Friday 15 April 2016

चाय गरम ...गरम चाय ..गरमा गरम चाय



मोदी जी भारत के लिए ईश्वर का बरदान है ..शिवराज . मोदी भगवान् का अवतार हैं .बेन्कैया .....बर्तन मांजने वाली का बेटा प्रधान मंत्री बन गया ...मोदी जी, को इतना न फुलाओ कि फट जाए देवकांत बरुआ नामक शख्स का भारतीय राजनीति में एकमात्र और संभवत: सबसे बड़ा योगदान वही एक वाक्य - इंडिया इज इंदिरा’ रहा है जिसकी वजह से कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष हमेशा याद किए जाते हैं। आज दशकों बाद एक और शख्स ‘वोट फॉर इंडिया’ के जरिए ‘बीजेपी इज इंडिया’ बता रहे हैं। किसी एक पार्टी को राष्ट्रीयता का पर्यायवाची बनाने की यह कोशिश वास्तव में एक खतरनाक सोच का परिणाम है। एक ऐसी विचारधारा जिससे धुर दक्षिणपंथी बू आ रही है। भाषणों से जताना चाहते हैं कि वे और केवल उनकी पार्टी ही देशभक्त है। जनाब, राष्ट्रीयता किसी व्यक्ति और पार्टी की जागीर नहीं होती। न तो BJP की, न कांग्रेस की और न ही AAP की। हम इस सत्य को कब स्वीकार करेंगे कि हम विभिन्न धर्मों के अस्तित्वों की धरती पर जी रहे हैं और इस वक्त व्याप्त विश्वव्यापी बदलाव की लहर में अब सहजीवन ही हमारा सहअस्तित्व बचा है। दक्षिणपंथ को मिली तनिक सी हवा किसी और स्वरूप में देश को टुकड़े-टुकड़े कर के रख देगी। ऐसा खतरनाक खेल न खेलें। विश्व ऐसे उदाहरणों से पटा पड़ा है। भले ही ये लच्छेदार मुहावरे भाड़े से लाए गए लोगों की तालियां बजवा लें, लेकिन आम जनता राजनीतिज्ञों द्वारा अपने दिमाग और सोच के साथ किए ‘चिंतन बलात्कार’ को कभी स्वीकार नहीं करती। इमर्जेंसी हो या विभिन्न पार्टियों के ‘बिरयानी प्रयोग’ या प्रमोद महाजन का ‘इंडिया शाइनिंग’, जनता ने तो इंदिरा गांधी और अटल बिहारी जैसे PM को भी कूड़ेदान के हवाले कर दिया। खुद और अपनी पार्टी को सही बताना कोई बुरी बात नहीं, लेकिन यह कैसे जायज ठहराया जा सकता है कि ‘फलां, फलां गलत है, इसलिए मैं सही हूं।’ वास्तव में तो यह संपूर्ण अप्रोच ही गलत और नकारात्मक विचार वाला है। PM पद का ख्वाब देखनेवाले को अपनी सोच स्तरीय बनानी होगी। बदलाव की लड़ाई लड़नेवाले को सबसे पहले सामाजिक अहंकारों के खिलाफ लड़ना पड़ता है। अपने आप को अलहदा दिखाना ही नहीं बल्कि बनना पड़ता है, न कि अहंकारी भाषा का प्रयोग करना। दूसरों पर जो उंगली उठाते हैं उन्हें पहले अपनी ओर भी देखना चाहिए। गुब्बारे को इतना भी न फुलाओ की वह फट जाए? ओबामा के मैनरिजम की नकल कर लेने भर से कोई PM नहीं बन जाता। देश के आर्थिक, कूटनीतिक, सामाजिक संकटों व वैश्विक प्रश्नों को सुलझाने के लिए अपने तरीकों, नीतियों, अप्रोच और समाधान को भी सामने रखना पड़ता है। पिछले तीन महीनों से देश के कोने-कोने में करोड़ों-अरबों के खर्च से हो रहे तमाशों में PM बनने के बाद देश के लिए अपनी योजनाओं, कार्यक्रमों और प्राथमिकताओं के बारे में एक शब्द भी नहीं बोला जाता। इनमें सिर्फ होता है कांग्रेस के नाम से विधवा विलाप, वह भी सीना पीट-पीट कर। अरे, आखिर कब होगी देश की बेरोजगारी, आर्थिक मंदी से निपटने के तरीकों, गरीबी उन्मूलन, जीडीपी ग्रोथ, इंडस्ट्रियल ग्रोथ, देशवासियों की मूलभूत जरूरतों को उपलब्ध कराने की आपकी योजनाओं की बात? महीनों से सिर्फ कांग्रेस के कुशासन को गिनाने से काम नहीं बनेगा। प्रश्न करने के बाद जनता के सामने उत्तर भी रखना जरूरी होता है। वास्तव में तो देश का मतदाता इस विधवा प्रलाप से ऊब चुका है। अजी, खत्म हो गया हनीमून पीरियड, अब आओ सचाई के धरातल पर और बताओ की एक PM कंडिडेट के पास क्या भावी योजनाएं हैं देश के लिए। कुछ कॉर्पोरेट समूहों को कौड़ी के मोल जमीन देकर सारे टैक्स माफ कर देने को ‘विकास’ कह देने की परिभाषा आपकी होगी क्योंकि इसका मोल तो गुजरात राज्य की जनता ने चुकाया है। दूध का दूध हो जाए जब अगर जनाब से किसी मंच पर लाइव व खुली बहस की जाए और देश के सारे विकट आर्थिक प्रश्नों की वन-टू-वन चर्चा हो। सारी पोल एक मिनट में खुल जाएगी। चाय गरम...चाय गरम!!

Wednesday 6 April 2016

अच्छा बनाने की कोशिस में सारी अच्छाई झर गयी अच्छा बनना फिर भी शेष रह गया

अच्छा बनना फिर भी शेष रह गया

अच्छा बननाशेष रह गया
मै उतना अच्छा आदमी नहीं निकला
जितनी की मुझे उम्मीद थी कि मै हो पाउँगा
कई बार अच्छा बनाने कि कोशिश में सारी अच्छाई झर जाती है
और अच्छा बनाना फिर भी शेष रह जता है
मुझे भरोषा तो था लेकिन जाहिर है
मैंने उतनी कोशिश नहीं कि जितनी कि जरूरत थी|
मुझे अपने बच्चों कि पढ़ाई लिखाई का जादा तो नहीं
पर इतना अता पता तो रहा कि वे किस दर्जे में पढ़ते हैं
मैंने उन्हें बहुत सलाह नहीं दी और नसीहत या उपदेश भी नहीं
पर उन्हें साफ सफाई से जीवन बसर करना ,किसी पर निर्भर न रहना
अपना कम खुद करना. सर न झुकना ,किसी का एहसान न लेना ,भरसक मददगार होना
अपने पद ,पोजीशन का नजायज फायदा न उठाना वगौरह वगैरह तो आ ही गया /
उनकी अपनी मुश्किलें हैं ,तो मेरी ही कौन सी कम हैं
एक अच्छा पिता ,उन्हें अवसर का लाभ उठाने आज कि दुनिया में
अपना काम निकालने कि कुछ हिकमतें तो बता ही सकता था
जो मैंने नहीं किया....... क्यों कि -
चौंसठ बरस कि उम्र हो जाने के बाद भी
मुझे खुद ही पता नहीं है कि
हमारे समय में जिन्दगी जी कैसे जाती है .
सिर्फ इतना ही समझ पाया कि कैसे
जुटाया जाता है ,छत छप्पर जगह और राहत का सामान .
नहीं समझ पाया कि कैसे खडी की जाती हैं दीवारें ,तोड़े जाते हैं रिश्ते .
क्या होता है चरित्र का छल ,कैसे बनाया जाता है घर को बाजार
इस मायने में पूरा राज कपूर ही रहा -
सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशयारी....
सच है दुनिया वालों कि हम हैं अनारी .
मेरे बच्चों ! अगर तुम सफल नहीं होते
तो इसका जिम्मा मेरा जरूर होता.!
हला की आज तुम मुझ पर निर्भर नहीं हो .
जिन्दगी तुम्हारे साथ कल क्या करेगी
इस बारे में मैं कोई अटकल लगना नहीं चाहता
पर अगर मैं अच्छा पिता होता ,तो
तुम्हे इतना अबोध न छोड़ देता जितना
मैंने तुम्हे इस खूंखार वक्त में छोड़ दिया है.
तभी तो चालाक चालों की शरारत ने..
तुम्हे आमूल चूल बदल दिया है..
हालाँकि तुम सब अब भी
मेरी प्यारी संताने हो .
मैं तुम्हे बेहद प्यार करता हूँ .
मैं अच्छा पिता तो नहीं बन सका
तो अच्छा इन्सान बनाने का तो सवाल ही नहीं उठाता
चूक मुझसे कहीं वफादारी में भी हुई है ,
शायद अपने लालच में मैंने सोचा कि
कई जगहें हैं ,हो सकती हैं ,और एक जगह दूसरी को रद्द नहीं करती
मुझे ख्याल तो था कि दुनिया के इतने विशाल होने के बावजूद जगहें बहुत कम ही हैं
जिसे जितनी मिली है उसी पर जम कर काबिज है
और इसकी मोहलत नहीं कि आप जगहों के बीच आवा जाही करते रहें .
मैंने प्रेम ,बांटा नहीं बल्कि पाया कि यह एक ओर बढ़ने से
दूसरी ओर कमतर नहीं होता बढ़ता ही है
आसमान कि तरह एक शून्य बना रहता है
जिसे कई कई सूरज भरते रहते हैं
उन्ही कि धुप में मैं खिलाता और कुम्हिलता रहा .
मैंने जीवन और कविता को आपस में उल्झादिया
जीवन की कई सच्चाइयों और सपनो को कविता में ले गया
आश्वश्त हुआ कि जो शब्दों में है वह बचा रहेगा कविता में .
भले ही जीवन में नहीं..........,गलती यह हुई कि.
जो कविता में हुआ उसे जीवन में हुआ माँन कर संतोष करता रहा .
अपने सुख और दुःख को अपने से बड़ा माँनकर
दूसरों के पास उसे शब्दों में ले जाने कि कोशिश में
वे सब बदल गए और मैं भी
और जो कुछ पन्हुच सका शायद न मैं था न मेरे सुख दुःख ,
मुझे ठीक से पता ही नहीं था कि
हमारे समय में अच्छे दोस्त ही सच्चे दुश्मन होते हैं
अपने ही पक्के पराये .क्यों कि औरों को आप या आप कि
जिन्दगी में दखल देने कि फुर्सत कहाँ है.
कभी कभार के भावुक विष्फोट के अलावा
किसी से अपने दुःख का साझा नहीं किया
न मदद मांगी न शक किया,
गप्पबाजी में ही मन के शक को बह जाने दिया.
कुछ शोहरत ,खासी बदनामी मिली ,
पर बुढ़ापे के लिए ,अपने लिए ,मुश्किल वक्त के लिए ,
कुछ बचाया और जोड़ा नहीं .
किसी दोस्त ने कभी ऐसा करने कि गंभीर सलाह भी नहीं दी.
इसी आपा धापी में किसी कदर
आदमी बनाने कि कोशिश में
चौंसठ बरस गुजर गये पर अच्छा बनाना शेष रह गया
अब तो जो होना था हो गया
डाल के पक्षी अचानक उड़ गए सब फुर्र से
बया बेचारा अकेला रहा गया ,घोसले के द्वार पर लटका हुआ /