Thursday 28 January 2016

अंग्रेजों के यार आज सबसे बड़े देशभक्त बन गए


अंग्रेजों के यार आज सबसे बड़े देशभक्त बन गए



जब नेताजी और पं. नेहरू गोरों की सरकार के खिलाफ गोलबंदी कर रहे थे,तब आप कहाँ थे मिस्टर स्वयंसेवक ?

आजादी की लड़ाई में नाखून तक नहीं कटाने वाले आज सबसे बड़े देशभक्त बन गए हैं।

आजादी की लड़ाई में नाखून तक नहीं कटाने वाले आज सबसे बड़े देशभक्त बन गए हैं। इस मुल्क के लिए इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है?
 बात खुद के तमगे तक होती तो कोई बात नहीं थी लेकिन इन लोगों ने अब बाकायदा देशभक्ति की सर्टिफिकेट भी बांटनी शुरू कर दी है। इसके लिए देशभक्ति का खजाना ना सही लेकिन चंद खोटे सिक्के तो अपनी जेब में होने ही चाहिए। इसी लक्ष्य से इन्होंने नेता जी सुभाष चंद्र बोस और जवाहर लाल नेहरू को चुना है। और फिर दोनों के बीच फर्जी तरीके से दरार पैदा करने की कोशिश की जा रही है। यह कुछ और नहीं बल्कि राष्ट्रभक्ति में अपनी साझेदारी दिखाने की उसी कोशिश का हिस्सा है।
बोस और नेहरू के बीच के इन मूसरचंदों से यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि जब नेताजी देश से बाहर रहकर अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला रहे थे। और नेहरू कांग्रेस की अगुवाई में न एक भाई, न एक पाई के नारे के साथ गोरों की सरकार के खिलाफ गोलबंदी कर रहे थे। तब ये और इनके हमराह कहां थे और वो क्या कर रहे थे?

श्यामा प्रसाद मुखर्जी उस समय मुस्लिम लीग के साथ मिलकर अंग्रेजों की छत्रछाया में बंगाल में सरकार चला रहे थे।

इनके झूठ, भ्रम और अफवाह की आंधी में बहने से पहले दो मिनट ठहरकर सोचने की जरूरत है। इनके सबसे बड़े नेता और नेहरू के नेतृत्व वाली अंतरिम कैबिनेट के सदस्य श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जिनकी भगीरथी चोटी से बीजेपी निकली है। उस समय मुस्लिम लीग के साथ मिलकर अंग्रेजों की छत्रछाया में बंगाल में सरकार चला रहे थे। मुस्लिम लीग के नेता फ़जलुल हक़ सूबे के मुख्यमंत्री थे और मुखर्जी साहब उप मुख्यमंत्री।
इसी तरह से सिंध और उत्तर पश्चिम फ्रंटियर प्रांत (एनडब्ल्यूएफपी) में भी इसी गठबंधन की सरकारें थीं। सिंध में तो पहले अल्लाह बख्श की सरकार थी। इत्तेहाद पार्टी के नेतृत्व में गठित इस सेकुलर सरकार में हिंदू, मुस्लिम और सिख सभी शामिल थे। लेकिन अंग्रेजों की मदद से मुस्लिम लीग के गुंडों ने 1943 में अल्लाह बख्श की हत्या कर दी। फिर उसके बाद सिंध में मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के गठबंधन की संयुक्त सरकार बनी। उस समय दक्षिणपंथी खेमे के सबसे बड़े वीर वीर सावरकर ने इसे व्यावहारिक राजनीति की जरूरत करार दिया था। सावरकर उस समय हिंदू महासभा के अध्यक्ष थे।

अंग्रेजी सेना में सैनिकों की भर्ती के लिए हिंदू महासभा ने बाकायदा कैंप लगवाए थे

अंग्रेजों से इनकी यारी यहीं तक महदूद नहीं थी। अंग्रेजी सेना में सैनिकों की भर्ती के लिए हिंदू महासभा और उसके मुखिया ने बाकायदा जगह-जगह भर्ती कैंप लगवाए थे। फिर इन्हीं जवानों को उत्तर-पूर्व के मोर्चे पर सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व वाले आईएनए के सैनिकों का सीना छलनी करने के लिए भेजा जाता था। सावरकर ने तब कहा था कि
जापान के द्वितीय युद्ध में शामिल होने से हम सीधे ब्रिटेन के शत्रुओं की जद में आ गए हैं। नतीजतन हम पसंद करें या ना करें युद्ध की विभीषिकाओं की चपेट में आने से हमें अपनी मातृभूमि को बचाना होगा। और यह भारत की रक्षा की दिशा में भारत सरकार (तब ब्रिटिश सरकार) के प्रयासों को तेज करने के जरिये ही संभव है। इसलिए हिंदू महासभा को खासकर बंगाल और असम के हिंदुओं को सैन्य बलों में शामिल होने के लिए प्रेरित करने की जरूरत है। [ वी डी सावरकर, समग्र सावरकर वांगमय: हिंदू राष्ट्र दर्शन, खंड 6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदू महासभा, पुणे, 1963, पेज-460 ]
 इन तथ्यों के बाद कम से कम बीजेपी-आरएसएस या फिर किसी भी दक्षिणपंथी संगठन को इस मसले पर बोलने का कोई नैतिक अधिकार नहीं रह जाता है। इस मामले में किसी तथ्य पर आधारित आलोचना की गुंजाइश न होने पर अब इन्हें झूठ और अफवाहों का सहारा लेना पड़ रहा है। दरअसल नेताजी से जुड़ी 100 फाइलों के सार्वजनिक होने के बाद भी उन्हें नेहरू के खिलाफ कुछ नहीं मिला। फाइलों के पहाड़ से कुछ नहीं मिला तो अब फर्जी चिट्ठी तैयार की गई है। इसी के सहारे काम चलाया जा रहा है। लेकिन इसका भी पर्दाफाश हो गया है। इसलिए नेताजी और नेहरू के बारे में बात करने से पहले संघ और बीजेपी को एक बार अपने गिरेबान में जरूर झांक लेना चाहिए। क्योंकि एक अंगुली अगर कोई उठाता है तो चार खुद पर भी उठ रही होती हैं।
महेंद्र मिश्र, लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
महेंद्र मिश्र, लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। 

भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ गवाही देने वाले संघी थे ????

भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ गवाही देने वाले संघी थे ????
भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ गवाही देने वाले संघी थे ????
बहुत अच्छी जानकारी है कृपया ध्यान से पढ़ें .
󾮜ये है देश के दो बड़े महान देशभक्तों की कहानी....
󾮜जनता को नहीं पता है कि भगत सिंह के खिलाफ विरुद्ध गवाही देने वाले दो व्यक्ति कौन थे । जब दिल्ली में भगत सिंह पर अंग्रेजों की अदालत में असेंबली में बम फेंकने का मुकद्दमा चला तो...
󾮜 भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ शोभा सिंह ने गवाही दी और दूसरा गवाह था शादी लाल
- See more at: http://mcci.org.in/article.php?id=71686#sthash.NE9bZ98A.dpuf दोनों नाथूराम गोड्से की तरह आरएसएस से जुड़े थे और दोनों को वतन से की गई इस गद्दारी का 1977 की जनता पार्टी सरकार बनाने पर इनाम भी मिला। दोनों को न सिर्फ सर की उपाधि दी गई बल्कि और भी कई दूसरे फायदे मिले।
󾮜 शोभा सिंह को दिल्ली में बेशुमार दौलत और करोड़ों के सरकारी निर्माण कार्यों के ठेके मिले आज कनौट प्लेस में सर शोभा सिंह स्कूल में कतार लगती है बच्चो को प्रवेश नहीं मिलता है जबकि
󾮜 शादी लाल को बागपत के नजदीक अपार संपत्ति मिली। आज भी श्यामली में शादी लाल के वंशजों के पास चीनी मिल और शराब कारखाना है।
󾮜 सर शादीलाल और सर शोभा सिंह, भारतीय जनता कि नजरों मे सदा घृणा के पात्र थे और अब तक हैं
󾮜 लेकिन शादी लाल को गांव वालों का ऐसा तिरस्कार झेलना पड़ा कि उसके मरने पर किसी भी दुकानदार ने अपनी दुकान से कफन का कपड़ा तक नहीं दिया।
󾮜 शादी लाल के लड़के उसका कफ़न दिल्ली से खरीद कर लाए तब जाकर उसका अंतिम संस्कार हो पाया था।
󾮜शोभा सिंह खुशनसीब रहा। उसे और उसके पिता सुजान सिंह (जिसके नाम पर पंजाब में कोट सुजान सिंह गांव और दिल्ली में सुजान सिंह पार्क है जिसका उदघाट्न बीजेपी के ही मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा ने किया था इसके अलावा दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में हजारों एकड़ जमीन मिली और खूब पैसा भी।
󾮜 शोभा सिंह के बेटे खुशवंत सिंह ने शौकिया तौर पर आरएसएस के मुखपत्र पांजन्य में पत्रकारिता शुरु कर दी और बड़ी-बड़ी हस्तियों से संबंध बनाना शुरु कर दिया।
󾮜सर शोभा सिंह के नाम से एक चैरिटबल ट्रस्ट भी बन गया जो अस्पतालों और दूसरी जगहों पर धर्मशालाएं आदि बनवाता तथा मैनेज करता है। 󾮜 आज दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास बाराखंबा रोड पर जिस स्कूल को मॉडर्न स्कूल कहते हैं वह शोभा सिंह की जमीन पर ही है और उसे सर शोभा सिंह स्कूल के नाम से जाना जाता था।
󾮜 खुशवंत सिंह ने अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर अपने पिता को एक देशभक्त दूरद्रष्टा और निर्माता साबित करने की भरसक कोशिश की।
󾮜 खुशवंत सिंह ने खुद को इतिहासकार भी साबित करने की भी कोशिश की और कई घटनाओं की अपने ढंग से व्याख्या भी की।
󾮜 खुशवंत सिंह ने भी माना है कि उसका पिता शोभा सिंह 8 अप्रैल 1929 को उस वक्त सेंट्रल असेंबली मे मौजूद था जहां भगत सिंह और उनके साथियों ने धुएं वाला बम फेंका था।
󾮜 बकौल खुशवंत सिह, बाद में शोभा सिंह ने यह गवाही दी, शोभा सिंह 1978 तक जिंदा रहा और दिल्ली की हर छोटे बड़े आयोजन में वह बाकायदा आमंत्रित अतिथि की हैसियत से जाता था।
󾮜 हालांकि उसे कई जगह अपमानित भी होना पड़ा लेकिन उसने या उसके परिवार ने कभी इसकी फिक्र नहीं की।
󾮜 खुशवंत सिंह का ट्रस्ट हर साल सर शोभा सिंह मेमोरियल लेक्चर भी आयोजित करवाता है जिसमे आरएसएस और बीजेपी के बड़े-बड़े नेता और लेखक अपने विचार रखने आते हैं, और...
󾮜 बिना शोभा सिंह की असलियत जाने (य़ा फिर जानबूझ कर अनजान बने) उसकी तस्वीर पर फूल माला चढ़ा आते हैं
󾮜आज़ादी के दीवानों क विरुद्ध और भी गवाह थे ।
1. शोभा सिंह 2. शादी राम 3. दिवान चन्द फ़ोर्गाट 4. जीवन लाल 5. ....... देश के एक पूर्व प्रधानमन्त्री( जो एक कवि थे )
कितने बेशर्म है बीजेपी वाले आजादी की लड़ाई में किसी का कोई योगदान नहीं ऊपर से यह गद्दारी फिर भी देशभक्ती का ऐसा स्वांग रचते है के पूछो नहीं

गुरू गोलवलकर और आरएसएस का राष्ट्रवाद

आर एस एस की विचारधारा को परिभाषित करने का काम किया था उसके द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने। हेडगेवार ने अपनी मृत्यु (21 जून, 1940) के वक्त उन्हें आरएस एस का पूरा भार सौंपा था। आर एस एस का कोई संविधान तो था नहीं, इसीलिए प्रथम सरसंघचालक की इच्छा को ही सर्वोपरि मान कर गोलवलकर को आर एस एस का सर्वोच्च अधिकारी बना दिया गया था। यह सच्चाई है कि जबसे गोलवलकर नागपुर आकर संघ में शामिल हुए तभी से आर एस एस का नागपुर के बाहर भी फैलाव शुरू हुआ और हेडगेवार में तको के जरिए अपने विचार को रखने की जिस सामथ्र्य का अभाव था, गोलवलकर ने उसे काफी हद तक पूरा करने की कोशिश की। इसीलिए आर एस एस की विचारधारा को जानने के लिए, उनकी प्रेरणा के मूल स्रोतों को समझने के लिए गोलवलकर का लेखन ही सबसे प्रामाणिक माना जा सकता है।
हेडगेवार की मृत्यु के वक्त गोलवलकर आर एस एस के सरकार्यवाहक (महासचिव) थे। सन् 1939 में हेडगेवार ने इसकी घोषणा की थी। आर एस एस के लोग हेडगेवार और गोलवलकर के सम्बनों की तुलना रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द के सम्बनों से किया करते हैं। सरसंघचालक बनने के बाद गोलवलकर ने ही अपने पहले भाषण में हेडगेवार की उन पर कृपा को परमहंस की विवेकानन्द पर हुई कृपा के सादृश्य बताया था। (प्र.ग. सहस्रबुद्धे, श्री गुरू जी : एक जीवन यज्ञ, पृ. 5)
19 फरवरी, 1906 को नागपुर में जन्मे माधवराव गोलवलकर ने 1928 में प्राणिशास्त्र में एम एस सी की परीक्षा पास की। फिर 1930 में कुछ अर्से के लिए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हुए और वहीं उनका सम्बन आर एस एस के एक और संस्थापक सदस्य प्रभाकर बलवंत दाणी (भय्या जी दाणी) से हुआ। बनारस में ही उनकी मुलाकात हेडगेवार से भी हुई थी और हेडगेवार ने उन्हें नागपुर में आर एस एस की शाखा देखने का निमंत्रण दिया। इस प्रकार 1931 के जमाने से गोलवलकर आर एस एस से जुड़ गए थे। बनारस में तीन साल रहने के बाद गोलवलकर अपने पिता के साथ रहने के लिए नागपुर आ गए तथा वहीं उन्होंने लॉ कॉलेज में दाखिला भी ले लिया। उनकी इच्छा वकालत करके जीवन यापन करने की थी। दो वषो तक उन्होंने वकालत की भी। लेकिन वकालत में सफलता न मिलने पर वे हेडगेवार की शाखा से गहराई से जुड़ गए। हेडगेवार ने उनकी मदद से ही आर एस एस को महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों में फैलाने का काम शुरू किया। इसीलिए गोलवलकर के विचारों को आर एस एस की मूलभूत विचारधारा माना जा सकता है।
आर एस एस की गीता
गोलवलकर ने 1939 में अपनी पहली शायद एकमात्र, किताब लिखी : ’’वी आर आवर नेशनहुड डिफाइण्ड‘। बाद में ’’बंच ऑफ थाट्स‘ के नाम से उनके भाषणों आदि का एक संकलन तथा 6 खण्डों में ’’श्री गुरु जी समग्र दर्शन‘ भी प्रकाशित हुए हैं। लेकिन योजनाबद्ध ढंग से उन्होंने खुद यह अकेली किताब लिखी थी। उनकी अन्य पुस्तकें दूसरे लोगों ने बिखरी हुई सामग्री को संकलित करके तैयार की। मजे की बात है कि आर एस एस ही उनकी इस इकलौती किताब को अब प्रकाशित नहीं करता है। एक समय था जब संघियों के लिए गोलवलकर की ’’वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड‘, गीता के समान थी। अमरीकी शोधार्थी करान ने इस किताब को आर एस एस के सिद्धान्तों की मूल पुस्तक बताते हुए लिखा था कि ’’इसे आर एस एस की ‘बाइबिल’ कहा जा सकता है। संघ के स्वयंसेवकों को दीक्षित करनेवाली यह पहली पाठ्य पुस्तिका है।‘ (जे.ए. करान, पूर्वोक्त, पृ. 28)
गोलवलकर ने यह पुस्तक बाबूराव सावरकर की पुस्तक ’’राष्ट्र मीमांसा‘ (मराठी) से प्रेरणा लेकर लिखी थी। इसे खुद उन्होंने भी पुस्तक की भूमिका में स्वीकारा है। (देखिए, ’’एम.एस. गोलवलकर, वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड,‘ पृ. 4) गोलवलकर ने ही ’’राष्ट्र मीमांसा‘ का अंग्रेजी अनुवाद भी किया था। लेकिन जब से आर एस एस के आलोचकों ने आर एस एस को हिटलर और मुसोलिनी के ’’तुफानी दस्तों‘ की तरह के संगठन के रूप में सही पहचान लिया तथा इस ओर इशारा किया जाने लगा, तब से खुद गोलवलकर ने ही इस किताब का प्रकाशन बन्द करवा दिया। इसकी वजह यह रही कि इस पुस्तक में गोलवलकर ने खुलकर हिटलर और मुसोलिनी के प्रति अपने झुकाव को जाहिर किया था।
सन् 1939 में जब यह पुस्तक लिखी गई, दुनिया में नाजियों और फासीवादियों के बढ़ाव के दिन थे। बहुतों को यह भ्रम था कि आनेवाले दिनों में दुनिया पर उन्हीं (फासीवादियों) के विचारों की तूती बोलेगी। गोलवलकर और हेडगेवार भी उन्हीं लोगों में शामिल थे। गोलवलकर ने इसी विश्वास के बल पर आर एस एस के विचारों के सारी दुनिया में नगाड़े बजने की बात कही थी। गोलवलकर के संघी जीवनीकार सहस्त्रबुद्धे ने गोलवलकर की बात को उद्धृत किया है कि ’’लिख लो, आज साम्यवाद, समाजवाद आदि के नगाड़े बज रहे हैं। परन्तु संघवाद के सम्मुख ये सब निष्प्रभ सिद्ध होंगे।‘ (पूर्वोक्त, पृ. 30)
गोलवलकर की यह पुस्तक 1939 में प्रकाशित हुई और इसी वर्ष हेडगेवार ने उन्हें आर एस एस का सरकार्यवाहक घोषित किया था। इससे जाहिर है कि इस पुस्तक में व्यक्त गोलवलकर के विचारों से हेडगेवार सिर्फ पूरी तरह सहमत ही नहीं थे, बल्कि वास्तव अथो में वे खुद इस पुस्तक को ही आर एस एस की विचारधारा की मूल पुस्तक मानते थे। एम.एन काले ने अपनी किताब ’’द मोस्ट रेवर्ड डॉ. हेडगेवार‘ (परम पूजनीय डॉ. हेडगेवार) में लिखा है कि हेडगेवार अपने प्रशिक्षण शिविरों में अपने अनुयायियों को यही बताया करते थे कि हिन्दुस्तान हिन्दुओं का है। ’’इंग्लैण्ड अंग्रेजों का, फ्रांस फ्रेंच लोगों का, जर्मनी जर्मनों का तथा इन देशों के लोग गर्व के साथ यह बात कहते हैं।‘ (पृ. 40) गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ’’वी‘ में भी इसी विचार को प्रतिपादित किया है।
सिर्फ 77 पृष्ठों की इस पुस्तक को वास्तव में एक ’’पैम्फलेट‘ कहा जा सकता है। इसके लिखने का ढंग भी ऐसा ही है जिसमें बहुत प्रमाणों के साथ अपनी बात कहने की कोई कोशिश नहीं की गई है। ’’राष्ट्र‘ के बारे में विश्व स्तर के विद्वानों के कुछ कथनों की चर्चा से विषय को उठाया तो गया है, लेकिन सबकी बातों को मनमाने ढंग से तोड़-मरोड़ कर नस्लवाद को ही राष्ट्रवाद का पर्याय बताते हुए नस्लवादी चेतना के विकास की तारीफ की गई है और हिटलर के सुर में सुर मिलाकर यह साफ ऐलान किया गया है कि अन्य सभी छुद्र नस्ल के लोगों को श्रेष्ठ नस्ल की (अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की) गुलामी स्वीकार करनी होगी, तथा अपनी स्वतंत्र सत्ता को गँवाकर उनमें मिल जाना होगा। इसमें हिटलर द्वारा यहूदियों के साथ किए गए सलूक की तारीफ करते हुए उसे भारत के लिए एक अच्छा सबक बताया है।
‘राष्ट्र’ की विकृत व्याख्या
गोलवलकर ने अपनी इस किताब में मनमाने ढंग से ’’राष्ट्र‘ की परिभाषा करते हुए लिखा है कि इसका संगठन ’’पाँच प्रसिद्ध इकाइयों के मिश्रण से होता है, वे हैं : भौगोलिक (देश), नस्ली (नस्ल), धार्मिक (धर्म), सांस्कृतिक (संस्कृति) तथा भाषायी (भाषा) और इनमें से एक भी नष्ट होने का अर्थ है राष्ट्र के रूप में राष्ट्र की समाप्ति।‘ (पृ. 33)
इस प्रकार उन्होंने नस्ल और धर्म को राष्ट्र के अभिन्न तत्त्व के रूप में गिनाकर हिटलर और मुसोलिनी के नस्ल तथा खुद की साम्प्रदायिकता की अवधारणा को राष्ट्रीयता का आधार बताने की जमीन तैयार कर ली और उसके बाद राष्ट्रवाद के नाम पर साम्राज्यवादी लूट औेर हिंसा की प्रशंसा में, जर्मनी में हिटलर की करतूतों की तारीफ में लम्बा लेख लिख डाला। इंग्लैण्ड द्वारा सारी दुनिया में अपने साम्राज्य को फैलाने की कोशिशों का भी इसी तर्क पर उन्होंने समर्थन किया था।
गोलवलकर ने लिखा : ’’आज हम जिस राष्ट्र के सबसे अधिक सम्पर्क में हैं, वह है इंग्लैण्ड और इसे ही हम सबसे पहले अययन का विषय बनाएँगे। जहाँ तक देश और नस्ल का प्रश्न है यह इतना स्थापित सत्य है कि राष्ट्र की अवधारणा में इसके महत्त्व पर कोई भी प्रश्न नहीं उठाता। संस्कृति भी इसी श्रेणी में पड़ती है। यह इसलिए बदनाम भी है कि प्रत्येक राष्ट्र भारी ईष्र्या के साथ इसकी रक्षा करता हुआ पाया जाता है और अपनी संस्कृति कोश्रेष्ठ बनाए रखता है। जिस बात को लेकर गुत्थी है वह है धर्म को लेकर तथा कुछ हद तक को भाषा को लेकर। खासतौर पर आज जब जनतांत्रिक राज्य इस बात की गर्वोक्ति किया करते हैं कि उन्होंने धर्म से अपने को अलग कर लिया है तब धर्म के विषय में और भी ज्यादा सावाधनी से जाँच की आवश्यकता है। क्या इंग्लैण्ड किसी राजकीय धर्म पर विश्वास करता है? इसका उत्तर सीधे तौर पर हाँ के सिवा और कुछ नहीं हो सकता क्योंकि अन्यथा क्यों यह जरूरी माना जाता है कि इंग्लैण्ड का सम्राट प्रोटेस्टेंट मतावलम्बी ही होना चाहिए? क्यों इंग्लैण्ड के चर्च के तमाम पादरियों को राजकीय खजाने से पैसे दिए जाते हैं।...जहाँ तक भाषा का प्रश्न है, सभी स्वदेशी भाषाओं की हत्या करके विजित नस्लों पर अपनी ’’राष्ट्रीय‘ भाषा अंग्रेजी को आरोपित करने का इतना गर्व है कि वे उसे सारी दुनिया की सम्पर्क भाषा बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। इस प्रकार इंग्लैण्ड के राष्ट्र संबंधी विचार का सिद्धान्त के साथ व्यावहारिक स्तर पर पूरी तरह मेल बैठता है।‘ (वही पृ. 33-34)
इस प्रकार, अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता की स्थापना के लिए ’’ईष्र्यापूर्ण‘ कार्रवाइयों, धर्म और दूसरी भाषाओं पर अपनी भाषा को लादने के बारे में इंग्लैण्ड के उदाहरण से गोलवलकर ने राष्ट्रीयता संबंधी अपनी अवधारणा के मूल तत्त्वों को गिना दिया और बताया कि इस प्रकार की जोर-जबर्दस्ती ही सच्ची राष्ट्रीयता के लक्षण हैं। इसके बाद ही उन्होंने हिटलर के जर्मनी, उसके विस्तारवाद तथा उसके पैशाचिक नस्लवाद की तारीफ करके हत्या, दमन, सैन्यीकरण तथा अन्य धर्मों, नस्लों को पशु-बल से कुचले जाने की प्रशंसा की और धर्म से अलग होने के जनतांत्रिक राज्य के दावे का उपहास करके आर एस एस की घनघोर अमानवीय और हत्यारी कार्यपद्धति और साम्प्रदायिक तानाशाही की विचारधारा की आाधरशिला रखी।
हिटलर के जर्मनी का गुणगान
जर्मनी के बारे में गोलवलकर ने लिखा : ’’आज दुनिया की नजरों में सबसे ज्यादा जो दूसरा राष्ट्र है वह है जर्मनी। यह राष्ट्रवाद का बहुत ही ज्वलन्त उदाहरण है। आधुनिक जर्मनी कर्मरत है तथा वह जिस उद्दंश्य में लगा हुआ है उसे काफी हद तक उसने हासिल भी कर लिया है। पुरखों के समय से जो भी जर्मनों का था लेकिन जिसे राजनीतिक विवादों के कारण अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग देशों के रूप में बाँट दिया गया था, उसे फिर उन्होंने अपने आीन कर लिया है। उदाहरण के लिए आस्ट्रिया सिर्फ एक प्रान्त भर था, जैसे प्रुशिया, बवारिया तथा अन्य कई प्रान्त हैं जिन्हें मिलाकर जर्मन साम्राज्य बना था। तर्क के अनुसार आस्ट्रिया एक स्वतंत्र देश नहीं होना चाहिए था, बल्कि उसे बाकी जर्मनी के साथ ही होना चाहिए था। इसी प्रकार के क्षेत्र हैं जिनमें जर्मन बसते हैं, जिन्हें युद्ध के बाद नए चेकोस्लोवाकिया राज्य में मिला दिया गया था। पितृभूमि के प्रति जर्मन गर्वबोध, जिसके प्रति उस जाति का परम्परागत लगाव रहा ह,ै सच्ची राष्ट्रीयता का जरूरी तत्त्व है। आज वह राष्ट्रीयता जाग उठी है तथा उसने नए सिरे से विश्व युद्ध छेड़ने का जोखिम उठाते हुए अपने ’’पुरखों के क्षेत्र‘ पर एकजुट, अतुलनीय, विवादहीन, जर्मन साम्राज्य की स्थापना की ठान ली है। जर्मनी की यह स्वाभाविक तार्किक आकांक्षा अब प्राय: परिपूर्ण हो गई है तथा एक बार फिर वर्तमान काल में राष्ट्रीयता में ’’देशवाले पहलू‘ का अतीव महत्त्व प्रमाणित हो गया है।‘ (गोलवलकर, पूर्वोक्त, पृ. 34-35)
गोलवलकर अब अपने राष्ट्रीयता संबंधी विचार के दूसरे तत्त्व ’’जाति‘ (रेस) की महत्ता को हिटलर के ही उदाहरण से स्थापित करते हैं। वे लिखते हैं :
’’अब हम राष्ट्रीयता संबंधी विचार के दूसरे तत्त्व जाति पर आते हैं जिसके साथ संस्कृति और भाषा अभि रूप से जुड़े हुए हैं।...जर्मनों का जाति संबंधी गर्वबोध इन दिनों चर्चा का विषय बन गया है। अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों - यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौंका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहाँ अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।‘ (गोलवलकर, पूर्वोक्त, पृ. 35)
इसके बाद ही वे जर्मनी में भाषा और धर्म के तत्त्वों के बारे में लिखते हैं। कहते हैं कि तमाम भाषाई अल्पसंख्यक आपस में भले ही अपनी भाषा का वहाँ प्रयोग कर लें, लेकिन सार्वजनिक जीवन में वे सिर्फ राष्ट्रीय भाषा, जर्मनी का ही प्रयोग कर सकते हैं। धर्म के मामले में, जर्मनी के राष्ट्रपति को ईसाई धर्म के अनुसार ही शपथ लेनी पड़ती है। इस प्रकार गोलवलकर ने यह स्थापित किया कि ’’राष्ट्रीयता के विचार के पाँचों संघटक तत्त्व आधुनिक जर्मनी में पूरी दृढ़ता के साथ सही साबित हुए हैं...उन्होंने अपने महत्त्व को प्रदर्शित कर दिया है।‘ (वही, पृ. 36)
यह है आर एस एस और भाजपा, विहिप आदि की तरह के उनके तमाम संगठनों की ’’सच्ची राष्ट्रीयता‘ का मूल रूप। हिटलर के नाजी विचारों की प्रेरणा से ही आर एस एस और भाजपा के लोग...’’पुरखों के जर्मन साम्राज्य‘ की तर्ज पर अपने ’’प्राचीन अखण्ड भारत‘ का एक नक्शा पेश किया करते हैं। गोलवलकर बताते हैं : ‘हमारा अमर साहित्य’ तथा हमारे पुराण भी हमारी मातृभूमि की वही विस्तृत प्रतिमा प्रस्तुत करते हैं। अफगानिस्तान हमारा प्राचीन उपगणस्थान था। महाभारत के शल्य वहीं से आते हैं। आधुनिक काबुल और कंधार गांधार थे जहाँ से कौरवों की माता गांधारी आती थीं। यहाँ तक कि इरान भी मूलत: आर्य था। वहाँ का पहले का राजा रेजा शाह पहेलवी इस्लाम के बजाय आर्य मूल्यों से कहीं ज्यादा प्रभावित था। पारसियों का धर्म ग्रंथ ’’जेंद अवेस्ता‘ प्राय: ’’अथर्ववेद‘ ही है। पूरब में वर्मा हमारा प्राचीन ब्रह्मदेश है। महाभारत में इरावत का उल्लेख है, जो आधुनिक इरावडी है जो उस महायुद्ध में शामिल था। इसमें असम का उल्लेख भी प्राज्ञोतिषा के रूप में है क्योंकि वहीं सूरज पहले उगता है। दक्षिण में लंका का हमेशा भारत से सबसे निकट का सम्पर्क रहा है तथा उसे कभी भी मुख्य भूमि से भि नहीं समझा गया। (गोलवलकर, बंच ऑफ थाट्स, पृ. 111)
इस प्रकार अफगानिस्तान, इरान से लेकर पाकिस्तान, भारत, वर्मा, श्रीलंका, नेपाल आदि सभी देशों को मिलाकर उन्होंने प्राचीन अखण्ड भारत का नक्शा बिल्कुल वैसे ही पेश किया जैसे हिटलर ’’पुरखों के जर्मन साम्राज्य‘ का किया करता था।
गैर-हिन्दुओं के लिए कोई स्थान नहीं
जातीयता के मामले में संघियों का साफ कहना है हिन्दुस्तान में राष्ट्र का अर्थ ही हिन्दू है। गैर-हिन्दू तबकों के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है। ’’मूलगामी विभेदवाली संस्कृतियों और जातियों का मेल हो ही नहीं सकता‘ के हिटलरी फार्मूले को वे भारत पर हुबहू लागू करते हैं। उनकी यह साफ राय है कि गैर-हिन्दू भारत में रह सकते हैं, लेकिन वे सीमित समय तक तथा बिना किसी नागरिक अिधकार के रहेंगे। गोलवलकर के शब्दों में :
’’विदेशी तत्त्वों के लिए सिर्फ दो रास्ते खुले हैं, या तो वे राष्ट्रीय जाति के साथ मिल जाएँ और उसकी संस्कृति को अपना लें या जब तक राष्ट्रीय जाति अनुमति दे तब तक उनकी दया पर रहें और जब राष्ट्रीय जाति कहे कि देश छोड़ दो तो छोड़कर चले जाएँ। यही अल्पसंख्यकों की समस्या के बारे में आजमाया हुआ विचार है। यही एकमात्र तर्कसंगत और सही समाधान है। सिर्फ यही राष्ट्रीय जीवन को स्वस्थ्य और निरापद रखता है।...जाति और संस्कृति की प्रशंसा के अलावा मन में कोई और विचार न लाना होगा अर्थात् हिन्दू राष्ट्रीय बन जाना होगा और हिन्दू जाति में मिलकर अपने स्वतंत्र अस्तित्व को गँवा देना होगा, या इस देश में पूरी तरह से हिन्दू राष्ट्र की गुलामी करते हुए, बिना कोई माँग किए, बिना किसी प्रकार का विशेषािधकार माँगे, विशेष व्यवहार की कामना करने की तो उम्मीद ही न करे, यहाँ तक कि बिना नागरिकता के अिधकार के रहना होगा। उनके लिए इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए। हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं; हमें उन विदेशी जातियों से जो हमारे देश में रह रही हैं उसी प्रकार निपटना चाहिए जैसे कि प्राचीन राष्ट्र विदेशी नस्लों से निपटा करते हैं।‘ (गोलवलकर, ’’वी‘ पृ. 47-48)
हिटलर ने जिस तरह यहूदियों को जर्मन जाति का एक नम्बर दुश्मन बताकर उनके खिलाफ तीव्र घृणा के जरिए अपनी राजनीति का आाधर तैयार किया था, बिल्कुल इसी प्रकार आर एस एस ने भी शुरू से मुसलमानों को हिन्दू राष्ट्र का दुश्मन नम्बर एक कहना शुरू किया और उनके खिलाफ हर समय नफरत फैलाने को अपनी राजनीति के मूलकार्य के रूप में अपनाया। ’’राष्ट्र‘ संबंधी अपने हिटलरी सिद्धान्त को भारत पर लागू करते हुए गोलवलकर लिखते हैं : ’’हिन्दुस्तान, हिन्दुओं की भूमि, जिसका पुरखों से प्राप्त एक क्षेत्र है।...इस देश में प्रागैतिहासिक काल से एक प्राचीन जाति, हिन्दू जाति रहती है।...इस महान हिन्दू जाति का प्रख्यात हिन्दू धर्म है।...निजी, सामाजिक, राजनीतिक तमाम क्षेत्रों में इस धर्म से दिशा निर्देश लेकर इस जाति ने एक संस्कृति विकसित की है जो पिछली दस सदियों से मुसलमानों और यूरोपियनों की अधोपतित ’’सभ्यताओं‘ के घातक सम्पर्क में आने के बाद भी विश्व में सबसे श्रेष्ठ संस्कृति हैं।‘ (वही, पृ. 40-41)
फिर इसी बात को दोहराते हुए गोलवलकर कहते हैं ’’सिर्फ वे लोग ही राष्ट्रवादी देशभक्त हैं जो अपने हृदय में हिन्दू जाति और राष्ट्र की शान बढ़ाने की आकांक्षा रखते हुए इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। अन्य सभी या तो राष्ट्रीय हित के लिए विश्वासघाती और शत्रु हैं या नरम शब्दों में कहें तो मूर्ख हैं।‘ (वही, पृ. 44)
जर्मनी की नाजी पार्टी ने जर्मन श्रेष्ठता के अपने सिद्धांतों के प्रचार के जरिए एक ऐसी अवधारणा विकसित की थी कि सच्चा जर्मन वह है जो नाजी पार्टी का सदस्य है तथा सच्चा नाजी वह है जो यहूदियों से नफरत करता है। भारत में मुस्लिम लीग वालों ने भी यही पद्धति अपनाई थी कि वही व्यक्ति सच्चा मुसलमान है जो मुस्लिम लीगी है तथा सच्चा मुस्लिम लीगी वह है जो हिन्दुओं से नफरत करता है। नाजियों और मुस्लिम लीगियों के पदचिन्हों पर ही चलते हुए आर एस एस भी शुरू से यही रटता रहा है कि वही व्यक्ति सच्चा हिन्दू है जो आर एस एस का सदस्य है और वही सच्चा संघी है जो मुसलमानों से नफरत करता है। उनकी यह रट आज इस स्तर पर उतर आई है कि जो बाबरी मस्जिद को ढहाये जाने का समर्थक है वही सच्चा हिन्दू है तथा सच्चा हिन्दू वही है जो मुसलमानों से घृणा करता है।
इस प्रकार के धार्मिक या जातीय उन्माद को पैदा करके उसकी आग पर अपनी राजनीति की रोटियाँ सेंकनेवाली तमाम पार्टियाँ हमेशा समाज में किसी-न-किसी प्रकार के अल्पसंख्यक तबके को अपनी घृणा का विषय बनाकर उनके खिलाफ बिषवमन और हमलों के जरिए ही अपना प्रचार-प्रसार किया करती है। फ्रांस में ले पेन के राष्ट्रीय मोर्चे ने अप्रवासियों के खिलाफ जहरीला प्रचार करके उग्र राष्ट्रवाद के जरिए अपना विस्तार किया है। जर्मनी में अब नई दक्षिणपंथी पार्टियों ने भी विदेशियों को अपने हमलों का निशाना बनाया है।
गोलवलकर जिसे ’’सच्चा राष्ट्रवाद‘ बताते हैं उसकी प्रेरणा के स्रोतों को हमने ऊपर देख लिया है। आर एस एस का संघवाद इंग्लैण्ड के उपनिवेशवाद, हिटलर के नाजीवाद और मुसोलिनी के फासीवाद के भारतीय संस्करण के अलावा और कुछ नहीं है। चूँकि भारत की अन्य राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियाँ हिटलर के नाजीवादी दर्शन को स्वीकार नहीं करती इसीलिए आर एस एस उन्हें हमेशा ’’नकली राष्ट्रवादी‘ कहता रहा है और खुद को अकेले ’’सच्चा राष्ट्रवादी‘ बताता है, जैसे आज सारे संघी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को ’’नकली धर्मनिरपेक्षतावादी‘ कहते हैं और खुद को (आर एस एस, भाजपा के कथित संघ परिवार को) ’’सच्चा धर्मनिरपेक्षतावादी‘ कहते हैं।
सच्चा राष्ट्रवाद
जिस समय हेडगेवार, गोलवलकर और उनके संघी चेले हिटलर के नाजीवाद को ’’सच्चा राष्ट्रवाद‘ बताकर उसका स्तुति गान कर रहे थे, इंग्लैण्ड के उपनिवेशवाद को भी सच्ची राष्ट्रीयता का नमूना बता रहे थे, और बिल्कुल उन्हीं की विचारधारा की आाधरशिला पर अपने ’’हिन्दुत्व‘ के दर्शन की इमारत तैयार कर रहे थे, उसी समय हमारे भारत के ही अनेक मनीषियों ने पश्चिमी देशों में सामने आ रहे उग्र राष्ट्रवाद के घिनौने रूप को पहचान कर कड़े-से-कड़े शब्दों में उसकी भत्र्सना की थी।
मुंशी प्रेमचन्द ने ऐसी पैशाचिक राष्ट्रीयता का प्रहार करते हुए 1933 में ही लिखा था : ’’राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शान्ति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था, उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने परिमित क्षेत्र के अन्दर राम-राज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बँटा हुआ है, और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक सन्देह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अन्त न होगा, संसार में शान्ति का होना असम्भव है।‘ (प्रेमचन्द, ’राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता‘, विविा प्रसंग, खण्ड-2, पृ. 333, 334)
रवीन्द्रनाथ ने लिखा था : ’’पाश्चात्य जातियों को अपनी सभ्यता पर जो गर्व है उसके प्रति श्रद्धा रखना अब तो असम्भव हो गया है। वह सभ्यता हमें अपना शक्ति रूप दिखा चुकी है लेकिन मुक्ति रूप नहीं दिखा सकी...।
’’इसी बीच मैंने देखा कि योरोप में मूर्तिमन्त क्रूरता अपने नख-दन्त बाहर निकालकर विभीषिका की तरह बढ़ती जा रही है। मानव जाति को पीडि़त करनेवाली इस महामारी का पाश्चात्य सभ्यता की मज्जा में जन्म हुआ। वहाँ से उठकर आज उसने मानव आत्मा का अपमान करते हुए दिग-दिगान्तर के वातावरण को कलुषित कर दिया है।‘‘
आर एस एस का ’’हिन्दुत्व‘ इसी महामारी की मार से ग्रसित विकृत विचारों की उपज है।
फासीवाद विरोधी विश्वव्यापी आन्दोलन में भारत में रवीन्द्रनाथ के साथ ही सभी भाषाओं के देशभक्त लेखकों, कवियों और विचारकों ने एक स्वर में फासिस्ट विचारों की भत्र्सना की थी। लेकिन फिर भी आर एस एस-भाजपा के लोग खुद को ही ’’सच्चे राष्ट्रवाद‘ के वजाधारी बताएँगे और रवीन्द्रनाथ, प्रेमचन्द तथा उनकी सारी विरासत को, ’’नकली राष्ट्रवादी‘।
यह वर्ष विवेकानन्द के प्रसिद्ध शिकागो भाषण का शताब्दी वर्ष है। विश्व धर्म महासभा, शिकागो में 11 सितम्बर, 1893 के दिन विवेकानन्द ने अपने स्वागत का उत्तर देते हुए जो संक्षिप्त भाषण दिया, उसका अन्त उन्होंने इन शब्दों से किया था :
’’साम्प्रदायिकता, धार्मिकता और उनकी बीभत्स वंशार धर्मांधता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज कर चुकी है। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही है, उसको बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही है, सभ्यताओं को विवस्त करती और पूरे-पूरे देश को निराशा के गर्त में डालती रही है। यदि ये बीभत्स व दानवी शक्तियाँ न होतीं, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया है, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटा वनि हुई है वह समस्त धर्मांधता का, तलवार और लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारम्परिक कटुताओं का मृत्यु-निनाद सिद्ध हो।‘ (विवेकानन्द साहित्य, खण्ड 1, पृ. 4) ऐसी बातें कहनेवाले विवेकानन्द ने यदि हिटलर के जर्मन ’’जाति गौरव‘ काल को, उसकी विभीषिका और बीभत्सता को देखा होता तो उसे सिर्फ धिक्कारने और धिक्कारने के अलावा उनकी वाणी से दूसरा कोई शब्द न निकलता। आर एस एस और उसका संघ परिवार हिटलर के उन्हीं पैशाचिक कृत्यों की शव-साधना में लगा हुआ है। समूचा भारतवर्ष अपने हजारों वषो की परम्पराओं और मूल्यों के साथ इसीलिए उन्हें धिक्कार रहा है। रवीन्द्रनाथ ने अपनी ’’गीतांजलि‘ के एक गीत में लिखा था : ’’एसो है आर्य, एसो अनार्य,हिन्दू मुसलमान एसो एसो आज तुमी इंगरेज, एसो एसो ख्रिस्टान। एसो ब्राह्मण, शुचि करि मन धरो हाथ सबाकार, एसो हे पतित, करो अपनीत सब अपमान भार। मा‘र अभिषेके एसो एसो त्वरा मंगलघट होय निर्भरा सबार परशे पवित्र-करा तीर्थ नीरे आजि भारतेर महामानवेर सागर तीरे‘‘। (रवीन्द्र रचनावली, बांग्ला खण्ड-2, पृ. 257)
(आओ हे आर्य, आओ अनार्य, हिन्दू मुसलमान! आओ आज तुम अंग्रेज आओ आओ क्रिश्च्यन। आओ ब्राह्मण, मन को साफ करें, सबका हाथ थामे, आओ पतित अपने सारे अपमान के बोझ से मुक्त होओ। मां के अभिषेक के लिए तेजी से आओ, मंगलघट सबके स्पर्श से पवित्र हुए तीर्थ जल से अभी पूर्ण नहीं हुआ है। आज भारत के महामानव के सागर तट पर आआ)
यह है भारत का दृष्टिकोण। मंगलघट पवित्र होता है सबके स्पर्श से। आर एस एस और संघियों की दृष्टि इसके बिल्कुल विपरीत है। सबके स्पर्श से मंगलघट की पवित्रता की वे कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। आर एस एस दुनिया के तमाम दरिन्दों, नादिरशाहों और हिटलर-मुसोलनियों का पुजारी है जिन्हें विश्व मानवता सिर्फ नफरत के साथ ही स्मरण करती है। संघी उन्हीं के नक्शे कदम पर चलने को आतुर है। वे मानवता के दुश्मन हैं। इतिहास में उनका स्थान वही होगा, जो हिटलर-मुसोलिनी का है। लेकिन इसमें शक नहीं कि इसके पहले वे हमारे समाज पर भयावह कहर बरपा कर सकते हैं। शिक्षा, समाज, संस्कृति, भाषा, स्त्रियों तथा वर्णव्यवस्था आदि संबंधी तमाम विषयों पर आर एस एस के विचार चरम प्रतिक्रियावादी और फासिस्ट विचारों की पुनरावृत्ति के अलावा और कुछ नहीं है। वे हर प्रकार के सामाजिक सुधार के कट्टर विरोधी हैं।

ऋ्ग्वेद की सबसे खुबसूरत कविता अक्ष सूक्त है, अथर्ववेद के जो मंत्र गीत मुझे बेहद करीब लगते हैं..वे हैं प्रेम के गीत

ऋ्ग्वेद की सबसे खुबसूरत कविता अक्ष सूक्त है, जिसमें एक जुआरी अक्षों यानी पांसों के शतरंजी पर गिरने की ध्वनि मात्र से व्याकुल होने का उल्लेख करता हुआ उसके मोहपाश का उल्लेख करता हुआ, अपने पारीवारिक कष्टों का भी उल्लेख करता है कि मेरी पत्नी नें इन्हीं पांसो के लिये मुझे छोड़ दिया, मेरी सास मेरे विमुख हो गई, मेरे मित्रों ने मुझे पहचानने से इंकार कर दिया, मेरे कपड़े फट गये, लेकिन सोते जागते जैसे ही पांसो के छनछनाकर कर गिरने की आवाज सुनाई देती है, मैं भागा चला जाता हूँ। अक्षों से स्नेह, मोह और उनके सौनद्रय को वर्णित करते हुए कवि यहां पर जुआरी क व्यथा को इस तरह से बताते है कि हमारा मन जुआरी के प्रति दया से भर जाता है। परावेपा मा बर्हतो मादयन्ति परवातेजा इरिणे वर्व्र्तानाः | सोमस्येव मौजवतस्य भक्षो विभीदको जाग्र्विर्मह्यमछान || न मा मिमेथ न जिहीळ एषा शिवा सखिभ्य उत मह्यमासीत | अक्षस्याहमेकपरस्य हेतोरनुव्रतामप जायामरोधम || दवेष्टि शवश्रूरप जाया रुणद्धि न नाथितो विन्दतेमर्डितारम | अश्वस्येव जरतो वस्न्यस्य नाहं विन्दामिकितवस्य भोगम || अन्ये जायां परि मर्शन्त्यस्य यस्याग्र्धद वेदने वाज्यक्षः | पिता मता भरातर एनमाहुर्न जानीमो नयताबद्धमेतम || यदादीध्ये न दविषाण्येभिः परायद्भ्यो.अव हीयेसखिभ्यः | नयुप्ताश्च बभ्रवो वाचमक्रतनेमीदेषां निष्क्र्तं जारिणीव || सभामेति कितवः पर्छमानो जेष्यामीति तन्वाशूशुजानः | अक्षासो अस्य वि तिरन्ति कामं परतिदीव्नेदधत आ कर्तानि || अक्षास इदनकुशिनो नितोदिनो निक्र्त्वानस्तपनास्तापयिष्णवः | कुमारदेष्णा जयतः पुनर्हणो मध्वासम्प्र्क्ताः कितवस्य बर्हणा || तरिपञ्चाशः करीळति वरात एषां देव इव सवितासत्यधर्मा | उग्रस्य चिन मन्यवे ना नमन्ते राजा चिदेभ्योनम इत कर्णोति || नीचा वर्तन्त उपरि सफुरन्त्यहस्तासो हस्तवन्तं सहन्ते | दिव्या अङगारा इरिणे नयुप्ताः शीताः सन्तो हर्दयंनिर्दहन्ति || जाया तप्यते कितवस्य हीना माता पुत्रस्य चरतः कवस्वित | रणावा बिभ्यद धनमिछमानो.अन्येषामस्तमुपनक्तमेति || सत्रियं दर्ष्ट्वाय कितवं ततापान्येषां जायांसुक्र्तं च योनिम | पूर्वाह्णे अश्वान युयुजे हि बभ्रून सोग्नेरन्ते वर्षलः पपाद || यो वः सेनानीर्महतो गणस्य राजा वरातस्य परथमोबभूव | तस्मै कर्णोमि न धना रुणध्मि दशाहम्प्राचीस्तद रतं वदामि || अक्षैर्मा दीव्यः कर्षिमित कर्षस्व वित्ते रमस्व बहुमन्यमानः | तत्र गावः कितव तत्र जाया तन मे विचष्टे सवितायमर्यः || मित्रं कर्णुध्वं खलु मर्लता नो मा नो घोरेण चरताभिध्र्ष्णु | नि वो नु मन्युर्विशतामरातिरन्यो बभ्रूणाम्प्रसितौ नवस्तु ||..Rig Veda Book 10 Hymn 34 ................................................. अथर्ववेद के जो मंत्र गीत मुझे बेहद करीब लगते हैं वे प्रेम गीत हैं, ये प्रेम गीत एक तरफा नहीं अपितु उस काल में स्त्री ने भी अपने मन को खोला है, जब कभी कोई पुरुष किसी स्त्री को धोखा देकर चला जाता तो वह उसे पुनःअपने करीब बुलाने की क्षमता रखती है। ये गीत एक ऐसी ही नारी का प्रतीत होता है, जिसका पति या प्रेमी उसे छोड़ दूसरे के पास ला गया है। एक अन्य मंत्र गीत में वह भगोड़े पति को खींच कर सभा में ले जा ती है दण्ड दिलवाने को , और एक अन्य में वह कामुक पति को नपुंसक बनाने का भी उपाय खोजती है, अन्य मंत्र गीत फिर कभी, अभीफिलहाल ये प्रेम गीत पत्नी का .... नि शीर्षतो नि पत्तत आध्यो नि तिरामि ते। देवाः प्रहिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु।। अनुमतेन्विदं मन्यस्वाकूते समिदं नमः। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु। यद् धावसि त्रियोजनं पञ्च योजनमाश्विनम्। ततस्त्वं पुनरायसि पुत्राणां नो असः पिता।। अवे. 6.131.1-3 तुझे प्रेम मे डुबोती हूँ सिर से पाँव तक देव प्रेरित काम तड़पाए तुझे मेरे प्यार से हे अनुमति तू सहाय कर आकूति सहाय कर देव प्रेरित काम तड़पाए तुझे मेरे प्यार से तू दूर जाए यदि तीन योजन या फिर पाँच योजन घोड़े पर बैठ कर फिर-फिर लौट कर आए पिता बने मेरे पुत्रों का अपने प्रेम से तड़पाती हूँ तुझे