसएस का राष्ट्रवाद प्रोफ.सरोज मिश्र·


आर एस एस की विचारधारा को परिभाषित करने का काम किया था उसके द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने। हेडगेवार ने अपनी मृत्यु (21 जून, 1940) के वक्त उन्हें आर एस एस का पूरा भार सौंपा था। आर एस एस का कोई संविधान तो था नहीं, इसीलिए प्रथम सरसंघचालक की इच्छा को ही सर्वोपरि मान कर गोलवलकर को आर एस एस का सर्वोच्च अधिकारी बना दिया गया था। यह सच्चाई है कि जबसे गोलवलकर नागपुर आकर संघ में शामिल हुए तभी से आर एस एस का नागपुर के बाहर भी फैलाव शुरू हुआ और हेडगेवार में तको के जरिए अपने विचार को रखने की जिस सामथ्र्य का अभाव था, गोलवलकर ने उसे काफी हद तक पूरा करने की कोशिश की। इसीलिए आर एस एस की विचारधारा को जानने के लिए, उनकी प्रेरणा के मूल स्रोतों को समझने के लिए गोलवलकर का लेखन ही सबसे प्रामाणिक माना जा सकता है।
हेडगेवार की मृत्यु के वक्त गोलवलकर आर एस एस के सरकार्यवाहक (महासचिव) थे। सन् 1939 में हेडगेवार ने इसकी घोषणा की थी। आर एस एस के लोग हेडगेवार और गोलवलकर के सम्बनों की तुलना रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द के सम्बनों से किया करते हैं। सरसंघचालक बनने के बाद गोलवलकर ने ही अपने पहले भाषण में हेडगेवार की उन पर कृपा को परमहंस की विवेकानन्द पर हुई कृपा के सादृश्य बताया था। (प्र.ग. सहस्रबुद्धे, श्री गुरू जी : एक जीवन यज्ञ, पृ. 5)
19 फरवरी, 1906 को नागपुर में जन्मे माधवराव गोलवलकर ने 1928 में प्राणिशास्त्र में एम एस सी की परीक्षा पास की। फिर 1930 में कुछ अर्से के लिए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हुए और वहीं उनका सम्बन आर एस एस के एक और संस्थापक सदस्य प्रभाकर बलवंत दाणी (भय्या जी दाणी) से हुआ। बनारस में ही उनकी मुलाकात हेडगेवार से भी हुई थी और हेडगेवार ने उन्हें नागपुर में आर एस एस की शाखा देखने का निमंत्रण दिया। इस प्रकार 1931 के जमाने से गोलवलकर आर एस एस से जुड़ गए थे। बनारस में तीन साल रहने के बाद गोलवलकर अपने पिता के साथ रहने के लिए नागपुर आ गए तथा वहीं उन्होंने लॉ कॉलेज में दाखिला भी ले लिया। उनकी इच्छा वकालत करके जीवन यापन करने की थी। दो वषो तक उन्होंने वकालत की भी। लेकिन वकालत में सफलता न मिलने पर वे हेडगेवार की शाखा से गहराई से जुड़ गए। हेडगेवार ने उनकी मदद से ही आर एस एस को महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों में फैलाने का काम शुरू किया। इसीलिए गोलवलकर के विचारों को आर एस एस की मूलभूत विचारधारा माना जा सकता है।
आर एस एस की गीता
गोलवलकर ने 1939 में अपनी पहली शायद एकमात्र, किताब लिखी : ’’वी आर आवर नेशनहुड डिफाइण्ड‘। बाद में ’’बंच ऑफ थाट्स‘ के नाम से उनके भाषणों आदि का एक संकलन तथा 6 खण्डों में ’’श्री गुरु जी समग्र दर्शन‘ भी प्रकाशित हुए हैं। लेकिन योजनाबद्ध ढंग से उन्होंने खुद यह अकेली किताब लिखी थी। उनकी अन्य पुस्तकें दूसरे लोगों ने बिखरी हुई सामग्री को संकलित करके तैयार की। मजे की बात है कि आर एस एस ही उनकी इस इकलौती किताब को अब प्रकाशित नहीं करता है। एक समय था जब संघियों के लिए गोलवलकर की ’’वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड‘, गीता के समान थी। अमरीकी शोधार्थी करान ने इस किताब को आर एस एस के सिद्धान्तों की मूल पुस्तक बताते हुए लिखा था कि ’’इसे आर एस एस की ‘बाइबिल’ कहा जा सकता है। संघ के स्वयंसेवकों को दीक्षित करनेवाली यह पहली पाठ्य पुस्तिका है।‘ (जे.ए. करान, पूर्वोक्त, पृ. 28)
गोलवलकर ने यह पुस्तक बाबूराव सावरकर की पुस्तक ’’राष्ट्र मीमांसा‘ (मराठी) से प्रेरणा लेकर लिखी थी। इसे खुद उन्होंने भी पुस्तक की भूमिका में स्वीकारा है। (देखिए, ’’एम.एस. गोलवलकर, वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड,‘ पृ. 4) गोलवलकर ने ही ’’राष्ट्र मीमांसा‘ का अंग्रेजी अनुवाद भी किया था। लेकिन जब से आर एस एस के आलोचकों ने आर एस एस को हिटलर और मुसोलिनी के ’’तुफानी दस्तों‘ की तरह के संगठन के रूप में सही पहचान लिया तथा इस ओर इशारा किया जाने लगा, तब से खुद गोलवलकर ने ही इस किताब का प्रकाशन बन्द करवा दिया। इसकी वजह यह रही कि इस पुस्तक में गोलवलकर ने खुलकर हिटलर और मुसोलिनी के प्रति अपने झुकाव को जाहिर किया था।
सन् 1939 में जब यह पुस्तक लिखी गई, दुनिया में नाजियों और फासीवादियों के बढ़ाव के दिन थे। बहुतों को यह भ्रम था कि आनेवाले दिनों में दुनिया पर उन्हीं (फासीवादियों) के विचारों की तूती बोलेगी। गोलवलकर और हेडगेवार भी उन्हीं लोगों में शामिल थे। गोलवलकर ने इसी विश्वास के बल पर आर एस एस के विचारों के सारी दुनिया में नगाड़े बजने की बात कही थी। गोलवलकर के संघी जीवनीकार सहस्त्रबुद्धे ने गोलवलकर की बात को उद्धृत किया है कि ’’लिख लो, आज साम्यवाद, समाजवाद आदि के नगाड़े बज रहे हैं। परन्तु संघवाद के सम्मुख ये सब निष्प्रभ सिद्ध होंगे।‘ (पूर्वोक्त, पृ. 30)
गोलवलकर की यह पुस्तक 1939 में प्रकाशित हुई और इसी वर्ष हेडगेवार ने उन्हें आर एस एस का सरकार्यवाहक घोषित किया था। इससे जाहिर है कि इस पुस्तक में व्यक्त गोलवलकर के विचारों से हेडगेवार सिर्फ पूरी तरह सहमत ही नहीं थे, बल्कि वास्तव अथो में वे खुद इस पुस्तक को ही आर एस एस की विचारधारा की मूल पुस्तक मानते थे। एम.एन काले ने अपनी किताब ’’द मोस्ट रेवर्ड डॉ. हेडगेवार‘ (परम पूजनीय डॉ. हेडगेवार) में लिखा है कि हेडगेवार अपने प्रशिक्षण शिविरों में अपने अनुयायियों को यही बताया करते थे कि हिन्दुस्तान हिन्दुओं का है। ’’इंग्लैण्ड अंग्रेजों का, फ्रांस फ्रेंच लोगों का, जर्मनी जर्मनों का तथा इन देशों के लोग गर्व के साथ यह बात कहते हैं।‘ (पृ. 40) गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ’’वी‘ में भी इसी विचार को प्रतिपादित किया है।
सिर्फ 77 पृष्ठों की इस पुस्तक को वास्तव में एक ’’पैम्फलेट‘ कहा जा सकता है। इसके लिखने का ढंग भी ऐसा ही है जिसमें बहुत प्रमाणों के साथ अपनी बात कहने की कोई कोशिश नहीं की गई है। ’’राष्ट्र‘ के बारे में विश्व स्तर के विद्वानों के कुछ कथनों की चर्चा से विषय को उठाया तो गया है, लेकिन सबकी बातों को मनमाने ढंग से तोड़-मरोड़ कर नस्लवाद को ही राष्ट्रवाद का पर्याय बताते हुए नस्लवादी चेतना के विकास की तारीफ की गई है और हिटलर के सुर में सुर मिलाकर यह साफ ऐलान किया गया है कि अन्य सभी छुद्र नस्ल के लोगों को श्रेष्ठ नस्ल की (अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की) गुलामी स्वीकार करनी होगी, तथा अपनी स्वतंत्र सत्ता को गँवाकर उनमें मिल जाना होगा। इसमें हिटलर द्वारा यहूदियों के साथ किए गए सलूक की तारीफ करते हुए उसे भारत के लिए एक अच्छा सबक बताया है।
‘राष्ट्र’ की विकृत व्याख्या
गोलवलकर ने अपनी इस किताब में मनमाने ढंग से ’’राष्ट्र‘ की परिभाषा करते हुए लिखा है कि इसका संगठन ’’पाँच प्रसिद्ध इकाइयों के मिश्रण से होता है, वे हैं : भौगोलिक (देश), नस्ली (नस्ल), धार्मिक (धर्म), सांस्कृतिक (संस्कृति) तथा भाषायी (भाषा) और इनमें से एक भी नष्ट होने का अर्थ है राष्ट्र के रूप में राष्ट्र की समाप्ति।‘ (पृ. 33)
इस प्रकार उन्होंने नस्ल और धर्म को राष्ट्र के अभिन्न तत्त्व के रूप में गिनाकर हिटलर और मुसोलिनी के नस्ल तथा खुद की साम्प्रदायिकता की अवधारणा को राष्ट्रीयता का आधार बताने की जमीन तैयार कर ली और उसके बाद राष्ट्रवाद के नाम पर साम्राज्यवादी लूट औेर हिंसा की प्रशंसा में, जर्मनी में हिटलर की करतूतों की तारीफ में लम्बा लेख लिख डाला। इंग्लैण्ड द्वारा सारी दुनिया में अपने साम्राज्य को फैलाने की कोशिशों का भी इसी तर्क पर उन्होंने समर्थन किया था।
गोलवलकर ने लिखा : ’’आज हम जिस राष्ट्र के सबसे अधिक सम्पर्क में हैं, वह है इंग्लैण्ड और इसे ही हम सबसे पहले अययन का विषय बनाएँगे। जहाँ तक देश और नस्ल का प्रश्न है यह इतना स्थापित सत्य है कि राष्ट्र की अवधारणा में इसके महत्त्व पर कोई भी प्रश्न नहीं उठाता। संस्कृति भी इसी श्रेणी में पड़ती है। यह इसलिए बदनाम भी है कि प्रत्येक राष्ट्र भारी ईष्र्या के साथ इसकी रक्षा करता हुआ पाया जाता है और अपनी संस्कृति कोश्रेष्ठ बनाए रखता है। जिस बात को लेकर गुत्थी है वह है धर्म को लेकर तथा कुछ हद तक को भाषा को लेकर। खासतौर पर आज जब जनतांत्रिक राज्य इस बात की गर्वोक्ति किया करते हैं कि उन्होंने धर्म से अपने को अलग कर लिया है तब धर्म के विषय में और भी ज्यादा सावाधनी से जाँच की आवश्यकता है। क्या इंग्लैण्ड किसी राजकीय धर्म पर विश्वास करता है? इसका उत्तर सीधे तौर पर हाँ के सिवा और कुछ नहीं हो सकता क्योंकि अन्यथा क्यों यह जरूरी माना जाता है कि इंग्लैण्ड का सम्राट प्रोटेस्टेंट मतावलम्बी ही होना चाहिए? क्यों इंग्लैण्ड के चर्च के तमाम पादरियों को राजकीय खजाने से पैसे दिए जाते हैं।...जहाँ तक भाषा का प्रश्न है, सभी स्वदेशी भाषाओं की हत्या करके विजित नस्लों पर अपनी ’’राष्ट्रीय‘ भाषा अंग्रेजी को आरोपित करने का इतना गर्व है कि वे उसे सारी दुनिया की सम्पर्क भाषा बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। इस प्रकार इंग्लैण्ड के राष्ट्र संबंधी विचार का सिद्धान्त के साथ व्यावहारिक स्तर पर पूरी तरह मेल बैठता है।‘ (वही पृ. 33-34)
इस प्रकार, अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता की स्थापना के लिए ’’ईष्र्यापूर्ण‘ कार्रवाइयों, धर्म और दूसरी भाषाओं पर अपनी भाषा को लादने के बारे में इंग्लैण्ड के उदाहरण से गोलवलकर ने राष्ट्रीयता संबंधी अपनी अवधारणा के मूल तत्त्वों को गिना दिया और बताया कि इस प्रकार की जोर-जबर्दस्ती ही सच्ची राष्ट्रीयता के लक्षण हैं। इसके बाद ही उन्होंने हिटलर के जर्मनी, उसके विस्तारवाद तथा उसके पैशाचिक नस्लवाद की तारीफ करके हत्या, दमन, सैन्यीकरण तथा अन्य धर्मों, नस्लों को पशु-बल से कुचले जाने की प्रशंसा की और धर्म से अलग होने के जनतांत्रिक राज्य के दावे का उपहास करके आर एस एस की घनघोर अमानवीय और हत्यारी कार्यपद्धति और साम्प्रदायिक तानाशाही की विचारधारा की आाधरशिला रखी।
हिटलर के जर्मनी का गुणगान
जर्मनी के बारे में गोलवलकर ने लिखा : ’’आज दुनिया की नजरों में सबसे ज्यादा जो दूसरा राष्ट्र है वह है जर्मनी। यह राष्ट्रवाद का बहुत ही ज्वलन्त उदाहरण है। आधुनिक जर्मनी कर्मरत है तथा वह जिस उद्दंश्य में लगा हुआ है उसे काफी हद तक उसने हासिल भी कर लिया है। पुरखों के समय से जो भी जर्मनों का था लेकिन जिसे राजनीतिक विवादों के कारण अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग देशों के रूप में बाँट दिया गया था, उसे फिर उन्होंने अपने आीन कर लिया है। उदाहरण के लिए आस्ट्रिया सिर्फ एक प्रान्त भर था, जैसे प्रुशिया, बवारिया तथा अन्य कई प्रान्त हैं जिन्हें मिलाकर जर्मन साम्राज्य बना था। तर्क के अनुसार आस्ट्रिया एक स्वतंत्र देश नहीं होना चाहिए था, बल्कि उसे बाकी जर्मनी के साथ ही होना चाहिए था। इसी प्रकार के क्षेत्र हैं जिनमें जर्मन बसते हैं, जिन्हें युद्ध के बाद नए चेकोस्लोवाकिया राज्य में मिला दिया गया था। पितृभूमि के प्रति जर्मन गर्वबोध, जिसके प्रति उस जाति का परम्परागत लगाव रहा ह,ै सच्ची राष्ट्रीयता का जरूरी तत्त्व है। आज वह राष्ट्रीयता जाग उठी है तथा उसने नए सिरे से विश्व युद्ध छेड़ने का जोखिम उठाते हुए अपने ’’पुरखों के क्षेत्र‘ पर एकजुट, अतुलनीय, विवादहीन, जर्मन साम्राज्य की स्थापना की ठान ली है। जर्मनी की यह स्वाभाविक तार्किक आकांक्षा अब प्राय: परिपूर्ण हो गई है तथा एक बार फिर वर्तमान काल में राष्ट्रीयता में ’’देशवाले पहलू‘ का अतीव महत्त्व प्रमाणित हो गया है।‘ (गोलवलकर, पूर्वोक्त, पृ. 34-35)
गोलवलकर अब अपने राष्ट्रीयता संबंधी विचार के दूसरे तत्त्व ’’जाति‘ (रेस) की महत्ता को हिटलर के ही उदाहरण से स्थापित करते हैं। वे लिखते हैं :
’’अब हम राष्ट्रीयता संबंधी विचार के दूसरे तत्त्व जाति पर आते हैं जिसके साथ संस्कृति और भाषा अभि रूप से जुड़े हुए हैं।...जर्मनों का जाति संबंधी गर्वबोध इन दिनों चर्चा का विषय बन गया है। अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों - यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौंका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहाँ अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।‘ (गोलवलकर, पूर्वोक्त, पृ. 35)
इसके बाद ही वे जर्मनी में भाषा और धर्म के तत्त्वों के बारे में लिखते हैं। कहते हैं कि तमाम भाषाई अल्पसंख्यक आपस में भले ही अपनी भाषा का वहाँ प्रयोग कर लें, लेकिन सार्वजनिक जीवन में वे सिर्फ राष्ट्रीय भाषा, जर्मनी का ही प्रयोग कर सकते हैं। धर्म के मामले में, जर्मनी के राष्ट्रपति को ईसाई धर्म के अनुसार ही शपथ लेनी पड़ती है। इस प्रकार गोलवलकर ने यह स्थापित किया कि ’’राष्ट्रीयता के विचार के पाँचों संघटक तत्त्व आधुनिक जर्मनी में पूरी दृढ़ता के साथ सही साबित हुए हैं...उन्होंने अपने महत्त्व को प्रदर्शित कर दिया है।‘ (वही, पृ. 36)
यह है आर एस एस और भाजपा, विहिप आदि की तरह के उनके तमाम संगठनों की ’’सच्ची राष्ट्रीयता‘ का मूल रूप। हिटलर के नाजी विचारों की प्रेरणा से ही आर एस एस और भाजपा के लोग...’’पुरखों के जर्मन साम्राज्य‘ की तर्ज पर अपने ’’प्राचीन अखण्ड भारत‘ का एक नक्शा पेश किया करते हैं। गोलवलकर बताते हैं : ‘हमारा अमर साहित्य’ तथा हमारे पुराण भी हमारी मातृभूमि की वही विस्तृत प्रतिमा प्रस्तुत करते हैं। अफगानिस्तान हमारा प्राचीन उपगणस्थान था। महाभारत के शल्य वहीं से आते हैं। आधुनिक काबुल और कंधार गांधार थे जहाँ से कौरवों की माता गांधारी आती थीं। यहाँ तक कि इरान भी मूलत: आर्य था। वहाँ का पहले का राजा रेजा शाह पहेलवी इस्लाम के बजाय आर्य मूल्यों से कहीं ज्यादा प्रभावित था। पारसियों का धर्म ग्रंथ ’’जेंद अवेस्ता‘ प्राय: ’’अथर्ववेद‘ ही है। पूरब में वर्मा हमारा प्राचीन ब्रह्मदेश है। महाभारत में इरावत का उल्लेख है, जो आधुनिक इरावडी है जो उस महायुद्ध में शामिल था। इसमें असम का उल्लेख भी प्राज्ञोतिषा के रूप में है क्योंकि वहीं सूरज पहले उगता है। दक्षिण में लंका का हमेशा भारत से सबसे निकट का सम्पर्क रहा है तथा उसे कभी भी मुख्य भूमि से भि नहीं समझा गया। (गोलवलकर, बंच ऑफ थाट्स, पृ. 111)
इस प्रकार अफगानिस्तान, इरान से लेकर पाकिस्तान, भारत, वर्मा, श्रीलंका, नेपाल आदि सभी देशों को मिलाकर उन्होंने प्राचीन अखण्ड भारत का नक्शा बिल्कुल वैसे ही पेश किया जैसे हिटलर ’’पुरखों के जर्मन साम्राज्य‘ का किया करता था।
गैर-हिन्दुओं के लिए कोई स्थान नहीं
जातीयता के मामले में संघियों का साफ कहना है हिन्दुस्तान में राष्ट्र का अर्थ ही हिन्दू है। गैर-हिन्दू तबकों के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है। ’’मूलगामी विभेदवाली संस्कृतियों और जातियों का मेल हो ही नहीं सकता‘ के हिटलरी फार्मूले को वे भारत पर हुबहू लागू करते हैं। उनकी यह साफ राय है कि गैर-हिन्दू भारत में रह सकते हैं, लेकिन वे सीमित समय तक तथा बिना किसी नागरिक अिधकार के रहेंगे। गोलवलकर के शब्दों में :
’’विदेशी तत्त्वों के लिए सिर्फ दो रास्ते खुले हैं, या तो वे राष्ट्रीय जाति के साथ मिल जाएँ और उसकी संस्कृति को अपना लें या जब तक राष्ट्रीय जाति अनुमति दे तब तक उनकी दया पर रहें और जब राष्ट्रीय जाति कहे कि देश छोड़ दो तो छोड़कर चले जाएँ। यही अल्पसंख्यकों की समस्या के बारे में आजमाया हुआ विचार है। यही एकमात्र तर्कसंगत और सही समाधान है। सिर्फ यही राष्ट्रीय जीवन को स्वस्थ्य और निरापद रखता है।...जाति और संस्कृति की प्रशंसा के अलावा मन में कोई और विचार न लाना होगा अर्थात् हिन्दू राष्ट्रीय बन जाना होगा और हिन्दू जाति में मिलकर अपने स्वतंत्र अस्तित्व को गँवा देना होगा, या इस देश में पूरी तरह से हिन्दू राष्ट्र की गुलामी करते हुए, बिना कोई माँग किए, बिना किसी प्रकार का विशेषािधकार माँगे, विशेष व्यवहार की कामना करने की तो उम्मीद ही न करे, यहाँ तक कि बिना नागरिकता के अिधकार के रहना होगा। उनके लिए इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए। हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं; हमें उन विदेशी जातियों से जो हमारे देश में रह रही हैं उसी प्रकार निपटना चाहिए जैसे कि प्राचीन राष्ट्र विदेशी नस्लों से निपटा करते हैं।‘ (गोलवलकर, ’’वी‘ पृ. 47-48)
हिटलर ने जिस तरह यहूदियों को जर्मन जाति का एक नम्बर दुश्मन बताकर उनके खिलाफ तीव्र घृणा के जरिए अपनी राजनीति का आाधर तैयार किया था, बिल्कुल इसी प्रकार आर एस एस ने भी शुरू से मुसलमानों को हिन्दू राष्ट्र का दुश्मन नम्बर एक कहना शुरू किया और उनके खिलाफ हर समय नफरत फैलाने को अपनी राजनीति के मूलकार्य के रूप में अपनाया। ’’राष्ट्र‘ संबंधी अपने हिटलरी सिद्धान्त को भारत पर लागू करते हुए गोलवलकर लिखते हैं : ’’हिन्दुस्तान, हिन्दुओं की भूमि, जिसका पुरखों से प्राप्त एक क्षेत्र है।...इस देश में प्रागैतिहासिक काल से एक प्राचीन जाति, हिन्दू जाति रहती है।...इस महान हिन्दू जाति का प्रख्यात हिन्दू धर्म है।...निजी, सामाजिक, राजनीतिक तमाम क्षेत्रों में इस धर्म से दिशा निर्देश लेकर इस जाति ने एक संस्कृति विकसित की है जो पिछली दस सदियों से मुसलमानों और यूरोपियनों की अधोपतित ’’सभ्यताओं‘ के घातक सम्पर्क में आने के बाद भी विश्व में सबसे श्रेष्ठ संस्कृति हैं।‘ (वही, पृ. 40-41)
फिर इसी बात को दोहराते हुए गोलवलकर कहते हैं ’’सिर्फ वे लोग ही राष्ट्रवादी देशभक्त हैं जो अपने हृदय में हिन्दू जाति और राष्ट्र की शान बढ़ाने की आकांक्षा रखते हुए इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। अन्य सभी या तो राष्ट्रीय हित के लिए विश्वासघाती और शत्रु हैं या नरम शब्दों में कहें तो मूर्ख हैं।‘ (वही, पृ. 44)
जर्मनी की नाजी पार्टी ने जर्मन श्रेष्ठता के अपने सिद्धांतों के प्रचार के जरिए एक ऐसी अवधारणा विकसित की थी कि सच्चा जर्मन वह है जो नाजी पार्टी का सदस्य है तथा सच्चा नाजी वह है जो यहूदियों से नफरत करता है। भारत में मुस्लिम लीग वालों ने भी यही पद्धति अपनाई थी कि वही व्यक्ति सच्चा मुसलमान है जो मुस्लिम लीगी है तथा सच्चा मुस्लिम लीगी वह है जो हिन्दुओं से नफरत करता है। नाजियों और मुस्लिम लीगियों के पदचिन्हों पर ही चलते हुए आर एस एस भी शुरू से यही रटता रहा है कि वही व्यक्ति सच्चा हिन्दू है जो आर एस एस का सदस्य है और वही सच्चा संघी है जो मुसलमानों से नफरत करता है। उनकी यह रट आज इस स्तर पर उतर आई है कि जो बाबरी मस्जिद को ढहाये जाने का समर्थक है वही सच्चा हिन्दू है तथा सच्चा हिन्दू वही है जो मुसलमानों से घृणा करता है।
इस प्रकार के धार्मिक या जातीय उन्माद को पैदा करके उसकी आग पर अपनी राजनीति की रोटियाँ सेंकनेवाली तमाम पार्टियाँ हमेशा समाज में किसी-न-किसी प्रकार के अल्पसंख्यक तबके को अपनी घृणा का विषय बनाकर उनके खिलाफ बिषवमन और हमलों के जरिए ही अपना प्रचार-प्रसार किया करती है। फ्रांस में ले पेन के राष्ट्रीय मोर्चे ने अप्रवासियों के खिलाफ जहरीला प्रचार करके उग्र राष्ट्रवाद के जरिए अपना विस्तार किया है। जर्मनी में अब नई दक्षिणपंथी पार्टियों ने भी विदेशियों को अपने हमलों का निशाना बनाया है।
गोलवलकर जिसे ’’सच्चा राष्ट्रवाद‘ बताते हैं उसकी प्रेरणा के स्रोतों को हमने ऊपर देख लिया है। आर एस एस का संघवाद इंग्लैण्ड के उपनिवेशवाद, हिटलर के नाजीवाद और मुसोलिनी के फासीवाद के भारतीय संस्करण के अलावा और कुछ नहीं है। चूँकि भारत की अन्य राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियाँ हिटलर के नाजीवादी दर्शन को स्वीकार नहीं करती इसीलिए आर एस एस उन्हें हमेशा ’’नकली राष्ट्रवादी‘ कहता रहा है और खुद को अकेले ’’सच्चा राष्ट्रवादी‘ बताता है, जैसे आज सारे संघी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को ’’नकली धर्मनिरपेक्षतावादी‘ कहते हैं और खुद को (आर एस एस, भाजपा के कथित संघ परिवार को) ’’सच्चा धर्मनिरपेक्षतावादी‘ कहते हैं।
सच्चा राष्ट्रवाद
जिस समय हेडगेवार, गोलवलकर और उनके संघी चेले हिटलर के नाजीवाद को ’’सच्चा राष्ट्रवाद‘ बताकर उसका स्तुति गान कर रहे थे, इंग्लैण्ड के उपनिवेशवाद को भी सच्ची राष्ट्रीयता का नमूना बता रहे थे, और बिल्कुल उन्हीं की विचारधारा की आाधरशिला पर अपने ’’हिन्दुत्व‘ के दर्शन की इमारत तैयार कर रहे थे, उसी समय हमारे भारत के ही अनेक मनीषियों ने पश्चिमी देशों में सामने आ रहे उग्र राष्ट्रवाद के घिनौने रूप को पहचान कर कड़े-से-कड़े शब्दों में उसकी भत्र्सना की थी।
मुंशी प्रेमचन्द ने ऐसी पैशाचिक राष्ट्रीयता का प्रहार करते हुए 1933 में ही लिखा था : ’’राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शान्ति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था, उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने परिमित क्षेत्र के अन्दर राम-राज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बँटा हुआ है, और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक सन्देह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अन्त न होगा, संसार में शान्ति का होना असम्भव है।‘ (प्रेमचन्द, ’राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता‘, विविा प्रसंग, खण्ड-2, पृ. 333, 334)
रवीन्द्रनाथ ने लिखा था : ’’पाश्चात्य जातियों को अपनी सभ्यता पर जो गर्व है उसके प्रति श्रद्धा रखना अब तो असम्भव हो गया है। वह सभ्यता हमें अपना शक्ति रूप दिखा चुकी है लेकिन मुक्ति रूप नहीं दिखा सकी...।
’’इसी बीच मैंने देखा कि योरोप में मूर्तिमन्त क्रूरता अपने नख-दन्त बाहर निकालकर विभीषिका की तरह बढ़ती जा रही है। मानव जाति को पीडि़त करनेवाली इस महामारी का पाश्चात्य सभ्यता की मज्जा में जन्म हुआ। वहाँ से उठकर आज उसने मानव आत्मा का अपमान करते हुए दिग-दिगान्तर के वातावरण को कलुषित कर दिया है।‘‘
आर एस एस का ’’हिन्दुत्व‘ इसी महामारी की मार से ग्रसित विकृत विचारों की उपज है।
फासीवाद विरोधी विश्वव्यापी आन्दोलन में भारत में रवीन्द्रनाथ के साथ ही सभी भाषाओं के देशभक्त लेखकों, कवियों और विचारकों ने एक स्वर में फासिस्ट विचारों की भत्र्सना की थी। लेकिन फिर भी आर एस एस-भाजपा के लोग खुद को ही ’’सच्चे राष्ट्रवाद‘ के वजाधारी बताएँगे और रवीन्द्रनाथ, प्रेमचन्द तथा उनकी सारी विरासत को, ’’नकली राष्ट्रवादी‘।
यह वर्ष विवेकानन्द के प्रसिद्ध शिकागो भाषण का शताब्दी वर्ष है। विश्व धर्म महासभा, शिकागो में 11 सितम्बर, 1893 के दिन विवेकानन्द ने अपने स्वागत का उत्तर देते हुए जो संक्षिप्त भाषण दिया, उसका अन्त उन्होंने इन शब्दों से किया था :
’’साम्प्रदायिकता, धार्मिकता और उनकी बीभत्स वंशार धर्मांधता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज कर चुकी है। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही है, उसको बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही है, सभ्यताओं को विवस्त करती और पूरे-पूरे देश को निराशा के गर्त में डालती रही है। यदि ये बीभत्स व दानवी शक्तियाँ न होतीं, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया है, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटा वनि हुई है वह समस्त धर्मांधता का, तलवार और लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारम्परिक कटुताओं का मृत्यु-निनाद सिद्ध हो।‘ (विवेकानन्द साहित्य, खण्ड 1, पृ. 4) ऐसी बातें कहनेवाले विवेकानन्द ने यदि हिटलर के जर्मन ’’जाति गौरव‘ काल को, उसकी विभीषिका और बीभत्सता को देखा होता तो उसे सिर्फ धिक्कारने और धिक्कारने के अलावा उनकी वाणी से दूसरा कोई शब्द न निकलता। आर एस एस और उसका संघ परिवार हिटलर के उन्हीं पैशाचिक कृत्यों की शव-साधना में लगा हुआ है। समूचा भारतवर्ष अपने हजारों वषो की परम्पराओं और मूल्यों के साथ इसीलिए उन्हें धिक्कार रहा है। रवीन्द्रनाथ ने अपनी ’’गीतांजलि‘ के एक गीत में लिखा था : ’’एसो है आर्य, एसो अनार्य,हिन्दू मुसलमान एसो एसो आज तुमी इंगरेज, एसो एसो ख्रिस्टान। एसो ब्राह्मण, शुचि करि मन धरो हाथ सबाकार, एसो हे पतित, करो अपनीत सब अपमान भार। मा‘र अभिषेके एसो एसो त्वरा मंगलघट होय निर्भरा सबार परशे पवित्र-करा तीर्थ नीरे आजि भारतेर महामानवेर सागर तीरे‘‘। (रवीन्द्र रचनावली, बांग्ला खण्ड-2, पृ. 257)

बचपन की यादें आज एक लोकगीत सोहर . प्रोफ.सरोज मिश्र·19 अप्रैल 2016

.आज मन कहा रहा है अम्मा की गोद में सर रख कर सो जाएँ .बचपन में जब मा सुबह सुबह ४ बजे जाँता में गेहूं पीसती थी तो अक्सर गाती थी और मैं बिस्तर से उनींदा ही भागकर आता था उसके जांघ पर सर रखकर आँख बंद करके सो जाता था जांते की घुरुर घुरूर और मा के अमृतसुर में लोक धुन की अलौकिक संरचना में मैं डूब जाया करता था ऐसा अक्सर होता था मुझे वे सारे गीत याद हैं सुनाऊंगा आज एक सोहर
जब जब बाजे खझडिया त हिरनी विसुरै हो . राम का मुंडन है .सरयू के किनारे एक हिरन का जोड़ा घास चर रहा है ..हिरनी की नजर चहलकदमी पर पडी तो उसने ..हिरन से कहा ,प्रिय लगता है आज महाराज दशरथ के यहाँ कोई उत्सव है .चलो छिप जाओ ..नहीं तो तुम्हारा शिकार हो जाएगा .
.अभी बात पूरी हुई ही नहीं थी की हिरन को वान लग गया .वह मर गया .शिकारी उसे कंधे पर लेकर दशरथ के दरबार में गया, माता कौशल्या के हवाले किया .हिरनी उसके पीछे पीछे गयी ..कौशल्या ने हिरनी से आने का कारन पूछा तो उसने कहा ..माता तुम ऐसा करो हिरन का मांस निकाल लो राम के लिए व्यंजन बनाओ .. और खाल हमें दे दो .हमें खुसी होगी ..हम चले जायेंगे | कौशल्या बोली ..तुम खाल का क्या करोगी ....हिरनी हिरनी बोली....जंगल के किसी सूखे ठूठ पर लटका कर इसके इर्द गिर्द घास चरुन्गी .मुझे संतोष होगा की मेरा पति मेरे पास है . कौसल्या पहले तो राजी हो गयीं .पर तुरंत मना कर दिया ..बोलीं .... .जाहु हिरनी घर अपने खलारिया न देबय हो ..हिरनी खलरी क खझडी मढइबय बजईहैं राजा रघुबर .
..क्या करती हिरनी रोती विलखती चली गयी ....फिर क्या था हिरन के .खाल की खंझडी बनी|
राम लखन भारत सत्रुघन बजाते बजाते खेलते थे .खझडी. की आवाज हिरनी को जंगल में सुनाई पड़ती ..तो उसे अपने पति की याद आती, वह पति के स्मृति में विभोर हो जाती | लोक गीत कार लिखता है ...जब जब बाजे खझडिया त हिरनी वीसूरय हो ...... यह मार्मिक सोहर हम माँ से सुनते थे ..सुबह जब माँ जाता में गेंहू पीसती थी तो यही सोहर गाती थी .हम खटिया से उठ कर आते और माँ की जांघ में सर रख कर सो जाते जाते के घुरुर घुरू की ध्वनी और सोहर का राग ..अलौकिक संगीत का समा .वहअब कहाँ ......कैसी लगी कथा .....

संघियों का हठयोग बनाम नेहरु की भारतीयता प्रोफ.सरोज मिश्र·26 दिसंबर 2016

जब से भाजपा के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी है तब से उसका प्रयास पंडित जवाहर लाल नेहरू के नामोनिशान मिटाने का रहा है। कुछ माह पहले ही बांडुंग सम्मेलन की वर्षगांठ मनाई गई है और उसमें हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने नेहरू का नाम भी नहीं लिया। इधर अनेक अफ्रीकी देशों के नेता भारत आए थे। हमारे प्रधानमंत्री ने उनके बीच उनका नाम भी नहीं लिया यद्यपि अफ्रीकी नेताओं ने पंडित नेहरू के योगदान को सराहा और रेखांकित किया कि नवस्वतंत्र देशों को एकजुट करने में उनके प्रयास को भुलाया नहीं जा सकता। तब से हमारे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने नहीं चाहते हुए भी पंडित नेहरू का नाम लेना शुरू किया है। प्रधानमंत्री ब्रिटेन के दौरे पर थे जहां उन्होंने नेहरू का नाम अनेक बार लिया भले ही नहीं चाहते हुए। खैर, हमारा सत्तारूढ़ दल जितनी भी कोशिश करे वह न भारत का इतिहास बदल सकता है और न उसमें पं. नेहरू की भूमिका। आइए हम देखें कि नेहरू किस तरह के भारत का निर्माण आजादी के बाद करना चाहते थे। 1920 के दशक में उन्होंने पश्चिमी विश्व और तत्कालीन सोवियत संघ का दौरा किया और वहां समाजवादी उभार का अध्ययन किया। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि राष्ट्रवादी दृष्टि भारत जैसे देश के स्वतंत्रता संग्राम के लिए बेहद जरूरी है मगर आजादी प्राप्त होने के बाद हम किस दिशा में जाएंगे उसका खाका भी तैयार होना चाहिए। उनका मानना था कि राष्ट्रवादी दृष्टि को समाजवाद से जोडऩा होगा। याद रहे कि समाजवाद की रूपरेखा भारत की परिस्थितियों के अनुकूल होगा। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस उसे अवश्य स्वीकार करेगी। स्वतंत्रता संग्राम में जुटे एशिया और अफ्रीका के देशों को समाजवाद के आधार पर जोड़ा जा सकता है। उनके सामने समस्या थी कि भारत की परिस्थितियों को देखते हुए समाजवाद की क्या रूपरेखा होनी चाहिए। स्पष्ट है कि सोवियत संघ में अपनाई जा रही समाजवाद की रूपरेखा की कार्बन कॉपी को भारत में लागू करने का प्रयास सफल नहीं हो सकता। वह हमारी परिस्थितियों के अनुकूल होना चाहिए। उन्होंने देश के विभिन्न भागों में जाकर अपने समाजवादी विचारों और दृष्टि पर लोगों के साथ विचार विमर्श आरंभ किया। 18 मार्च 1928 को युवा लोगों के सामने तीन बातों को रखा: 1. भारत को पूर्ण आ•ाादी मिलनी चाहिए, 2. धर्म को विशुद्ध व्यक्तिगत मामला होना चाहिए और उसे राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक मुद्दों में हस्तक्षेप की इजाजत नहीं दी जा सकती, और 3. देश के सभी नागरिकों को जाति, वर्ग और संपदा का बिना ख्याल किए समाज अवसर मिलना चाहिए। उन्होंने देश में घूमकर लोगों, विशेषकर कांग्रेस कर्मियों को, स्वतंत्रता के महत्व के विषय में समझाया और इस बात पर जोर दिया कि हमें एक नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना की ओर बढऩा चाहिए। उन्होंने ऑल बंगाल स्टूडेंट्स कांफ्रेंस को बतलाया कि पूर्ण राष्ट्रीय आ•ाादी के बिना हम अपनी भावी प्रगति की दिशा और रूपरेखा तय नहीं कर सकते और न ही हम राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता की ओर बढ़ सकते हैं। राष्ट्रीय आ•ाादी का यह मतलब कतई नहीं है कि हम दूसरे राष्ट्रों के साथ लड़ाई-भिड़ाई करने और अपना विस्तार करने में जुट जाएं। हमें एक विश्व राष्ट्रमंडल बनाने की दिशा में प्रयास करना चाहिए जिससे उनके बीच सहयोग और एकजुटता बढ़े। उन्होंने रेखांकित किया कि जब तक दुनिया में साम्राज्यवाद रहेगा तब तक उपर्युक्त विचार आगे नहीं बढ़ सकता क्योंकि साम्राज्यवाद कमजोर देशों पर कब्जा जमाने के फेर में रहता है। राजनीतिक स्वतंत्रता आवश्यक है मगर वह अंतिम लक्ष्य का मात्र एक भाग है। उसके अन्य भाग हैं : सामाजिक और आर्थिक मुक्ति और बिना भेदभाव के आर्थिक विकास हो। भारत में जनसंख्या का एक बड़ा भाग युगों से दबाया जाता रहा है और उसे धर्म या तथाकथित परंपरा के नाम पर प्रगति से वंचित रखा गया है। सारे देश में लाखों मजदूरों को उनके योगदान का उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता है जिससे वे गरीबी और तंगहाली की जिंदगी जीने को मजबूर हैं। यह स्थिति तब तक नहीं बदलेगी जब तक हम समाजवादी व्यवस्था को नहीं अपनाएंगे। यदि हम सामाजिक समानता की दिशा में बढऩा चाहते हैं तो समाजवाद का कोई विकल्प नहीं हो सकता। पूरे देश में भ्रमण कर नेहरू ने लोगों को बतलाया कि देश की पूर्ण राजनीतिक आ•ाादी और सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण का एक ही मार्ग है : समाजवाद। उन्होंने गरीबी और दरिद्रता को महिमामंडित करने के प्रयास पर करारा प्रहार किया। उन्होंने उन लोगों की कड़ी आलोचना की कि अभी गरीबी और दरिद्रता की जिंदगी जीने वालों को परलोक में संपूर्ण सुख एवं शांति मिलेगी। उन्होंने रेखांकित किया कि गरीबी कोई अच्छी चीज नहीं है। उसे जड़मूल से उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है तभी आदमी का जीवन सुखमय हो सकेगा। गरीब पर न दया दिखाने की आवश्यकता है और न ही उसे किसी के दान पर निर्भर रहना चाहिए। नेहरू का मानना था कि गरीबी को जन्म देने वाली व्यवस्था का समूल नाश होना चाहिए। यह तभी संभव हो सकता है जब समाज में जन्मजात गरीबी का नाश हो। वर्तमान सामाजिक-अर्थव्यवस्था के स्थान पर भारत के लिए उपयुक्त समाजवादी व्यवस्था आए। नेहरू की इस नयी सोच को हम ''स्वराज और सोशियलिज्म में स्पष्ट रूप से देखते हैं। यह लेख 11 अगस्त 1928 को ''द न्यू लीडर नामक पत्रिका में छपा था। यहां प्रश्न उठाया गया था कि भारत के आजाद होने पर हम कौन सी व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं। हम भारत को आजादी के बाद किस दिशा में ले जाना चाहते हैं? इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए हमें देश की सीमाओं के बाहर देखना होगा और हमें देखना होगा कि पश्चिमी यूरोप में औद्योगिक क्रांति के बाद क्या परिवर्तन हुए हैं। आज हमारे देश में ऐसे अनेक लोग हैं जो हमारे इर्द-गिर्द क्या हो रहा है उसकी ओर ध्यान देने के बदले अब भी अतीत में जी रहे हैं। कुछ लोग वैदिक युग लाना चाहते हैं तो कई इस्लाम के आरंभिक दिनों को फिर से स्थापित करना चाहते हैं। हम इस बात को भुला रहे हैं कि हमारी प्राचीन सभ्यताएं बिल्कुल भिन्न स्थितियों में पनपी थीं। हमें बीते हुए कल को छोड़कर वर्तमान की ओर देखना होगा। पुराने मिथकों और धारणाओं को त्याग कर वर्तमान काल की परिस्थितियों और वास्तविकताओं की ओर देखना और उन्हें समझना होगा। यहां पर उन्होंने रूस का जिक्र किया और कहा कि किस प्रकार वह पूंजीवाद को त्याग कर सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण की ओर बढ़ रहा है। उसने समझ लिया है कि पूंजीवाद का रास्ता देर-सबेर साम्राज्यवाद और औपनिवेशिक शोषण की ओर ले जाएगा। व्यापार के क्षेत्र में गैरबराबरी की शर्तों और युद्ध की ओर ढकेलेगा। आजादी के बाद भारत का सामाजिक-आर्थिक आधुनिकीकरण पूंजीवाद के रास्ते पर चल कर नहीं हो सकता क्योंकि एक व्यक्ति का शोषण दूसरे व्यक्ति तथा एक जनसमूह का शोषण दूसरे जनसमूह से बचना काफी कठिन है। हम ब्रिटिश साम्राज्यवाद और शोषण के विरुद्ध हैं। इसी से यह बात सामने आती है कि हम पूंजीवाद का रास्ता नहीं अपना सकते क्योंकि वही साम्राज्यवाद की जननी है। विकल्प है कि हम समाजवाद के किसी न किसी रूप को अपनाएं जो भारत की स्थितियों और परिस्थितियों के अनुरूप हो। इस प्रकार भारत पर ब्रिटिश दबदबे के खिलाफ हम उठ खड़े हों। ऐसा हम राष्ट्रवादी आधार पर ही न करें बल्कि सामाजिक एवं अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को देखते हुए आवश्यक है। हम ध्यान से देखें तो पाएंगे कि पंडित नेहरू नवउपनिवेशवाद के विभिन्न पहलुओं से अवगत थे। उन्होंने रेखांकित किया कि ब्रिटेन हमें काफी हद तक राजनीतिक क्षेत्र में स्वतंत्रता दे सकता है। हम देश के अंदर चुनाव के आधार पर सरकार भी बना सकते हंै मगर वह अपना आर्थिक आधिपत्य नहीं छोड़ सकता। स्पष्ट है कि आर्थिक आजादी के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता बेमानी है। एक स्वतंत्र अर्थव्यवस्था के बिना राजनीतिक आजादी काफी कुछ निरर्थक है। हम देश की आजादी की मांग अनेक दृष्टियों से कर सकते हैं मगर आर्थिक आ•ाादी के बिना यह सब बेमानी है। असल चीज तो आर्थिक आजादी है। हमें देश की जनता की समस्याओं को देखते हुए अर्थव्यवस्था की दिशा और उसकी आंतरिक स्थितियों को नियोजित करने की पूरी आजादी होनी चाहिए। नेहरू ने बार-बार इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि हमारी आजादी की लड़ाई को अन्य देशों के स्वतंत्रता संग्राम के साथ जोड़कर देखना चाहिए। हम अलग-थलग नहीं रह सकते। देश की सीमाओं के बाहर जो कुछ हो रहा है हम उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। हमें आजादी मिलने के बाद देश के सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण की दिशा क्या होगी उस पर पहले से विचार कर उसकी रूपरेखा बनानी चाहिए। आज नरेंद्र मोदी की सरकार मुख्य रूप से विदेशी प्रत्यक्ष निवेश पर निर्भर दिखती है। वह इस बात को नजरअंदाज कर रही है कि मूडी ने क्या कहा है। मूडी दुनिया की तीन बड़ी रेटिंग एजेंसियों में एक है। बाहर से आकर यहां निवेश करने वाले उससे मार्गदर्शन लेते हैं। मूडी ने रेखांकित किया है कि देश के अंदर ऐसी ताकतें हैं जो देश का सांप्रदायिक विभाजन करना चाहते हैं। इस स्थिति में यहां निवेश करना भारी जोखिम उठाना है। कहना न होगा कि नरेंद्र मोदी के तमाम विदेश भ्रमण के बावजूद आशानुकूल मात्रा में विदेशी निवेश नहीं आया है।

अब्दुल रहीम खानखाना .

अब्दुल रहीम खानखाना .अकबर के नौ रत्नों में सबसे नायब हीरा ,एक अद्भुत व्यक्ति .इतना बड़ा शूरमा की १६ से ७२ वर्ष की उम्र तक लडाइयां ही लड़ता और जीतता रहा /इतना बड़ा दानी की किसी ने कहा की मैंने एक लाख अशर्फियाँ एक साथ देखी नहीं.. तोउसे एक लाख अशर्फियाँ दे दी.. विनम्रता इतनी की देने के बाद भी शर्मिंदा थे ...देते समय उनकी आखे नीचे थीं ,किसी ने आँखे नीचे होने का कारन पूछा तो कहा . देन हार कोई और है भेजत है दिन रैन लोग भरम हमपर धरें यातें नीचे नैन .. सहृदय ऐसे की एक सिपाही की स्त्री के एक बर्वे पर प्रसन्न हो गए ;- प्रेम प्रीति को बिरवा चलेहु लगाय सींचनि की सुधि लीजै मुरझ न जांय. और सिपाही को धन धन्य देकर उसकी नवागत बधू के पास भेज दिया .और इसी चाँद पर एक पूरा ग्रन्थ ही लिख डाला गुण के ग्राहक ऐसे की अरबी/फ़ारसी ,हिन्दी के अनेक रचना कार इनके मित्र थे. चरित्रवान इतने की रूपवती के प्रणय निवेदन के कथन ..की मुझे अपने जैसा पुत्र दे दो .पर अपना सर उसकी गोद में डाल दिया ..माँ कहकर .तुलसी के मित्र थे .अकबर के विस्वास पात्र थे .जहाँगीर और शाहजहाँ के द्वन्द में इस कदर फंसे की पिस गए .जेल में डाल दिए गए उनके पुत्र दरब खान का सर काट कर उनके पास भेज दिया गया .उनके पूरे परिवार को जालिमो ने मार दिया फिर भी स्वाभि मान नहीं छोड़ा ... रहिमन मोहि न सुहाय अमिय पियावै मान बिन .बरु विष देई बुलाय मान सहित मरिबो भलो . और प्रेमी इतने गहरे की .. अंतर दाव लगी रहे धुंवा न प्रगट सोय कई जिय जाने आपनो या सर बीती होय .. जे सुलगे ते बुझ गए बुझे ते सुलगे नाहि रहिमन दाहे प्रेम के बुझी बुझी के सुल गाहि .. भक्त ऐसे की कृष्ण मय हो गए कवियों ने लिखा कोटिन हिन्दू वारिये मुस्लमान हरि जनन पर ,.कुल मिला कर एक ऐसा व्यक्तित्व जिसे पढ़ कर आप पूरी एक कौम के बारे में अपनी जान कारी को अधूरी मानने पर विवास होंगे .. कल से आगे ..कल के लेख में अशुद्धियाँ थीं बाद में दूर किया अब नही हैं .आज कोशिस की है की अशुद्ध न हो फिर भी होगा ही ..आज और अच्छा बना है पढ़िए रहीम को पढ़ते समय मुझे लगा की उनका पूरा जीवन -राजसी विलास का रहा हो ,.दर दर,मारे मारे फिरने का रहा हो, युद्ध और फतह का रहा हो ,राजा, के क्रोध काल का हो ,कुचाली दोस्तों के विश्वास घातके समय का रहा हो, एक आंवा था जो भीतर ही दहक रहा था / रहीम के बारे में एक कहानी मिलती है की तान सेन ने अकबर के दरबार में एक पद गाया, जो इस प्रकार था . जसुदा बार बार यों भाखै है कोऊ ब्रज में हितू हमारो चलत गोपालहिं राखै ... और अकबर ने अपने सभा सदों से इसका अर्थ कहने को कहा , तनसेन ने कहा --यशोदा बार बार अर्थात पुनः पुनः यह पुकार लगाती है की है कोई ऐसा हितू जो ब्रज में गोपाल को रोक ले . शेख फैजी ने अर्थ कहा ....बार बार का मतलब ..रो रो कर रट लगाती है .बीरबल ने कहा बार बार का अर्थ है द्वार द्वार जाकर यशोदा पुकार लगाती है ...खाने आजम कोका ने कहा बार का अर्थ दिन है और यशोदा प्रतिदिन यही रटती रहती है .अब रहीम की बरी थी .उन्होंने अर्थ कहा ...तानसेन गायक हैं इनको एक ही पद को अलापना रहता है इस लिए उन्हों ने बार बार का अर्थ पुनुरुक्ति किया शेख फैजी फ़ारसी का शायर हैं इन्हें रोने के सिवा कोई काम नहीं .राजा बीर बल द्वार द्वार घूमने वाले ब्राम्हण हैं इसलिए इनका बार बार का अर्थ द्वार द्वार ही उचित है, खाने आजम कोका नजूमी (ज्योतिषी) हैं उन्हें तिथि बार से ही वास्ता पड़ता है इसलिए बार बार का अर्थ उन्होंने दिन दिन किया ,. पर हुजूर वास्तविक अर्थ यह है की यशोदा का बार बारअर्थात रोम रोम पुकारता है की कोई तो मिले जो मेरे गोपाल को ब्रज में रोक ले .इस ब्य्ख्या से रहीम की विद्ग्घ्ता और साहित्य की समझ का पता चलता है इस से रहीम के उस गहरे हिन्दुस्तानी रंग का पता चलता है जो रोमांच को सात्विक भाव मानता हैऔर रोम रोम में ब्रम्हांड देखता . जो शरीर के रोम जैसे अंग को भी प्राणों का सन्देश वाहक मानता है जो वनस्पति मात्र को विरत अस्तित्व का रोमांच मानता है रहीम का जीवन एक पूरा दुखांत नाटक है .जिसमे बहुत से उतर चढाव हैं .महात्मा तुलसी से उनकी प्रगाढ़ मित्रता थी .बाप बैरम खान अकबर की ही तरह तुर्किस्तान के एक बहुत बड़े कबीले के सरदार थे वे सोलह वर्ष की आयु से ही हुमायू के साथ रहे .उन्ही की कूबत थी की हुमयू को फिर से दिल्ली की राजगद्दी पर बिठाया ,हुमायूँ के मरने पर वे ही अकबर के अभिभावक बनगए.जिस साल हुमायूँ मरे उसी साल लाहौर में रहीम का जन्म हुआ .रहीम की माँ अकबर की मौसी थीं .अकबर से दूसरा रिश्ता भी था ,बैरम खान की दूसरी शादी बाबर की नतिनी सलीमा बेगम सुल्ताना से हुई थी .बैरम खान के मरने के बाद अकबर के साथ सलीमा का पुनर्विवाह हुआ ,पर भाग्य का खेल ,चुगुल खोरों ने बैरम खान और अकबर के बीच भेद की गहरी खाई खोद दी .बैतररम खान ने विद्रोह किया परास्त हुए ,उन्हें हज करने जाने की सजा मिली.वे गुजरात पहुंचे थे की उनका डेरा लुट गया बैरम खान का क़त्ल हो गया ,बफदारों ने ओ परिवार बचाया ,चार वर्ष के रहीम बारह वर्ष की सलीमा सुल्ताना बेगम .अहमद बाद पहुंचे .जब रहीम पांच वर्ष के थे तभी अकबर ने उन्हें अपने संरक्षण में ले लिया .शिक्षा दीक्षा कराई.बड़े सरदार मिर्जा अजीज कोकलताश की बहन माह बनू बेगम से निकाह करवाया .उन्नीस वर्ष की आयु में गुजरात का युद्ध जीत कर वहा के सूबेदार बने .... वे तुलसी के परम मित्र थे .और तुलसी को बेहतरीन इंसान मानते थे .. सुरतिय नर तिय नागतिय सब चाहत अस होय गोद लिए हुलसी फिरें तुलसी सों सूत होय और रामचरित मानस को बेहतरीन ग्रन्थ ........ राम चरित मांनस विमल सब ग्रंथन को सार हिंदुआं को वेद सैम तुरकन प्रकट कुरान .... कबीर तुलसी रहीम और रसखन मध्यकाल के चार बेहतरीन इंसान ..कबीर संत थे एक बेहतरीन इंसान थे .अनपढ़ गृहस्त थे .जाति पांति धन धर्म से परे थे .मन से साफ़ थे .कबीर की भाषा आम आदमी की भाषा थी.वे लिखते नहीं थे केवल बोलते थे लोक जीवन के बहुत नजदीक थे .उनके प्रतीक दृष्टान्त लोक जीवन से आते थे . वे राम नाम जपते जरुर थे पर पूजा और आडम्बर के विरोधी थे उनके राम दशरथ के बेटे राम नही थे .इस धरती पर कबीर से बड़ा कोई इन्सान पैदा ही नहीं हुआ ,एक मुकम्मल इन्सान क्या होता है जानने के लिए हर किसी को कबीर पढ़ना चाहिए .अनगढ़ ,सहज ,भीतर- बाहर एक ,निर्भय ,आस्थावान ,जागृत विवेक .बिना पढ़े पूरी तरह ज्ञानी ,प्रेमानुभूति की पराकाष्ठा को समझाने वाला .मनुष्यता का रक्षक ,जागृत ,त्यागी गृहस्थ ,मनुष्यता की रक्षा के लिए भगवान से भी मुठभेड़ करने को आमादा ,जीवन और जगत को पूरी तरह समझाने वाला ,उसकी नश्वरता का गायक .मनुष्य इस धरती पर दूसरा कोई नहीं ...कबीर को जानना एक तपस्या है .उसे समझना मनुष्य बनने के रस्ते में एक सफल कदम है, उसे जीना ही मनुष्य होना है .कबीर सत्य है, कबीर नित्य है, कबीर .लोक है ,कबीर लोक राग है ,कबीर जिजीविषा है ..अपने लोक को ,अपने लोकराग को .अपने सत्य को अपने नित्य में जी पाना ही कबीर होना है .उसे पढ़ना एक रोमांच है .उसे समझना ब्रम्ह को ,प्राणी को जानना है ,उसे जीना एक ताकत है ,कबीर जीवन की हिम्मत है .जीवन की कला है ..आज कबीर की ही सबसे जादा जरूरत है . कबीर धर्म की ब्याख्या है .कबीर कर्म का प्रमाण है .वह निष्काम कर्मयोगी गृहस्थ ...वेद की ब्याख्या है .पुरानो की समीक्षा है वेदांत दर्शन का निचोड़ है ....तुलसी महात्मा थे . भक्त थे . पढ़े लिखे थे . गृहस्त नहीं थे .पर संत नहीं थे .उन्हों ने अपने काम को पीटपीट के राम बना दिया था .और राम के परम भक्त थे.संस्कृत के विद्वान थे पर अवधी में लिखते थे वे.उनमे भी वे सारे गुण थे जो कबीर में थे बल्कि वे पढ़े लिखे थे पुरानो के जादा नजदीक थे परन्तु वेद वेदांत के ज्ञाता थे . रहीम .के परम मित्र थे .और रहीम तुलसी को बेहतरीन इंसान मानते थे .. सुरतिय नर तिय नागतिय सब चाहत अस होयगोद लिए हुलसी फिरें तुलसी सों सूत होय और रामचरित मानस को बेहतरीन ग्रन्थ ........ राम चरित मांनस विमल सब ग्रंथन को सांन हिंदुअन को वेद सम तुरकन प्रकट कुरान .... रहीम अकबर के दरबारी थे तुलसी नही थे .हाँ अकबर ने चाहा था पर तुलसी ने अकबर को सीधा सा जबा दे दिया था .. होऊं चाकर रघुबीर को पटो लिखो दरबार .तुलसी अब का होंही गे नर के मंसब दार ...मतलब हिम्मती थे निडर थे ब्राम्हण थे .लिखते अवधी में थे . लोक जीवन के बहुत नजदीक थे .उनके प्रतीक दृष्टान्त लोक जीवन से आते थे .रहीमऔर तुलसी दोनों समकालीन थे.रहीम संस्कृत अवधि अरवी फारसी के जानकार थे .सभी भाषाओं का आदर करते थे सभी में लिखते थे .वे मुसलमान थे पर भक्त थे .राम के भी और कृष्ण के भी .कृष्ण के एक परम भक्त और थे रसखान .इन पर फिर कभी ..हाँ तो मैं कह रहा था की तुलसी ने कभी मुस्लिम धर्म की कोई बात नहीं की .अरवी और फारसी की चर्चा तक नहीं की ...रहीम अरवी फारसी के साथ हिन्दवी में भी लिखते रहे और नमाज के साथ साथ पूजा भी करते रहे .वे दरबारी थे .शासक थे तलवार के धनी थे फिर भी भक्त थे .महात्मा थे संत थे .उदार थे ..उन्हों ने तुलसी और मांनस दोनों की प्रशंसा की .पर तुलसी ने ऐसा कहीं नहीं किया कभी नहीं किया .एक बार भी रहीम का जिक्र नही किया अरवी फारसी का नाम तक नहीं लिया प्रशंसा की तो बात ही छोडिये .इसी लिए मैंने कहा तुलसी संत नहीं थे .उनमें हिंदुत्व .और हिंदी संकृत प्रेम तो होना लाजमी था पर अरवी फारसी को जानने की ललक भी नहीं थी यह समझ से परे है .सम्मान तो जाने दीजिये .रहीं म तो अपने को भक्त कहलाने में खुस थे पर तुलसी इस दिशा में मौन ही रहे.बाबा तुलसी दास ने मानस लिख कर राम को स्थापित किया .हिन्दुओं को संगठित किया .लेकिन अपने सम्पूर्ण लेखन में देशकी अधी जनसंख्या का कोई उल्लेख नहीं किया .शैव ,वैष्णव, स्मार्त, साधू ,संत ,योगी ,गृहस्त ऊँचनीच का भेद भाव त्याग कर एक होने और लड़ाई ख़तम करने की बात की .किन्तु उन्हों ने कहीं भी .हिन्दू मुसलमान ,अवधि फारसी संस्कृत और अरबी,की बात नहीं की ,बौद्धों की बात नहीं की जैनियों की बात नहीं की .मतलब वे हिन्दुओं को संगठित करते रहे ,पर मुसलमान बौद्ध ,जैन की चिंता नहीं की ..अवधी में लिखते रहे ..पर .अरबी और फारसी ..तथा अन्य बोलियों की चर्चा नहीं की ...जब की उस समय की सबसे बड़ी जरुरत यही थी ..आमिर खुसरो ,कबीर ,जायसी .रहीम ,रसखान ..जैसे नायक .हिन्दू मुसलमान .और भाषा की समस्या से दो चार होते रहे ..रहीम जैसे .रसखान जैसे विद्वानों ने कृष्ण भक्ति की प्रन्संशा की .रहीम ने तो तुलसी दास और मानस तक की प्रसंशा की ..पर तुलसी ने ऐसा कभी नहीं किया ..आखिर तुलसी दास ने ऐसा क्यों किया ..यह प्रश्न मेरे दिमाग को परेशान करता है .कोई भी बड़ा रचना कार अपने युग से उस काल की सबसे बड़ी समस्या से मुह मोड़ कर कैसे रह सकता है .बड़ी बड़ी लडाइयां हो रहीं थीं अकबर ने तोडर मल ने सभी ने हिन्दू मुसलमान को एक करने की कोशिस की .अकबर ने तो दीनेइलाही .लिखा .पर तुलसी ने इस दिशा में मौन क्यों साधे रखा ... .इस मायने में रहीम और रसखान दोनों कबीर की तरह तुलसी से बहुत आगे रहे .मैं तो सोचता हूँ की अगर तुलसी ने रहीम और रसखान की तरह का आचरण किया होता तो शायदहमारी बहुत बड़ी समस्या ख़त्म हो जाती कम से कम उर्दू भाषा का जन्म तो नहीं होता .इस मायने में आमिर खुसरो की भी चर्चा कभी करूँगा . आज इतना ही .. बहुरि बंदि खलगन सितभायें जे बिन काज दाहिने बाएं ..तुलसी की खल वंदना के साथ रहीम का चौथा एपिसोड लिखना शुरू कर रहा हूँ .सज्जन लोग पढेंगे ,आदर करेंगे ... अमित उदार अति पावन विचारी चारू ,जहाँ तहां आदरियो गंगा जी के नीर सों /खलन के घालिबे को खलक के पलिबे को ,खान खाना एक रामचन्द्र जी के तीर सों //गंगा जल की तरह पवित्र राम के तीर की तरह शत्रु विनाशक परन्तु जगत पालक ब्यक्तित्व को उनकी कृति में तलाश क रने की लालसा ,ललक ,जग उठी है / रहीम ने प्रेम पंथ का एक चित्र खींचा है ..रहिमन मैं तुरंग चढी चलिबो पावक मांहिप्रेम पंथ ऐसो कठिन सब सों निबहत नाहि /घोड़े पर सवार होकर आग पर चलाना .और निबाह लेना सब के बसबूते का नहीं.रहीम जिन्दगी भर घोडेपर सवार हो कर आग में दौड़ते रहे . रहीम के काब्य तुरंग की यात्रा भी अग्नि यात्रा ही तो है .वह अग्नि है जीवन के सहज प्यार की जो कभी बड़ी सुखद कभी बड़ी दुखद रही ,पहले पड़ाव तक चढ़ती जवानी के अनुभवों से गुजरे ,पर वे भी राजसी जीवन के नहीं थे ,बिभिन्न प्रकारके सामान्य जन की मानसिक स्थितियों में प्यार के अनुभव थे ,इनमे हांस -विलाश है सजने सजाने का भाव है लालसा विदग्धता छल है मान मनौवल है प्रतीक्षा है राग रंग है ईर्ष्या है उत्कंठा है और लगन है ,कुल मिला कर लौकिक श्रृंगार की लहक दार .ललक मय छटा है .इस काल की दो रचनाएँ हैं बरवै नईका भेद और नगर शोभा ,बरवै नईका भेदमें नायिका की बिभिन्न अवस्थाओं का चित्र है ,एक उदाहरन .-मितवा चलेऊ विदेसवा मन अनुरागि-पिय की सुरति गगरिया रहि मग लागिप्रिय की स्मृति का कलश लिए नायिका रास्ते में खड़ी है कब प्रिय लौटेंगे और स्मृतियों का कलश उनके लिए मंगल कलश बनेगा , दूसरा चित्र.भोरहिं बोल कोयलिया बढ़वति तापघरी एक धरि अलिया रहु चुप चाप ./रात भर स्मृतियों में खोये खोये नींद उचटी रही जरा सी आंख लगी तो कोयल सबेरे ही बोल पडी और सबेरे सबेरे ताप चढ़ गया एक घड़ी तक तो वह चुप रहती ,पहले लेखमे मैंने बताया है की अपने एक सिपाही की पत्नी के चाँद से प्रभावित हो कर रहीम ने उसे धन देकर छुट्टी भेजा और उसी छंद में पुस्तक लिख दी नईका भेद .इसी काल की दूसरी रचना नगर- शोभा में बिभिन्न ब्यावसायों वर्गों ,जातियों उपजातियों की रूपसी तरुणियों के चित्र हैं ,कुजडिन का एक रूप देखिये.भांटा वरन सु कौजरी बेचै सोवा सागनीलजु भई खेलत सदा गारी दै दै फाग ,--बैगन की तरह काली कुजडिन सोवा साग बेचती है और निर्लज्ज गली दे दे कर फाग खेलती है ..इस रचना में कोई नहीं छूटा हैदफाली गाडीवान महावत नाल वन्दिनी चिरवा दारीनि,सईस ,काम ग़री ,नगारची ,बाज दारिनी ,दाव ग़री,साबुनी ग़री ,कुंडी गरिन,जिले दारी नी तक न जाने कितनी रोजगार में लगीं महिलाओं के चित्र हैं .जिले दारिनी का चित्र ..औरन को घर सघन मन चले जो घूंघट माह ,वाके रंग सुरंग को जिले दार पर छांह रुतबा तो देखिये .जिले दार बेचारा उसके बस में है,.बस आज इतना ही बहुरि बंदि खलगन सितभायें जे बिन काज दाहिने बाएं ..तुलसी की खल वंदना के साथ रहीम का चौथा एपिसोड लिखना शुरू कर रहा हूँ .सज्जन लोग पढेंगे ,आदर करेंगे ... अमित उदार अति पवन विचारी चारू ,जहाँ तहां आदरियो गंगा जी के नीर सों /खलन के घालिबे को खलक के पलिबे को ,खान खाना एक रामचन्द्र जी के तीर सों //गंगा जल की तरह पवित्र राम के तीर की तरह शत्रुविनाशक परन्तु जगत पलक ब्यक्तित्व को उनकी कृति में तलाश्काराने की लालसा ,ललक ,जग उठी है /रहीम ने प्रेम पंथ का एक चित्र खींचा है ..रहिमन मैं तुरंग चढी चलिबो पावक मांहिप्रेम पंथ ऐसो कठिन सब सों निबहत नाहि /घोड़े पर सवार होकर आग पर चलाना .और निबाह लेना सब के बसबूते का नहीं.रहीम जिन्दगी भर घोडेपर सवार हो कर आग में दौड़ते रहे . रहीम के काब्य तुरंग की यात्रा भी अग्नि यात्रा ही तो है .वह अग्नि है जीवन के सहज प्यार की जो कभी बड़ी सुखद कभी बड़ी दुखद रही ,पहले पड़ाव तक चढ़ती जवानी के अनुभवों से गुजरे ,पर वे भी राजसी जीवन के नहीं थे ,बिभिन्न प्रकारके सामान्य जन की मानसिक स्थितियों में प्यार के अनुभव थे ,इनमे हस -विलाश है सजाने सजाने का भाव है लालसा विदग्धता छल है मन मनौवल है प्रतीक्षा है राग रंग है ईर्ष्या है उत्कंठा है और लगन है ,कुल मिला कर लौकिक श्रृंगार की लहक्दार .ललक माय छटा है .इस काल की दो रचनाएँ हैं बरवै नईका भेद और नगर शोभा ,बरवै नईका भेदमें नायिका की बिभिन्न अवस्थाओं का चित्र है ,एक उदाहरन .-मितवा चलेऊ विदेसवा मन अनुरागि-पिय की सुरति गगरिया रहि मग लागिप्रिय की स्मृति का कलश लिए नायिका रास्ते में खड़ी हैकब प्रिय लौटेंगे और स्मृतियों का कलश उनके लिए मंगल कलश बनेगा ,दूसरा चित्र.भोरहिं बोल कोयलिया बढ़वति तापघरी एक धरि अलिया रहु चुप चाप ./रात भर स्मृतियों में खोये खोये नींद उचटी रही जरा सी आंख लगी तो कोयल सबेरे ही बोल पडी और सबेरे सबेरे ताप चढ़ गया एक घड़ी तक तो वह चुप रहती ,पहले लेखमे मैंने बताया है की अपने एक सिपाही की पत्नी के चाँद से प्रभावित हो कर रहीम ने उसे धन देकर छुट्टी भेजा और उसी छंद में पुस्तक लिख दी नईका भेद .इसी काल की दूसरी रचना नगर- शोभा में बिभिन्न ब्यावसायों वर्गों ,जातियों उपजातियों की रूपसी तरुणियों के चित्र हैं ,कुजडिन का एक रूप देखिये.भांटा वरन सु कौजरी बेचै सोवा सागनीलजु भई खेलत सदा गारी दै दै फाग ,--बैगन की तरह काली कुजडिन सोवा साग बेचती है और निर्लज्ज गली दे दे कर फाग खेलती है ..इस रचना में कोई नहीं छूटा हैदफाली गाडीवान महावत नाल वन्दिनी चिरवा दारीनि,सईस ,काम ग़री ,नगारची ,बाज दारिनी ,दाव ग़री,साबुनी ग़री ,कुंडी गरिन,जिले दारी नी तक न जाने कितनी रोजगार में लगीं महिलाओं के चित्र हैं .जिले दारिनी का चित्र ..औरन को घर सघन मन चले जो घूंघट माह ,वाके रंग सुरंग को जिले दार पर छांह रुतबा तो देखिये .जिले दार बेचारा उसके बस में है,.बस आज इतना ही ,क्रमशः जारी..प्रस्तुतकर्ता saroj mishra पर 22:48 Email ThisBlogThis!Share to TwitterShare to FacebookShare to Pinterest