Saturday 26 May 2012

.दर्द के गाँव से नित गुजरना ही है

दर्द के गाँव से नित गुजरना ही है ,हम को जीना यहीं ,यहीं मरना भी है अपनी फितरत में है दर्द को जीतना, दर्द लेना भी है दर्द सहना भी है दर्द के गीत ही मीत अपने हुए, इनको जीना भी है इनको गाना भी है इस जहां में नहीं कोई ऐसी जगह ,दर्द के रास्ते जिन से गुजरे न हो दर्द ही मीत है ,दर्द ही गीत है, दर्द ही प्यार है ,दर्द संसार है दर्द को ओढ़ना दर्द बिस्तर भी है ,दर्द का ही सिरहाना लगता हूँ मै . इसलिए तो सदा गुनगुनाता हूँ मै ,इसलिए तो सदा खिल खिलता हूँ मै .दर्द के गाँव से नित गुजरना ही है ,हम को जीना यहीं ,यहीं मरना भी है अपनी फितरत में है दर्द को जीतना, दर्द लेना भी है दर्द सहना भी

Friday 25 May 2012

जगह-जगह फूल खिलें

प्रसिद्ध रूसी विचारक मैडम ब्लावत्स्की अपनी हर यात्रा में एक थैला रखती थीं, जिसमें कई तरह के फूलों के बीज होते थे। वह जगह-जगह उन बीजों को जमीन पर बिखेरती रहती थीं। लोगों को उनकी यह आदत बड़ी बेतुकी लगती थी। लोग समझ नहीं पाते थे कि इस तरह बीज बिखेरते रहने से क्या होगा। उन्हें आश्चर्य होता था कि मैडम ब्लावत्स्की जैसी समझदार महिला सब कुछ जानते हुए भी ऐसा क्यों कर रही हैं। पर लोगों को उनसे इस बारे में पूछने का साहस ही नहीं होता था। लेकिन एक दिन एक व्यक्ति ने पूछ ही लिया-मैडम अगर आप बुरा न मानें तो कृपया बताएं कि आप इस तरह क्यों फूलों के बीज बिखराती रहती हैं? मैडम ने सहज होकर कहा- वह इसलिए कि बीज सही जगह अंकुरित हो जाएं और जगह-जगह फूल खिलें। उस व्यक्ति ने इस पर फिर सवाल किया-आपकी बात तो सही है पर क्या आप यह दोबारा देखने जाएंगी कि बीज अंकुरित हुए या नहीं, फूल खिले कि नहीं? इस पर मैडम ने कहा-इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं उन रास्तों पर दोबारा जाऊं या नहीं। मैं अपने लिए फूल नहीं खिलाना चाह रही। मैं तो बस बीज डाल रही हूं ताकि चारों तरफ फूल खिलें और धरती का शृंगार हो जाए। धरती सुंदर हो जाए। फिर जो इन फूलों को देखेगा उनकी आंखों से भी मैं ही देखूंगी। फूल हों या अच्छे विचार, उन्हें फैलाने के काम में हर किसी को योगदान करना चाहिए। अगर प्रयासों में ईमानदारी है तो सफलता मिलेगी ही।

Tuesday 22 May 2012

अच्छा बननाशेष रह गया .

अच्छा बननाशेष रह गया . मै उतना अच्छा आदमी नहीं निकला जितनी की मुझे उम्मीद थी कि मै हो पाउँगा कई बार अच्छा बनाने कि कोशिश में सारी अच्छाई झर जाती है और अच्छा बनाना फिर भी शेष रह जता है मुझे भरोषा तो था लेकिन जाहिर है मैंने उतनी कोशिश नहीं कि जितनी कि जरूरत थी मुझे अपने बच्चों कि पढ़ी लिखी का जादा तो नहीं पर इतना अता पता तो रहा कि वे किस दर्जे में पढ़ते हैं मैंने उन्हें बहुत सलाह नहीं दी और नसीहत या उपदेश भी नहीं पर उन्हें साफ सफाई से जीवन बसर करना ,किसी पर निर्भर न रहना अपना कम खुद करना सर न झुकना ,किसी का एहसान न लेना ,भरसक मददगार होना अपने पद ,पोजीशन का नजायज फायदा न उठाना वगौरह वगैरह तो आ ही गया / उनकी अपनी मुश्किलें हैं ,तो मेरी ही कौन सी कम हैं एक अच्छा पिता ,उन्हें अवसर का लाभ उठाने आज कि दुनिया में अपना कम निकालने कि कुछ हिकमतें तो बता ही सकता था जो मैंने नहीं किया क्यों कि - बासठ बरस कि उम्र हो जाने के बाद भी मुझे खुद ही पता नहीं है कि हमारे समय में जिन्दगी जी कैसे जाती है . सिर्फ इतना ही समझ पाया कि कैसे जुटाया जाता है ,छत छप्पर जगह और रहत का सामान . नहीं समझ पाया कि कैसे खादी कि जाती हैं दीवारें ,तोड़े जाते हैं रिश्ते . क्या होता है चरित्र का छल ,कैसे बनाया जता है घर को बाजार इस मायने में पूरा राज कपूर ही रहा - सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशयारी सच है दुनिया वालों कि हम हैं अनारी . मेरे बच्चों ! अगर तुम सफल नहीं होते तो इसका जिम्मा मेरा जरूर होता हलन की आज तुम मुझ पर निर्भर नहीं हो . जिन्दगी तुम्हारे साथ कल क्या करेगी इस बारे में मैं कोई अटकल लगना नहीं चाहता पर अगर मई अच्छा होता ,तो तुम्हे इअतना अबोध न छोड़ता जितना मैंने तुम्हे शायद इस खूंखार वक्त में छोड़ दिया है तभी तो चालक चालों की शरारत ने तुम्हे आमूल चूल बदल दिया है हालाँकि तुम सब अब भी मेरी प्यारी संताने हो .मई तुम्हे बे हद प्यार करता हूँ . मई अच्छा पिता तो नहीं बन सका तो अच्छा इन्सान बनाने का तो सवाल ही नहीं उठाता चूक मुझसे कहीं वफादारी में भी हुई है ,शायद अपने लालच में मैंने सोचा कि कई जगहें हैं ,हो सकती हैं ,और एक जगह दूसरी को रद्द नहीं करती मुझे ख्याल तो था कि दुनिया के इतने विशाल होने के बावजूद जगहें बहुत कम ही हैं जिसे जितनी मिली है उसी पर जम कर काबिज है और इसकी मोहलत नहीं कि आप जगहों के बीच आवा जाही करते रहें . मैंने प्रेम ,बांटा नहीं बल्कि पाया कि यह एक ओर बढ़ने से दूसरी ओर कमतर नहीं होता बढ़ता ही है आश्मान कि तरह एक शून्य बना रहता है जिसे कई कई सूरज भरते रहते हैं उन्ही कि धुप में मैं खिलाता और कुम्हिलता रहा . मैंने जीवन और कविता को आपस में उल्झादिया जीवन की कई सच्चाइयों और सपनो को कविता में ले गया आश्वश्त हुआ कि जो शब्दों में है वह बचा रहेगा कविता में . भले ही जीवन में नहीं,गलती यह हुई . जो कविता में हुआ उसे जीवन में हुआ मन कर संतोष कटा रहा . अपने सुख और दुःख को अपने से बड़ा मनाकर दूसरों के पास उसे शब्दों में ले जाने कि कोशिश में वे सब बदल गए और मई भी और जो कुछ पन्हुछा शायद न मई था न मेरे सुख दुःख ,मुझे ठीक से पता ही नहीं था कि हमारे समय में अच्छे दोस्त ही सच्चे दुश्मन होते हैं अपने ही पक्के पराये .क्यों कि औरों को आप या आप कि जिन्दगी में दखल देने कि फुर्सत कहाँ है कभी कभार के भावुक विष्फोट के अलावा किसी से अपने दुःख का सज्खा नहीं किया न मदद मांगी न शक किया ,गप्पबाजी में ही मन के शक को बह जाने दिया कुछ शोहरत ,खासी बदनामी मिली ,पर बुढ़ापे के लिए ,अपने लिए , मुश्किल वक्त के लिए ,कुछ बचाया और जोड़ा नहीं . किसी दोस्त ने कभी ऐसा करने कि गंभीर सलाह भी नहीं दी इसी आपा धापी में किसी कदर आदमी बनाने कि कोशिश में बासठ बरस गुजर गये पर अच्छा बनाना शेष रह गया अब तो जो होना था हो गया दल के पक्षी अचानक उड़ गए सब फुर्र से बया बेचारा अकेला रहा गया ,घोसले के द्वार पर लटका हुआ /

Sunday 20 May 2012

जीवन इतना कठिन है

जीवन इतना कठिन है और कठिन क्यों करना जो कुछ दिया विधाता ने उस में ही खुश रहना तेरे भाग्य में जो भी होगा तय है उसका मिलाना किसी और की चुपड़ी रोटी से फिर क्यों जलना चार दिनों का यह मेला है लेना नहीं झमेला हंसी ख़ुशी से सबसे मिल कर खेल जाओ यह खेला याद रखेगी तुमको दुनिया जब तुम हंस कर जाओगे भाई बन्धु और कुटुंब कबीला दोस्त मित्र हरसाओगे

Saturday 19 May 2012

पानी बीच बताशा भैया तन का यही तमाशा है

पानी बीच बताशा भैया तन का यही तमाशा है क्या ले आया क्या ले जायगा क्या बैठा पछताता है मुट्ठी बांधे आया बन्दे हाथ पसारे जाता है किसकी नारी कौन पुरुष है कहाँ से लगता नाता है बड़े बिहाल खबर न तन की बिरही लहर बुझाता है एक दिन जीना, दस दिन जीना ,जीना बरस पचासा है अंत काल बीसा सो जीना फिर मरने की आशा है ज्यों ज्यों पांव धरो धरती मेंत्यों त्यों यम नियराता है कहै कबीर सुनो भाई संतो गाफिल गोता खाता है

श्मशान का बिम्ब


यदि आँखों में श्मशान का बिम्ब सुलगता रहे तो जिन्दगी का दिया पूरी आभा से जलता रहे

फुहरी.


नैहर दाग लगाय आई चुनरी , ऊ रंगरेजवा कै मरम न जानै . नहीं मिलै धोबिया कवन करै उजारी !! पहिरि ओढ़ के चली ससुररिया, गंउवा के लोग कहैं बड़ी फुहरी.

Friday 18 May 2012

तुलसी ने काम को पीट पीट कर राम बना दिया


तुलसी ने काम को पीट पीट कर राम बना दिया by Saroj Mishra on Friday, May 18, 2012 at 8:16pm · मेरे मित्र और मेरे ही सहनाम श्री सरोज मिश्र जी ने एक दिन एक जिज्ञासा ब्यक्त की थी .जिज्ञासा जितनी सरल थी उसका समाधान उतना ही श्रम साध्य .है .आज मूड बना है कोशिश करूँ शायद बात बन जाय .तुलसी के सम्बन्ध में आप का प्रशन अनजाने में ही तुलसी के रामबोला से तुलसी बनने की रचना प्रक्रिया है .किसी भी रचना कर या ब्यक्ति के बारे में जानने के कुल श्रोत हैं ..अपने बारे में उसका अपना कथन /उसके बारे में लोंगोका कथन /और जन श्रुतियां /कई बार जनश्रुतियां बहुत महत्त्व पूर्ण भूमिका निभादेती हैं /जैसे की बाल्मीकी जी के रामायण में धोबी का प्रसंग .अदना सा धोबी उसका कथन राम की कथा को एक खूब सूरत मोड़ दे देता है .क्यों क्योंकि धोबी का कथन समाज की स्वीकृति था .तुलसी ने अपने बारे में अपनी कबितावाली में लिखा है /रहीम ने भी तुलसी के बारेमे लिखा है नरेंद्र कोहली और रागे राघव की रचनाओं से भी सहायता ली जा सकती है .यह निर्विबाद सत्य है की तुलसी के माता पिता ने जन्म के साथ उन्हें अशुभ कह कर फेक दिया था . मात पिता जग जाय तज्यो बिधि हूँ न लिखी कुछ भाल भलाई, मांग के खायाबो मसीत को सोइबो लैबे को एक न देबे को दोउ . तुलसी सर नाम गुलाम है राम को जाके रुचे सो कहे कछु कोऊ काहू की बेटी से बेटा न ब्याहब काहू की जाति बिगराब न सोऊ एक बात तो तय है की रामबोला यही तुलसी के बचपन का नाम था क्यों की जन्म के साथ उन्हों ने राम राम कहा था / बच्चे को दर दर बिललाना पड़ा था ,उसे पता ही नहीं था की उसका क्या होगा .भला हो नरहरि का जिन्हों ने उस बच्चे को पढ़ा लिखा कर तुलसी बनाया .और तुलसी के पौधे की तरह घर घर में पूज्य हो गया .यह कथा है दिए से तूफ़ान बनाने की.लेकिन तुलसी बनाने के पहले की संघर्ष गाथा बड़ी रोचक है अनाथ तुलसी का विवाह रत्नावली से गंगा पार हो गया . वे मायके गयीं थीं /.तुलसी बौड़म थे .एक बरसाती रात को काम ने अपना प्रभाव दिखायापत्नी की यद् आयी गंगा में कूद पड़े ,बहाव में बह रहे थे की एक सहारा मिल गया नदी पार हो गए उसी सहर .पार जाकर देखा तो वह एक बहत हुआ मुर्दा था .बह्गे .रात को ससुराल में दरवाजा खटखटाने के बजाय चोरी से एक रस्सी के सहारे ऊपर चढ़ गए बाद में देखा तो वह सांप था खैर पत्नी के पास पहुंचे .वह बिखर गयीं ,विदुषी थीं .उन्होंने तुलसी को झटक दिया/ फटकारा .कहते हैं की उन्हों ने कहा . अस्थि चर्म मय देह तामे ऐसी प्रीति,होती जो रघु नाथ में तो होती न भव भीति अपने गाँव से लेकर अभी तक तुलसी काम के प्रभाव में थे अब उनका ज्ञान जाग गया .इस प्रसंग को तुलसी ने मानस में नारद मोह के रूप में ब्यक्त कर स्वी कार किया है ... जप तप कछु न होई यहि काला हे बिधि मिलहि कौन बिधि बाला .कहकर काम का प्रभाव है ही ऐसा .यहीं से तुलसी काम को पीट पीट कर राम बनादेते हैं और ऐसा बनादेते हैं की राम बोला तुलसी बन जाता है..... मानस .विनय पत्रिका ,कवितावली ,गीतावली .राम ललानहछू ,वैराग्य संदीपनी बरवै रामायण तुलसी की रचनाएँ हैं ..सब प्रकार से परिपूर्ण तुलसी जीवन के आख़िरी में अपने गाँव गए .किन्तु गाँव के लोगों ने उनका मजाक बनादिया .कहते हैं की गाँव के लोगो ने कहा ..देखो ज़रा यह आत्मा राम का लड़कवा राम बोलवा कैसा चन्नन मन्नन लगाया है लगता है बड़का पंडित बना है .तुलसी वही रोक गए .एक दोहा कहा . तुलसी तहां न जाइये जहाँ आपनो ठौर ,गुण अवगुण समझें नहीं कहैं और को और . फिर लौट गए और अंत तक गाँव नहीं गए . कबीर ने भी एक बार कहा था.काम मिलवाई राम सूँ अर्थात अर्थ धर्म काम मोक्ष इन चरों पुरुषार्थों में काम को पीट पीट कर अर्थात जीत कर चाहें तो ब्रम्ह को पाया जा सकता है .इसी लिए रमेश कुंतल मेघ ने कहा की तुलसी ने काम को पीट पीट कर राम बना दिया सरोज मिश्र

Wednesday 9 May 2012

अब्दुल रहीम खान खाना - क्रमशः ..2..गतांक से आगे


अब्दुल रहीम खान खाना - क्रमशः ..2..गतांक से आगे रहीम को पढ़ते समय मुझे लगा की उनका पूरा जीवन -राजसी विलास का रहा हो ,.दर दर,मरे, मरे फिरने का रहा हो, युद्ध और फतह का रहा हो ,राजा, के क्रोध काल का हो ,कुचाली दोस्तों के विश्वास घातके समय का रहा हो, एक अवाँ था जो भीतर ही दहक रहा था /रहीम के बारे में एक कहानी मिलती है की तान सेन ने अकबर के दरबार में एक पद गाया, जो इस प्रकार था . जसुदा बार बार यों भाखै है कोऊ ब्रज में हितू हमारो चालत गोपालहिं राखै ... और अकबर ने अपने सभा सदों से इसका अर्थ कहने को कहा , तनसेन ने कहा --यशोदा बार बार अर्थात पुनः पुनः यह पुकार लगाती है की है कोई ऐसा हितू जो ब्रज में गोपाल को रोक ले .शेख फैजी ने अर्थ कहा ....बार बार का मतलब ..रो रो कर रट लगाती है .बीरबल ने कहा बार बार का अर्थ है द्वार द्वार जाकर यशोदा पुकार लगाती है .खाने आजम कोका ने कहा बार का अर्थ दिन है और यशोदा प्रतिदिन यही रटती रहती है .अब रहीम की बरी थी .उन्होंने अर्थ कहा ...तानसेन गायक हैं इनको एक ही पद को अलापना रहता है इस लिए उन्हों ने बार बार का अर्थ पुनुरुक्ति किया शेख फैजी फ़ारसी का शायर हैं इन्हें रोने के सिवा कोई काम नहीं .राजा बीर बल द्वार द्वार घूमने वाले ब्राम्हण हैं इसलिए इनका बार बार का अर्थ द्वार द्वार ही उचित है खाने आजम कोका नजूमी (ज्योतिषी) हैं उन्हें तिथि बार से ही वास्ता पड़ता है इसलिए बार बार का अर्थ उन्होंने दिन दिन किया ,.पर हुजूर वास्तविक अर्थ यह है की यशोदा का बाल बालअर्थात रोम रोम पुकारता है की कोई तो मिले जो मेरे गोपाल को ब्रज में रोक ले .इस ब्य्ख्या से रहीम की विद्ग्घ्ता और साहित्य की समझ का पता चलता है इस से रहीम के उस गहरे हिन्दुस्तानी रंग का पता चलता है जो रोमांच को सात्विक भाव मानता हैऔर रोम रोम में ब्रम्हांड देखता . जो शरीर के रोम जैसे अंग को भी प्राणों का सन्देश वाहक मानता है जो वनस्पति मात्र को विरत अस्तित्व का रोमांच मानता है रहीम का जीवन एक पूरा दुखांत नाटक है .जिसमे बहुत से उतर चढाव हैं .महात्मा तुलसी से उनकी प्रगाढ़ मित्रता थी .बाप बैरम खान अकबर की ही तरह तुर्किस्तान के एक बहुत बड़े कबीले के सरदार थे वे सोलह वर्ष की आयु से ही हुमायू के साथ रहे .उन्ही की कूबत थी की हुमयूनको फिर से दिल्ली की राजगद्दी पर बिठाया ,हुमायूँ के मरने पर वे ही अकबर के अभिभावक बनगए.जिस साल हुमायूँ मरे उसी साल लाहौर में रहीम का जन्म हुआ .रहीम की माँ अकबर की मौसी थीं .अकबर से दूसरा रिश्ता भी था ,बैरम खान की दूसरी शादी बाबर की नतिनी सलीमा बेगम सुल्ताना से हुई थी .बैरम खान के मरने के बाद अकबर के साथ सलीमा का पुनर्विवाह हुआ ,पर भाग्य का खिल,चुगुल खोरों ने बैरम खान और अकबर के बीच भेद की कही खोद दी बैत्रम खान ने विद्रोह किया परास्त हुए ,उन्हें हज करने जाने की सजा मिली.वे गुजरात पहुंचे थे की उनका डेरा लुट गया बैरम खान का क़त्ल हो गया बफदारों ने ओपरिवर बचाया ,चार वर्ष के रहीम बारह वर्ष की सलीमा सुल्ताना बेगम .अहमद बाद पहुंचे .जब रहीम पांच वर्ष के थे तभी अकबर ने उन्हें अपने संरक्षण में ले लिया .शिक्षा दीक्षा कराई.बड़े सरदार मिर्जा अजीज कोकलताश की बहन माह बनू बेगम से निकाह करवाया .उन्नीस वर्ष की आयु में गुजरात का युद्ध जीत कर वहा के सूबेदार बने ....

Tuesday 8 May 2012

अब्दुल रहीम खान खाना


अब्दुल रहीम खान खाना .अकबर के नौ रत्नों में सबसे नायब हीरा ,एक अद्भुत व्यक्ति .इतना बड़ा शूरमा की १६ से ७२ वर्ष की उम्र तक लड़ियाँ लड़ता और जीतता रहा /इतना बड़ा दानी की किसी ने कहा की मैंने एक लाख अशर्फियाँ एक साथ देखी नहीं तोउसे एक लाख अशर्फियाँ दे दी विनम्रता इतनी की देने के बाद भी शर्मिंदा थे ...देते समय उनकी आखे नीचे थीं ,किसी ने आँखे नीचे होने का कारन पूछा तो कहा . देन हार कोई और है भेजत है दिन रैन लोग भरम हमपर धरें यातें नीचे नैन .. सहृदय ऐसे की एक सिपाही की स्त्री के एक बर्वे पर प्रसन्न हो गए ;- प्रेम प्रीति को बिरवा चलेहु लगाय सींचनि की सुधि लीजैमुरझी न जांय. और सिपाही को धन धन्य देकर उसकी नवागत बधू के पास भेज दिया .और इसी चाँद पर एक पूरा ग्रन्थ ही लिख डाला गुण के ग्राहक ऐसे की अरबी/फ़ारसी ,हिन्दी के अनेक रचना कर इनके मित्र थे चरित्रवान इतने की रूपवती के प्रणय निवेदन के कथन ..की मुझे अपने जैसा पुत्र दे दो .पर अपना सर उसकी गोद में डाल दिया ..माँ कहकर .तुलसी के मित्र थे .अकबर के विस्वाश पात्र थे .जहाँगीर और शाहजहाँ के द्वन्द में इस कदर फंसे की पिस गए .जेल में डाल दिए गए उनके पुत्र दरब खान का सर काट कर उनके पास भेज दिया गया .उनके पूरे परिवार को जालिमो ने मारदिया फिर भी स्वाभि मान नहीं छोड़ा ... रहिमन मोहि न सुहाय अमिय पियावै मान बिन .बरु विष देई बुलाय मान सहित मरिबो भलो . और प्रेमी इतने गहरे की .. अंतर दाव लगी रहे धुंवा न प्रगट सोय कई जिय जाने आपनो या सर बीती होय .. जे सुलगे ते बुझी गए बुझे ते सुलगे नाहि रहिमन दाहे प्रेम के बुझी बुझी के सुल गहि ..भक्त ऐसे की कृष्ण माय हो गए कवियों ने लिखा कोटिन हिन्दू वारिये मुस्लमान हरी जनन पर ,कुल मिला कर एक ऐसा व्यक्तित्व जिसे पढ़ कर आप पूरी एक कौम के बारे में अपनी जन करी को अधूरी मानाने पर विवास होंगे ...हम क्रमशः लिखेंगे ..रोज रात को आप सुबह या फिर रूचि हो तो रात में ही इसी समय पढ़ सकते हैं ..नहीं पढ़े तो चूक जायेंगे ...आज इतना ही ...कैसा लगा बताइए गा ..

Sunday 6 May 2012

.जगंनजासुनवभतयचापमग्रा..


आज मेरे मन में एक हास्य कहानी आ रही है .बहुत गूढ़ अर्थ है .पूर्वांचल के लोग इसे जल्दी समझेंगे ,खास कर चन्द्र शेखर जी वगैरह ...आप पहले सुनिए यह सत्य कथा है . बहुत पहले शादियों में बारातदो रत एक दिन ठहराई जाती थी ,पहले दिन शाम को आती थी ,दूसरे दिन, दिन भर रहती थी .तीसरे दिन सुबह बिदा होती थी ,बीच वाले दूसरे दिन को मरजाद रहना कहते थे इसी दिन शाम को बार पक्ष और बधू पक्ष के सभी लोग एकत्रित होते थे ,कुछ अछे विचारों का आदान प्रदान होता था ,दोनों पक्ष के पंडित शास्त्रार्थ करते थे, गुलाब जल, इतर का छिड़काव होता था.मेवा बनते जाते थे .इसी में मंगल उच्चारण और शास्त्रार्थ में दोनोंपक्ष के पंडितो की लड़ाई भी हो जाती थी .एक जीतता था एक हार जाता था ,मेरे गाँव में एक बारात बनारस से आयी थी ,उसमे संस्कृत विश्व विद्यालय के दो आचार्य थे ,गाँव में हल्ला होगया की अबकी बार गाँव का पंडित जरूर हारे गा ,दोनों आचार्य विद्वान् हैं उनके आगे यह गवईहा पंडित नहीं टिकेगा ,बात पंडित को भी बताई गयी,पंडित की इज्जत का सवाल था ,वह चिंतित भी था ,सभी लड़के दृष्टि लगाये थे पंडित हारे और उसका मजाक उड़ायें ,बहार हाल,शिष्टाचार का समय आया ,दोनों पक्ष इकट्ठा हुए .पारम्पर के अनुसार गाँव के पंडित ने वर पक्ष के स्वागत में मंगल पढ़ा .और बहुत विनम्रता से बोला हे मित्रो आप के बारात में काशी के दो पंडित हैं .मैदोनों को प्रणाम करता हूँ .मै जनता हूँ दोनों ब्याकरण के आचार्य हैं .मैंने पाडिनीकी अष्टाध्यायी पढी एक श्लोक समझ में नहीं आया .मै उच्चरित करता हूँ कृपया अर्थ स्पष्ट करें .और पढ़ा ..... "जगंनजासुनवभतयचापमग्रा "..इस सूत्र का अर्थ बताइए .बारात के दोनों विद्वान् सचमुच आचार्य थे ,शिक्षक भी थे दोनों ने आँख बंद करके पूरी अष्टाध्याई दुआहरा गए पर सूत्र उन्हें नहीं मिला दोनों ने चर्चा की फिर सहज भाव से बोले की हमने पूरी अष्टाध्याई दुहराई पर यह सूत्र पकड़ में नहीं आरहा है .बस क्या था तालियाँ बजा गयीं ,हल्ला हो गया की गाँव के पंडित ने काशी के विद्द्वानो को पराजित करदिया .मेवा बाँट दिया गया ,सभी जाने लगे .कुछ मन चले युवकों ने गाँव के पंडित को पकड़ा और धमका कर राज पूछा ,थोडा आना कानी के बाद पंडित ने कहा ...की यहाँ आते तक मै भी परेशान ही थापर यहीं आकर मेरी समाश्या हाल हो गयी.कहकर उसने बारात घर के बोर्ड की तरफ इशारा करते हुए बोला मैंने इसका उल्टा कर दिया .जब अष्टाध्यायी में था ही नहीं तो वे क्या बताते ,उन्हें हराना था ही .बारात घर के बोर्ड पर लिखा था ..."ग्राम पंचायत भवन सुजान गंज "पंडित ने बस उसे उलटा कर के पढ़ दिया . ...जगंनजासुनवभतयचापमग्रा....और जीत गया /कैसी लगी /सत्य कथा ..इसका अर्थ क्या है ..आप बताइए /

Saturday 5 May 2012

गर्मी के दिन :कुछ अभंग छंद


गर्मी के दिन :कुछ अभंग छंद नीरस हुई निगोड़ी पछुवा नीकी लगे छाँव सूखन लागे ताल तलैया सूरज ठाहर गाँव धूप बैसाख बढ़ी... सूरज ने फैलाईं बांहें लूह चले चहुँ ओर दहकन लागी दासों दिशाएं छाँव खोजती ठौर जेठ में तपन बढ़ी ..... पके आम चुचुआने महुआ बगिया सिमटा गाँव ताल सरोवर दरकन लागे धधक उठी हर ठाँव भोर कुछ खिली खिली .... भांय भांय करती दुपहरिया चिड़िया दुबकी पात नाच रही चिल चिल गंगानिया सुलगे आधीरात जवानी ग्रीष्म चढी ....

काल - कलौती

उषा पीसती नेह जतन से जांत चले भिनसारे भोर लीपती रच रच आँगन पूरे चौक दुआरे .. मूसल छांटे बिपति दुपहरी ओखली धरी ओसारे साँझ झोंकती थकी जवानी चूल्हे में सिर डारे ... आधी रात बदलती करवट आँख समय बिरुआरे चेहरे पर चौरासी झुर्री मईया ठाढ़ दुआरे .... लाले लाले गोड़ कनईया आँखे सपना बुनतीं काल कलौती उज्जर धोती मंशा चुनती मोती....