Thursday 16 February 2012

हमें उदास होना नहीं आता ,

हड्डियों को लकड़ी, और, केशों को घास की तरह जलते देख कर कभी कोई कबीर उदास हो गया था . रही होंगी उसके समाज के दिलों में धडकने रहा होगा उसका उठना बैठना किसी जीवित परिवेश में तभी तो वह कर सका भेद जीवन और मृत्यु का . पा सका बोध जीवन की नश्वरता का .और कर सका अलग ,अपने को अन्यो से गा सका गीत आत्मा का कर सका उद्घोष हम न मरें मरिहैं संसार . वह पाचुका था जीने का स्वाद समझ चुका था जीने की कला और जीवित रहने का रहस्य . परन्तु जो मिला है हमें .... ईंट गारे का ताबूत ,जिसकी बुनियादों में भूचाल ,दीवारों में षड्यंत्रों का पलस्तर ,रंग रोगन धूर्तता का स्वार्थी रिश्तों की अर्चना,दम्भी प्रतिशोध की बेदी लोलुपता का घृत और विद्वेष की आग से उठते जड़ता के धुंए में ,थम्ही हुई धड़कने . बेजान जिन्स सी जिन्दा लाशों की समिधा सड़े हुए समबन्धों की चिरायद गंध . जीवन को नरक करदेने वाली यज्ञ शाला . हम खड़े हैं धधकते ज्वाला मुखी के मुहाने पर फिर भी हम इसे घर कहते हैं . हमारा उत्साह,हमारी हिम्मत, हमारी जिजीविषा, तो देखो हम इसी घर में रहते हैं ,हमें उदास होना नहीं आता , हमने भी विकसित कर ली है अपनी जीने की कला.

Wednesday 15 February 2012

ललित लालित्य और मेरी आधुनिकता ..पुस्तक का अंश

नारी सुहावन जल भरि लावे ,पुरुष अँधेरे दीप जलावे,

सन्मुख धेनु पियावै बाछा ,मंगल कारन सगुन हुभ आछा ,

यही तो कहा था जाते समय माँ ने ....

मैं भटक गया था ..कहाँ जीवन के प्रभात काल के मीठे रसभरे ताजे गुड के गंध से सराबोर यथार्थ बोध कहाँ ये कसैले क्षण बिलकुल वैसे ही जैसे तरुनाई से यौवन की ओर कदम बढ़ाते सुर्ख गालों पर मुहांसों की बे तरतीब जकडन.मन खट्टा हो जाता है अपने से ही वितृष्णा होने लगती है ,विश्वास की पकड़ ढीली पड़ने लगती है ,यह सब कुछ स्मरण करके सिहरन होती है ,मई अपनी चतना को झकझोर कर अनचाही स्मृतियों को झटक देता हूँ ,और दृश्य पटल बदल जाते हैं,मेड पर खड़े खड़े एकबार फिर उन मनभाई स्मृतियों को समाकलित करता हूँ जो मेरे भीतर चित्रलिखित हैं और पहुँच जाता हूँ खेतों में .अपने सम्पूर्ण उभार के साथ मस्तक ऊँचा कियेसुजियाये धन की पीताभ डीभीकिनारे मक्के के खेत में कुदाल चलते युवकों की टोली मेड पर बसीनाहरी लिए बैठी उनकी प्रियतमा चाचर कबड्डी और झाबर खेलती चरवाहों की टोली भैंस की पीठ पर बैठ कर बिरहा गाते अहीर के छोकरे और दूर आल्हा के स्वर के साथ ठनकती ढोल के स्वर का उभरता ओज -जे कर तिरिया दुसमन लई गई तेकरे जीवन के धिक्कार ,बाप का बदला जे न लेह लिस ....-उस बड़े बूढ़े बरगद की विशाल काय मोटी डाल में सामूहिक झूला झूलती अनुराग युक्त ग्राम बालाएं अपनी अपनी छिपी छिपी उम्मीदवारी लिए पेंग बढ़ने की होड़ में तरुणों कीटोली,पूरी ताकत से सनसनात झूला अंतर को उद्द्वेलित कर देने वाली कजरी ,-सावन बीति जाट मोर सजनी पिया मोर अजहूँ न आये हो - की तीस युवतियों की आपसी छेड़छाड़ पोरी तन्मयता से उफनते बरसाती नालों की हराहराहट ,किनारे एकाग्र चेतना से उतने ही तन्मय मछली तथा केकड़े पकड़ने में मस्त व्यस्त बालकों का झुण्ड ,हरी डूब पर अपेक्षा कृत छोटे नगरे बच्चों की गुत्थम गुत्थी और बीर बहूटियों का रेंगता काफिला ,अख्दे में ताल ठोंक कर भिड़ते युवक . अभी अभी पिया के घर से आई ननदों की लाज भरी तृप्त कामा चितवन बड़ी बड़ी किन्तु शरमाई चतुर आँखों में झांक कर सबकुछ उगलवा लेने की चुहल में लगी मनचली शरारती भाभियों की छींटा कसी ,छेड़ छाड़और खीचा तानी अजीबो गरीब गदहपचीसी ,उतारते भादो की रात की अनबूझ कालिमा और दादी के साथ -ओका बोका तीन तलोका लैया लाटा चन्दन काटा खेलते बच्चे .प्रवासी प्रिय की स्नेहिल स्मृतियों में खोई अकेली रात बिताने के उपक्रम में करवट बदलती बियोगिनियों की गुण गुनाहट -सईंया मोर गैलें रामा पूर्वी हो बनिजिया की लई ho ऐहैं ना रस बेन्दुली टिकुलिया लई हो ऐहैं ना- .आज फिर खडा हूँ उसी मेड पर जहाँ से लोंगो ने मुझे विदा किया था .गाँव की सीमा पर पडा और खडा यह मेड साक्षी है अपने उन तमाम पुत्रों की विदाई का जो नौकरी और जीविको पार्जन की तलाश में विदा हुए थे ,लौट कर आने का आश्वासन देकर ,पर लौट कर आये कितने ? बहुत कम ,जो लौट कर आया भी वह माटी के साथ एक मेक नहीं हो सके . ,यही वह मेड है जहाँ से उठाया था फागू काका ने मेरा सामान और नाक की सीध में बढ़ चले थे ,मैंने भी तो चाचा -चाची ,काका -काकी अनेकों कतार बद्ध स्वजनों के पैर छूए थे ,सारा गाँव विदा करने चला आया था ,सभी से विदा हो कर मैंने लिया था आशीस अपने में ही सिमटी एक किनारे खडी माँ से ,छाती से चिपका कर वह फफक कर रो पड़ी थी और रोते रोते बोली थी लौट कर आना बेटे .मानो उसे मेरे लौटने पर संदेह हो,यह भी तो कहा था ख़त तुरंत लिखना ,अपना ख्याल रखना, खाना समय से खाना ,मेरे लिए दही मछली लेकर आना.मै माँ से आँखे नहीं मिला सका था बिना कुछ बोले ही मुड कर तेज कदमो चल पडा था कानो में दूर तक गूंजती रही सगुनौती ..नारि सुहावन...जल घाट लावे ...कितना कुछ बदल गया है समझ में नहीं आ रहा है की यह बदलाहट है कहाँ .मुझ में ,मेरीसोच में ,दृष्टि में ,या फिर जो कुछ सामने देख रहा हूँ उसमे ,परन्तु आँखे टिक नहीं रही हैं ,टिकें कैसे वह कुछ तो मिल ही नहीं रहा है जिसे वे ढूंढ रही हैं सब कुछ बदल गया है ,परिवर्तन तो प्रकृति का शास्वत नियम है किन्तु यह अपेक्षा से कंही अधिक है ,हो भी क्यों न ,गुजर भी तो गया एक लम्बा अन्तराल .एक दौड़ जो शुरू हुई थी इसी मेड से मुक्त आकाश को बाँहों में समेत लेने की.. निश्छल निष्कपट,स्वच्छंद ,कोमल भावुकता मई उत्साही क्षणों के मध्य से .यौवन की दहलीज को पार करभविष्यत के सपनो में आकंठ निमग्न अपनी अनंत इक्षाओं को फटी जेबों में ठूस कर निकल जाना चाहता था दूर बहुत दूर ..अनजान राहों की अंत हीन यात्रा गुजर आयी अति आधुनिक ,मशीनी ,कुंठा ,पलायन ,शोर शराबे, कपट ईर्ष्या ,अविश्वास स्वार्थ और कटे फटे संबंधो की थेगदी लपेटे ,आकर्षक रंग बिरंगे शहरों के बीच बिची बिछी कोलतार की लम्बी चमक दार बर्तुल सपाट सडकों, ,सजी धजी अट्टालिकाओं के बीच सड़ते सेफ्टिकटैंको के बदबू दार ,कचरों से भरे टेढ़े मेढे गलियारों के बीच से .

Monday 13 February 2012

दिन बेगाने हो जाते हैं

सुबह सबेरे सूरज आता
नून तेल के झंझट लाता
दिन बेगाने हो जाते हैं /
सपनों वाली पहचानी सी गली पुरानी
जहाँ खेलते बच्चों का स्वर
धमा चौकड़ी दे जाता है /
हर दिन दुपहर बतियाता है
छत पर बैठे नील कंठ से
दिन मन माने ढल जाता है /
मेहनत की थकान ले करके
बिखरी संध्या घर आगन में
तालाबों पर खिली कुमुदिनी
रात सयानी सो जाती है /
चढ़ी चांदनी नील गगन में
चन्दन वन की खुसबू आई
कोमल सपने उग आते हैं /

उस रोज समझना धरती पर फिर से फागुन आने वाला है

बसंत पंचमी से होली तक का समय भारतीय परम्परा में उद्दीपन का काल है ठूंठ भी पल्लवित हो जाते हैं ,अशोक के फूल ,बौराए आम ,कोयल की पंचम ,रक्ताभ टेसू ,मद्धिम मद्धिम फगुनहट, भ्रमर की गुनगुनाहट ,,उरठ धूप,उचटा उचटा मन सचेत संजीदा आंखे फागुन के आने के संकेत हैं ..फागुन घुस गया बाग में झरन लगे मधु गंध पोर पोर गाने लगे मॉलकौस के छंद .. ऐसे में दूर से आती हुई ढोलक की थाप के साथ होली गीत के सुर ...फागुन भर बाबा देवर लागे ......हंसी ठिठोली ..जबाब नहीं इस मौसम का ..वातावरण ही रंगीन हो तो मिजाज भी रंगीन हो जाता है ...समझने में देर नहीं लगती ..मस्ती ही मस्ती ....
जिस रोज तुम्हारी गागर से सतरंगी रंग छलक जाये
उस रोज समझना धरती पर फिर से फागुन आने वाला है /.
जब कलियों की कंचुकी स्वयं हो जाय बिलग उसके तन से ,
जब चंपा जूही की कलियाँ शरमायें भृग के नर्तन से
उस रोज समझना उपवन में ऋतुराज समाने वाला है /
जब अनचाहे कगना खनके कागा बोले जब आँगन में
जब मुरझाये मनकुसुम खिले अनगिन उमंग हो जीवन में
उस रोज समझना परदेशी प्रीतम घर आने वाला है /
जब सर से घूंघट खिसक खिसक ढल जाये तेरे मुखड़े से
तुम मुह में अंगुली तनिक दबा मुस्कवो हौले हौले से
उस रोज समझना पूनम का चंदा मुस्काने वाला है /

Sunday 12 February 2012

आजादी के तराने (जप्त शुदा )-३ विश्व नाथ शर्मा ..१९३०

आजादी के तराने (जप्त शुदा )-३ विश्व नाथ शर्मा ..१९३०
मित्रो आपने विजयी विश्व तिरंगा प्यारा पढ़ा था अब आज पदिये एक ऐसा तराना जो मुर्दे को भी खड़ा करदेता था ,जरा इसकी भाषा पर भी ध्यान दीजिये गा यही हमारे स्वतंत्रता संग्राम की भाषा थी .यही उर्दू है जो देवनागरी में लिखी जाती थी ....

कौम के खादिम की है जागीर वन्दे मातरम
मुल्क के है वास्ते अकसीर वन्दे मातरम /
जालिमो को है उधर बन्दूक अपनी पर गुरुर
है इधर हम बे कसों का तीर बन्दे मातरम /
कत्ल कर हमको न कातिल तू हमारे खून से
तेग पर हो जायेगा तहरीर वन्दे मातरम /
जुल्म से गर कर दिया खामोश मुझको देखना
बोल उट्ठे गी मेरी तस्बीर वन्दे मातरम /
सरजमी इंग्लैण्ड की हिल जाएगी दो रोज में
गर दिखायेगी कभी तासीर वन्दे मातरम /
संतरी भी मुज्तारिब है जब की हर झंकार से
बोलती है जेल में जंजीर वन्दे मातरम /जय हिंद .वन्दे मातरम

अमीर खुसरो -५

अमीर खुसरो -५
तो मित्रों हो जाय अमीर खुसरो पर कुछ बात चीत
दिल्ली की भाषा उनके रक्त में माँ के दूध की तरह संचरित हो रही थी ,उनकी हिंदी देहलवी अर्थात कड़ी बोली का प्रारंभिक रूप ,मैंने बताया था की उनकी एक पुस्तक खालिक-बारी का उल्लेख मिलता है ,खान -ये -आरजू में भी इसका उल्लेख है,किन्तु कुछ लोग इसे प्रमाणिक नहीं मानते,,पर हम मानते हैं , खुसरो संगीत के भी जानकर थे ,वे सूफी थे ,जो गीत ,बसंत ,झूला ,सावन ,आदि से सम्बंधित है वह संगीत निबद्ध है ,हमने आप को पहेलियाँ और मुकरियों का भी अंतर बताया था .आज पहेलियाँ .
१-मुह खोले जब तिरिया आई ढीले हो गए सभी सिपाही
कोई सोना लेने जाता वह सोना आप ही आता /
२-सोने में जो देखी बात सूझे और रूप के साथ
व्यान किया जब मिल कर चार नै तरह से दिया विचार /(दोनों का उत्तर सपना ,ख्वाब )
३- सेत बरन देखी एक नारी पी के विरोग पड़ी विचारी
नक़सुक सों निकसत यक अंग प्राण गए प्रीतम के संग /(सांप केंचुली वाला )
४- गला कटे वो चूँ न करेऔर मुंह रक्त बहाय
सो प्यारी बातें करे फ़िक्र कथा दिख लाय / (पान)
मित्रों खुसरो हमारी जमीनी हकीकत रहनुमा था ,लोक का पैरोकार था,बोली भाषा का मुरीद था ,भारतीयता का पुजारी था ,जितना भी लिखा जय कम होगा/उन्हें दिल्ली छोड़ कर जाना पडा/वे हैदर बाद चले गए /हैदर बाद के लोंगो ने उन्हें सर आँखों पर बिठाया ,वहीँ रहने लगे ,उन्ही की बोली दक्खिनी हिंदी के नाम से जानी जाती है ,वे अरबी फ़ारसी और भारतीय बोलियों के जानकर थे पर लिखते देव नगरी और फ़ारसी में थे /उर्दू का जन्म बाद में हुआ /

Saturday 11 February 2012

मायाराम सुरजन ट्रस्ट द्वारा आयोजित "संबाद" कार्यक्रम में बच्चों को संबोधित बक्तब्य का अंश

मायाराम सुरजन ट्रस्ट द्वारा आयोजित "संबाद" कार्यक्रम में बच्चों को संबोधित बक्तब्य का अंश. देवता और राक्षस दो छोर हैं दोनों के ही पास ढेर सारा धन और सत्ता है हम धन या सत्ता से देवताओं के सामान विलासी और राक्षसों के सामान दुष्ट बन सकते हैं पर अच्छा इन्सान नहीं /निश्चित रूप से धन सब कुछ नहीं है /अच्छा इन्सान बनाने के लिए तो बिलकुल जरूरी नहीं है /जीवन की आप धापी में माता पिता को बच्चों के लिए समय देना जरूरी है /आज लोग यह नहीं सोचते की बच्चे अच्छे इन्सान बने /वह क्या बने माता पिता तय करते हैं /यह गलत है आप अच्छा इन्सान बनाइये बाकि उन्हें बनाने दीजिये इसपर विचार किया जाना चाहिए /यह टालने का विषय नहीं है /अभिभावक विचार करें/
साहित्य हमारे रोजमर्रा के जीवन में है ,माँ का प्यार /चिड़ियों की चहचहाहट ,सूरज का उगाना ,तारों का टिमटिमाना ,चंद्रमा की कलाएं ,हवा की रुनझुन ,पत्तों का खड़कना ,पानी बरसना ,इन सब से साहित्य ही निकलता है ,अगर आप ने सूरज को उगते चंद्रमा को चमकते नहीं देखा, पेड़ से आम नहीं तोडा ,कदम की डाल तक हाथ नहीं बढाया ,बरसते पानी में नहीं भीगा ,बूंदों का संगीत नहीं सुना ,तो समझ लीजिये की आप मनुष्य होने के असली सुख से वंचित हैं ,यही तो संगीत साहित्य और कला के जनक हैं ,बचपन के झगड़ों ,और लड़कपन के अपने सुख हैं इसी लिए सूर की पंक्ति -मैया मोरी मै नहीं माखन खायो .आज भी हमें अच्छा लगता है/ , मनुष्य के तीन मन होते हैं तीसरा अचेतन मन ही हमें झिंझोड़ता है ,जगाता है ,पश्चाताप कराता है ,पश्चताप सबसे बड़ा सदगुण है /तीसरे मन की बात सुनाने की कोशिस करनी चाहिए /अच्छा बनाने का यही उपाय है /

Friday 10 February 2012

अमीर खुसरो 5

अमीर खुसरो भारतीय साहित्य ही नहीं भारतीय समाज की भी धरोहर हैं .,उन्होंने हमारी गंगाजमुनी समृद्ध संस्कृति की तहजीब को भाषा का मुहाबरा दिया /वे जन नायक थे /उन्हें घर घर में पहचाना जाता था /घर घर उनकी स्वीकृति थी /सम्मान था आज तक कोई इतना स्वीकृत नहीं हुआ ,एक दिन खुसरो किसी गाँव से गुजर रहे थे उन्हें प्यास लगी थी पनघट पर औरतों को पानी भरता देख कर वे उसी और मुड गए /पानी हरिनियाँ उन्हें पहचान गईं /सबने उन्हें खूब तंग किया /ठिठोली की /कोई बोले चलनी पर कविता कहो कोई मौनी पर, कोई दौरी पर,कोई खांची , कोई जांता, कोई चक्की,कोई कुत्ता, कोई आंटा कोइ खीर कोई चरखा सब की अलग अलग फरमाइस खुसरो ने सभी को एक में लपेट दिया पानी पिया चलते बने ..इसी को मुकरी कहते हैं मुकरियों और पहेलियों में अंतर है /
*मुकरी
१-खीर पकाई, जतन से ,चरखा दिया चलाय आया कुत्ता खा गया तू बैठा ढोल बजे
२-दौरी थी पिय मिलन को खांची मन में रेख,
अब मौनी क्यों हो गयी चल नीके कै देख
मैंनेअपनी पुस्तक 'काल कलौती' में लिखा था
पनघट पर पनिहारिनी मटकें फंस जाय कोई खुसरो
लिखदे कुछ कुछ नै मुकरियां कास दे कोई फिकरो /
उपरोक्त नंबर दो फिक्र है /नंबर एक मुकरी
*पहेली
बिरह का मारा गया चमन में इश्क छाना है स्याह बरन में
जोर गुलों के सहता है पर बोले बिन नहीं रहता है (भँवरा )
आग लगे फुनग सों और जल गई वाकी जड़
एक बिरवा निख बोलता सो बूझान हरा नर (हुक्का )
मेरा ख्याल है की आज के लिए बस करें कल फिर...क्रमशः

आजादी के जप्त शुदा तराने ..२

तो पहले आजादी के जप्त शुदा तराने ..२
आजादी के जप्त तरानों का संकलन १९ ७६ में किया था .जो हिंदी अंग्रेजी मराठी बंगाली उड़िया गुजराती ,उर्दू में प्रकाशित है ...
आज झंडा गीत.लेखक ......श्यामलाल गुप्त पार्षद
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा झंडा ऊँचा रहे हमारा
सदा शक्ति बरसाने वाला प्रेम शुदा सरसाने वाला
वीरों को हरसाने वाला मत्री भूमि का तन मन सारा //
स्वतंत्रता के भीषण रन में लाख कर बढे जोश क्षण क्षण में
कांपे शत्रु देख कर मन में मिट जाये भय संकट सारा //
इस झंडे के नीचे निर्भय लें स्वराज्य यह अविचल निश्चय
बोलेन भारत माता की जय स्वतंत्रता हो ध्येय हमारा //
आओ प्यारे बीरों आओ देश द्गार्म पर बलि बलि जाओ
एक साथ सब मिल कर गाओप्यारा भारत देश हमारा //
इसकी शान न जाने पाए चाहे जन भले ही जाये
विश्व विजय करके दिखलायें तब होवे प्राण पूर्ण हमारा //
विजी विश्व तिरंगा प्यारा ,झंडा ऊँचा रहे हमारा ......

आजादी के जप्तशुदा तराने

मित्रों अमीर खुसरो पर जो मुझे आता है या जो सामग्री मेरे पास है वह तो फेस बुक पर /ब्लाग में भी आप के लिए जारी है /आज से एक नई सीरीज और शुरू कर रहा हूँ.... आजादी के जप्तशुदा तराने .....कुछ पुराने लेखकों /कवियों/ शायरों की ऐसी रचनाएँ जिनको नई पीढ़ी नहीं पढ़ पाई/उन्ही के लिए .अनेक भाषाओँ /जातियों और धर्मो से मिलकर बनी हमारी संमृद्ध संस्कृति में आजादी के तराने गूंजते रहे हैं ..,,
१-- असगर १९३०--.
मुर्ग दिल मत रो यहाँ आंसू बहाना है मना ,अद्लीबों को कफस में चहचहानाहै मना हाय!जल्लादी तो देखो कहरहा सैय्याद ये वक्ते-जिबह बुलबुलों को फडफडाना है मना
वक्ते -जिबह मुर्ग को भी देते है पानी पिला हजरते इन्सान को पानी पिलाना मना है
मेरे खूं से हाथ रंग कर बोले क्या अच्छा है रंग अब हमें तो उम्र भर मरहम लगाना मना है
ऐ मेरे जख्मे-जिगर !नासूर बनाना है तोबन क्या करूँ इस जख्म पर मरहम लगना मना है
खूं दिल पीते हैं"असगर"खाते हैं लख्ते-जिगर इस कफस में कैदियों को आबोदाना है मना है
ये ओ तराने है जो जब्त शुदा रहे जिनके गाने पर प्रति बन्ध था /क्रमशः जारी रहेगा ..कैसा लगता है जरूर लिखे .

Thursday 9 February 2012

अमीर खुसरो --४

अमीर खुसरो --४
कल मैं बिभिन्न बोलियों की चर्चा कर रहा था /शेख बहाउद्दीन वाजन /अबुल फजल /आईने अकबरी की चर्चा की थी आज आगे ..आधुनिक भाषा वैज्ञानिक अनुसन्धान के सन्दर्भ में यह तथ्य जान लिया गया है की उस समय हरियाना दिल्ली और पशिमी उत्तर प्रदेश में शौरसेनी अपभ्रंश की प्रधानता थी /अपभ्रंश का कोई एक ब्यवस्थित रूप नहीं होता निश्चय ही प्रत्येक अपभ्रंश में गौण प्रादेशिक बोलियाँ भी सन्निहित रही होंगी ,जिन्हों ने सम्बंधित प्रदेश की बोलियों को जन्म दिया होगा /हमें पता है की ब्रज भाषा की परम्परा अकबर से भी पहले की है और अकबर के काल में ब्रज भाषा में कृष्ण भक्तिअवधि में राम भक्ति की रचनाएँ हो रही थींतुलसी और सूर दो महँ रचना कर लिख रहे थे तो अबुल फजल के कथन में शुद्धता का अभाव दिखता है/ यही दिल्ली के आस पास की बोलियों की होगी जो आगे चल कर खड़ी बोली कहलाईं .....शेष काल ..अब कुछ मुकरियां
१६-एक नार है घेर घुमेली भीतर वाके लकड़ी मैली
फिरा करे चलने की आन उसकी इसमें बूझ आ सान /
१७ -बंद किये से निकला जाय छोड़ दिए से जावे आय
मूरख को देही नहीं सूझे ज्ञानी हो एक दम में बूझे /
१८-नर नारी में कुश्ती है कुश्ती है बे पुश्ती है
बूझ पहेली जो कोई जाये बैकुंठे में बासा पाए /
१९-जिसके पैरों वा पड़ी उसका जी घबराय ,
बहुत दुखों से कदम उठे ,रह न निबडी जाय /
२०-सागर बासा भोजन रक्त फूल रहत है क्यों
सीस छेद जबदह लिया फिर वह ज्यों की त्यों /
२१- ओ पक्षी है जगत में जो बसत भुइं से दूर
रैन को उसको बीना देखा दिन में देखा सूर /
(सान ,दम ,रूह ,बेदी ,जोंक ,चम्गादर )
आज के लिए इतना पर्याप्त है ..शेष फिर काल ..तब तक आनंद लीजिये ....

Wednesday 8 February 2012

अमीर खुसरो (३)

मित्रों ,आज कल से आगे .कल तक कुल 10 मुकरियां हो चुकीं हैं
अमीर खुसरो के नाम से जिस हिंदी उर्दू या हिन्दुस्तानी काब्य को जोड़ा जाता है उसके बारे में पहला सवाल यह उठता है की उसे कौन सी संज्ञा दी जाय क्यों की हिंदी उर्दू हिन्दुस्तानी का वर्तमान भाषिक अर्थ तेरहवीं शताब्दी में नहीं था ग्रियर्सन ने पूर्वी हिंदी और पश्चिमी हिंदी का जो विभाजन और शब्दावली निर्माण बिहार से पंजाब तक के भारतीय आर्य बोलियों के वर्गीकरण के लिए किया था उसे अमीर खुसरो की भाषा पर चस्पा कर देना ठीक नहीं /क्यों की एक तो यह शब्दावली मात्र है ,इस नाम की कोई भाषा या बोली नहीं है दूसरे उसकी संकल्पना भी बहुत बाद की है ,खड़ी बोली ,ब्रज ,हरियाणवी के नाम भी बाद में ही प्रचलित हुए .उस काल की बोलियों के नाम मध्य युग श्रोतों से जो भी प्राप्त है दोष युक्त या अधूरे है ,लेखकों ने उन्ही बोलियों के नाम का उल्लेख किया है जिन्हें वे जानते थे जिनके प्रदेशों से परिचित थे ,१५ वीं शदी के अंत में शेख बहाउद्दीन वाजन की भाषा "जबान- ये -देहलवी'कहलाती थी/ १६ वीं शदी में अबुल फजल ने, आईन-ये-अकबरी में हिंदी की केवल दो भाषा देहलवी और मारवाड़ी (राजस्थानी) का उल्लेख किया है जाहिर है इनके आलावा और भी बहुत सी बोलियाँ थीं...जिनकी चर्चा बाद में करेंगे .............. ..अब कुछ मुकरियां .इसी तरह रोज थोडा विवेचन .कुछ मुकरियां ....
11-माथे वाके छेक है और चरण थूर कर यहांव
बहियन पर छाती टिकी रहे और पीठ पर वाके पांव /(चोली)
१२-सर बल जावे नारी एक छोटी ऊपर छोटी देख
सीना व का सब को भावे सभी जगत के कम में आवे/ (सोजन )
१३-भूके प्यासे आते हैं वो बुजुर्ग क्यों कहलाते हैं
फ़िक्र से उनको मुंह में रखे बैकुंठो में भोजन चखे/ (रोजा )
१४-आई थी भोजन करन भोजन हो गई आप
पिछलों से कहती गई की भोजन नहीं यह पाप /
१५-भोजन था सो जल गया और या में मीन न मेख
छेड़ छाड़ जाती रही सो कांता खटकत देख/ (१४/१५ बंसी -ओ -माही)
बस आज इतना ही .कल फिर .क्रमशः जरी रहेगा ...

Tuesday 7 February 2012

अमीर खुसरो (२)

अमीर खुसरो (२)
मित्रों कल मैंने अमीर खुसरो की चार मुकरियां पेस्ट की थीं कुछ मित्रों ने कहा हम प्रतीक्षा करेंगे / विमलेन्दु ने लिखा निकालिए अनमोल रतन /आज दूसरी कड़ी ,
मित्रों अमीर खुसरो के नाम से जो भी हिन्दी काब्य में प्रचलित है वह जन श्रुति का हिस्सा है कोई लिखित प्रमाण नहीं है /अवध के शाही पुस्तकालय में खुसरो की कुछ पांडुलिपियाँ सुरक्षित थीं /उनके हिंदी काब्य पर पहला लेख १८५२ में जर्नल ऑफ़ एसियाटिक सोसाइटी बंगाल ने प्रकाशित किया था ...इस प्रस्तुति का मूल आधार वही लेख है ...
पहेली /मुकरी ....
५)जल का उपजा देखा जल में, कांटे हैं वाके कल कल में
गीला हो तो हाट बिकाय,सूखे से कई कम आये /(सिंघाड़ा )
६)दो नर में है एक ही नार, यही रहें हैं सबके द्वार
दो नार से वह नारी जूझे, जब जानो जब चट पट बूझे/ (कुंडा /सांकल )
७)एक नारी में जब नार जाय, कला मुंह कर उलटा आय
छाती घाव अपनी सहे, मन के वचन पर आय कहे/ (दावत -कलम )
८)कला मुंह कर जग दिखलावे, भूला बिसरा याद दिलावे
रैन दिना चातर गम खाता, मूरख को लेखा नहीं आता /(खाता बही कलम )
9)मुंह से उगले मुंह से खाय ,मुंह से मुंह को लगाती जाय
ठोक बदन कहलाती है, हर दम में बन चलती है /(तुफंग अर्थात प्रक्षिप्त )
१०)बिलक बिलक भोजन करे, और कास कास में बीठ
जनवर है पर जो नहीं लेत सवारी पीठ ( ढेंकुली )
खुसरो की पहेलियों .का संग्रह खालिक बरी के नाम से प्रचलित है किन्तु इसके भाषिक तथा कलात्मक दोष के कारन कुछ लोग इसे खुसरो की कृति नहीं मानते /खुसरो प्रतिभा शाली बुद्धि मान और हिन्दवी की बोलियों ठोलियों में रचे बसे थे अरबी फ़ारसी में निष्णात थे इन्हें हिन्दवी -तथा अरबी फ़ारसी शब्दों के अलंकारिक अर्थ सम्बन्ध जोड़ने में दक्षता प्राप्त थी /क्रमशः ......

आज अमीर खुसरो की मुकरियां

आज अमीर खुसरो की मुकरियां ;
देवनागरी में लिखना शुरू करने वाला पहला फकीर
इस भाषा को उस ज़माने में /आज भी हिन्दवी नाम से पुकारते है
खुसरो हैदराबाद चले गए थे वंही लिखते थे
इस लिए आज लोग इसे दक्खिनी के नाम से पुकारते हैं
१)गुप्त घाव तन में लगे और जिया रहत बेचैन
ओखत (औषधि )खाय दुःख बढे सो करो सखी कुछ बैन
२)दिल का तो दुम्बल(फोड़ा)भया और नैनं का नासूर
जो ओखत से दुःख कटे तो मै भी करूं जरूर (दोनों का उत्तर -इश्क (प्रेम )
३)अपने समय में इक नार आय
तुक देखे और फिर छुप जाय
बूझ के उठियो कसम है तुम पर
आग बिना उजियारा दुम पर (जुगुनू )
४)फूल तो वा का ओखद सहाय
फल सब जग के कम में आय
उजड़ी खेती जावे नास
जब देखो जब पास का पास (कपास)
५)ठौर नीर पर होत है और भीतर के जल जाय
हांथी घोडा ऊंट शलीता वाही के बल जांय (पुल )
यह है हिंदी का प्रारंभिक रूप जो अमीर खुसरो ने शुरू किया .हिट होगया था आप को कैसा लगा जरूर लिखिए ....मेरा मन सीरीज में लिखने का है

Monday 6 February 2012

इसके किस्से ,सपने मेरे अपने हैं

आज कई दिनों बाद लौटा हूँ घर
मेरा घर लौट आया है मुझमे
यह घर जो मेरा है ,जो मेरा नहीं है
इसकी दीवारों पर लिखी हर इबारत मेरी है
इसके आगन की हर कहानी मेरी है ,
हर किस्सा मेरा है ,
रोशन दानो से झांकते हर सपने मेरे हैं
फिर भी घर मेरा नहीं है /
मेरा घर मुझसे लिपट कर बताता है
अपनी बदहाली के किस्से ,
समझाने की कोशिस करता है की
कैसे कैसे उलझनों में उलझ गया है
इन दिनों , मेरा घर परेशान है
वह बताता है कैसे कोई चुपके से कुतर गया है
रिश्तों की दीवारों को , दरारें सुनाती हैं
षड्यंत्रों की फुसफुसाहट ,बदहाल है मेरा घर
वह ढूंढता है मेरी आँखों में सहानुभूति अपने लिए ,
कहना चाहता है कुछ, बहुत कुछ ,
हार कर बैठो मत ,लड़ना है
अपने हिस्से का महाभारत ,
अभी भी बहुत कुछ बचा है बचाने को
इस दौर में भी /मेरा घर परेशान है
घर जो मेरा है ,जो मेरा नहीं है परन्तु
इसके किस्से ,सपने मेरे अपने हैं /

Friday 3 February 2012

सागर के सूजे लिजलिजे

सागर के सूजे लिजलिजे

हलके सिरहाने पर सिर धरे

रो रहा है अपनी नियति पर सूर्य /

दिन दिन भर खारे पानी को चाटती

बालू के लहरों के मांसल गदराये अंगों पर

तीब्र वासना की अंगुलियाँ फेर फेर

हांथों से छू छू कर निश्चेष्ट श्लथ थकी हारी दूर...

वह जो सामने नारियल पर जा कर औंधा मुह किये
उलटी टंग गयी हवा !
संज्ञा शून्य इंजक्सन आकर रात ने कोंच दिया मार्फिया का
बीज जो अँधेरे के इधर उधर छितराए सभी उग आये
डर से बदनामी के उजाला छपाक ..
पानी में कूद आत्म हत्या कर मर गया
उस नारियल के पीछे जरा ऊपर
आसमान में लटकता मांस का लोथड़ा
कचर कच कचा कच कच कच चबाता भेड़िया
क्षितिज के गह्वर में कंही खो गया.....!!

समाप्त हो गया उसका भय

बे तरतीब आदम कद
बबूल और झरबेरियों के
घने जंगल
वह भाग रही है
पैरों को सर पर धरे
घंटों घडियालों की चीख पुकार
और अजान की आवाज
उसका पीछा कर रहे हैं
भागती रही वह बेतहाशा ..आधी रात को
बहुत से घंटों की चीख बहुत से घडियालों की पुकार
बहुत सी अजानो की आवाज
कुछ और चीख कुछ और पुकार
कुछ और अजान की आवाज
उसका पीछा कर रहे थे ,
पैरों और भुजाओं से लहू बहता रह
लड़की हांफ रही थी ,
फिर वह लड़खड़ाई और गिरी ..
समाप्त हो गया उसका भागना
समाप्त हो गया उसका भय ....!!