Sunday 23 June 2013

वेद.मंत्र

ओं भूर्भुवः स्वः ततसवितुर्वरेनियम भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नह प्रचोदयात .ओं. सन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये/ शंयोरभि स्रवन्तु नः /*ओं..वाक़ ,वाक़ /ओं प्राणः प्राणः/ ओं चक्षुःचक्षुः/ओं श्रोत्रं श्रोत्रं/ ओं नाभिः/ ओं ओं कंठः/ ओं शिरः/ ओं भाहुभ्यामयशोबलम / ओं करतलकरप्रिश्ठ्ये/ओं भू:,ओं भुव:,ओं स्वः, ओं मह:,ओं जन:,ओं ताप:, ओं सत्यम /ओं ऋतंच सत्यांचाभीद्धात्तापसोअद्ध्यजायत,ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः / समुद्रअद्र्न्वादाधि संवत्सरो अजायत ,अहो रात्रानि विदधद्विश्व्स्य मिषतो वशी / सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वंमकल्प्यत,दिवंच पृथ्वींचान्तरिक्षमथोस्वः /ओं प्राची दिगग्निराधिपतिरक्षितो रक्षितादित्याइषवः /तेभ्यो नमो अधिपतिभ्यो नमो रक्षित्रिभ्यो नम इशुभ्यो नमं एभ्यो अस्तु /यो असमान द्वेस्ति यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः/ओं दक्षिणा दिगिन्द्रो अधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पिटर इषवः /तेभ्यो नामोअधिप्तिभ्यो नमो रक्षित्रिभ्यो नम इशुभ्यो नम एभ्यो अस्तु /यो असमान द्वेस्ति यं वयं द्विमस्तं वो जम्भी दध्मः

लौट आई मैना भी

लौट आई मैना भी 
कई दिनों बाद आज तीसरे पहर
बगीचे में पौधों को पानी दे रहा था कि
अचानक मेरे सिर पर मंडराई
मानो उसने अपनी पहचान बताई
आज दिखी मेरी मैना ....
पिछले बसंत के बाद उड़ गई थी
अपने दो नन्हे बच्चों के साथ
आज बच्चे साथ नहीं थे /
उसके साथ उसका नया साथी था
मैना बेहद खुश थी ,साथी गंभीर था
मैना चिउं चिउं करते ,अपनी लम्बी पूंछ हिलाते
आम आंवला अमरुद नीबू मधु कामिनी
जूही मधुमालती सभी पर बैठ आई
वह मानो फूली नहीं समां रही थी /
लौट के साथी के पास आई ,
उसके कानो में गुनगुनाई 
यही उसका अपना ठौर है /जहाँ उसने रचा था संसार ...
लौट आई मैना भी ...प्रवासी बच्चे नहीं लौटे ......?

भोर हो गई

भोर हो गई 
अस्ताचल में सूरज छिपा ही था कि
कि शुक्र तारे कि बिंदी लगाये
उतर गई संध्या मेरे अगन में
पसर गई पूरे घर में चुपके से
विभ्रम कि लोरी ,स्नेह कि थपकी ,ममता सा दुलार
बिन किसी भेद भाव बाँट दिया सबको
सो गया घर बार ,वह होगई प्रौढ़
उस ने बदल लिए नाम
वह अब रजनी हो गई थी /
भोर कि आहट से अभी कुनमुनाई ही थी रजनी
सखी उषा ने खट खटा दिया द्वार
निकल पड़ी रजनी पनघट कि ओर
सखी उषा से मिलने धवल वस्त्रों में सकुचाई,अलसाई छुई मुई
सूरज ने उलट दिए अनुराग उसके आँचल में
अरुणिम किरणों के सिन्दूर से भर दी उसकी मांग
कम्पित थे अरुण गात/भोर हो गई ,
दोनों हाथो ढँक लिया मुह छिप गई रजनी ...

रति गंध न मिल जाय


मानवीय  चेतना का विनाश
संत्राश.
धीरे धीरे सुलगता हुआ दाह
निरंतर कचोटती हुई स्थितियों में
जीता हुआ,मरता हुआ मन .
झुलसते    इक्षाओं के अंगारे
कफ़न सी सफ़ेद आर पार फ़ैली हुई
चांदनी के नीचे
सुबकती सांसें .
जीता जागता जहन्नुम
बिलबिलाती हुई इक्षाएं
हिनहिनाता क्रोध ,
खुद बुदाते  प्रेम ......
गेगरीन के घाव के
मवाद सी जिन्दगी
खुर्राट वेश्या के
सिफलिस सड़े अंगों सी
नुची चुथी बजबजाती
ब्यवस्था में ,झल्लाती जिन्दगी.
ऋतु गंध में भीगे कपडे सी
फेंक दी गयी
इसलिए की उसे
रति गंध न मिल जाय.