Wednesday 26 November 2014

क्या ! ऐसा नही हो सकता ....

क्या !
ऐसा नही हो सकता ....
कि.जब भी मिले हम
इस तरह मिलें
जैसे मिलाती हैं
अलग अलग दिशाओं में ब्याही
दो सखियाँ
वर्षों बाद किसी मेले में .|
जीवन में बहुत बवाल है
वरना कौन भूलता है बेफिकर दिनो को
आपभी भूले नही होंगे
पर याद  नही करते होंगे हरदम
आखिर कौन है इतना फुरसतिहा  |
बहुत मार काट है इन दिनों
जिसे देखो वाही धकियाते जा रहा है
एक दूसरे को
ऐसे में महज इतना ही हो
तो भी अच्छा है है
की कम केबाद
जब आप पोंछ रहे हों अपना पसीना
तो बस याद आ जाये
पसीना पोंछता पिता का चेहरा .|
और यह की
दुनिया सिर्फ हमारी बपौती नही है
यहाँ सब को हक़ है जीने का
अपनी पूरी आजादी के साथ |

यह कविता नही .मेरे एकांत का प्रवेशद्वार है

यह कविता नही .
मेरे एकांत का प्रवेशद्वार है
यहीं आकर सुस्ताता हूँ मैं
टिकाता हूँ यहाँ अपना सिर
जिन्दगी की जद्दो जहद से थक हार कर |
जब भी लौटता हूँ यहाँ
आहिस्ता से खुलता है
इसके भीतर एक द्वार
जिसमे धीरे से प्रवेश करता मैं
तलाशता हूँ अपना निजी एकांत.
यहीं मई होता हूँ वह
जिसे होने के लिए
मुझे कोई प्रयास नही करना पड़ता....
पूरी दुनिया से छिटक कर
अपनी नाभि नाल से जुड़ता हूँ मैं यहीं
मेरे एकांत में देवता नही होते
न ही उनके लिए होती हैकोई प्रार्थना
मेरे पास होती हैं
जीवन की बाधाएं
कुछ स्वपन और कुछ कथाएं ..
होती है धुंधली सी एक धुन
हर देश काल में जिसे
अपनी तरह से पकड़ता पुरुष
बहार आता है अपने आप से ____

Sunday 23 November 2014

इस दौर में भी बचाने को बहुत कुछ बचा है हमारे पास ///

हर बार की तरह लौटा हूँ घर .और
 घर लौट आया है मुझ में ..
 वह घर जो मेरा है ..मेरा नहीं है .!
 इसकी दीवारों पर लिखे अनगिनत किस्से ,सपने मेरे अपने हैं ,..
पर यह अलग बात है ..जो कोई मायने नहीं रखते ..
जब भी मैं लौटता हूँ घर ,मेरा घर दौड़ कर लिपट जाता है
मुझसे ढूंढता है मेरी आँखों में अपने लिए सहानुभूति
बताता है अपनी बदहाली के किस्से
किस तरह चुपके से अपनों ने ही कुतर दिया घरेलू रिश्तों की बुनियाद .
 किस तरह धीरे धीरे मर गया घर का चरित्र
आज वह मुझे पढवाता है
 तनहाइयों में दीवारों पर लिखे कुछ शब्द
 बताता है की कैसे कैसे उलझनों में वह उलझ गया ,
 खामोश खड़ी दीवारें
 निःशब्द कह जाती है अपनी ब्यथा कथा
बीमार हवाएं रिश्तों में फूटते दुर्गन्ध का बयान करती हैं
खुद को सम्हालने की असफल कोशिस करता मै
 सहेजता हूँ ठंढी होती दिनचर्या में जीवन की गर्माहट,
 मन का हरापन भोलापन दिल का ,अक्खड़ पन, जुझारू पन ,
एक शाश्वत प्रश्न खड़ा होता है क्यों ?
किसके लिए ?
पर वह मेरे भीतर जो एक मन और है ..
जो नहीं जनता दैन्य हार मानता नहीं ..
कहता है डटे रहो मोर्चे पर
लड़ना है अपने हिस्से का महाभारत अकेले ही
 इस दौर में भी बचाने को बहुत कुछ बचा है हमारे पास ///