Monday 4 February 2013

सोचिए ज़रा

मनुष्य की अदम्य जिजीविषा ,जीवन जीने की उत्कट अभिलाषा उसे सारे ख़तरों से जूझने और निपटने की हिम्मत देती है ;यह अदम्य लालसा ही है जो जो मनुष्य को अन्य प्रणियों से भिन्न करती है .हमारी संस्कृति ,हमारे संस्कार .हमारी आत्मानुशासन की प्रवृत्ति ,हमारे जीवन को सुरुचिपूर्ण और आकर्षक बनती है .हम इसी मे उठते और आगे बढ़ते हैं .यह सांस्कृतिक धरोहर हमे अपने लोक से मिलता है.जिसका लोक जितना समृद्ध होगा उसका आभिजात्य ..उतना ही सशक्त होगा सामर्थ्य वान होगा ..लौकिक जीवन हमे आस्था के गंगा जल मे अवगाहन कराता है ,हमारी आस्था ही हमारी उर्जा है शक्ति है .इसके अभाव मे हम बहुत हल्के और कमजोर होते हैं .पर यह आस्था किसी देवी देवता के प्रति नही .मनुष्य और मनुष्यता के प्रति होना चाहिए ...आस्था के मार्ग पर भटकने का अर्थ है मनुष्य जीवन के लक्ष्य से भटकना .सबसे जाड़ा ज़रूरी है की हमारी आस्था और प्रतिबद्धता अपने प्रति हो .मनुष्य के प्रति हो .परिवार और समाज के प्रति हो .धन ,धर्म पद प्रतिष्ठा मान सम्मान जाति ये सभी दूसरे नंबर पर आते हैं .

सर्वे भवंतु सुखीनः सर्वे संतु निरामाया की हमारी कल्पना तभी साकार होगीहमारी सबसे बड़ी समस्या आज के दिन है की हम आभिजात्य की ओर भाग रहे हैं .हमे समझना होगा की जो लौकिक नही वह सभ्य तो हो सकता है सुसंस्कृत नही होसकता ..समझने केलिए कह सकते हैं की जो अंतर प्यार और कांट्रेक्ट मे है .जोलौकिक है वह प्यार करता है ,स्नेह करता है सम्मान करता है .किसी को दुख नही देना चाहता ,अपने लिए नही दूसरोंके लिए जीना चाहता है .सहिष्णु होता है .उन्मुक्त होता है कपाट विहीन स्वच्छन्द होता है ज

िसकी जड़ें लोक मे नही किंतु आभिजात्य है वह इन सब के बिपरीत होता है .मा के हंत की बनी गुदड़ी लौकिक है .उस पर सुंदर कवर ,संस्कृति है ..फोम का गद्दा आभिजात्य है सभी है ..जो आत्मीयता प्रेम स्नेह आनंद संतोष गुदड़ी मे सोने मे है वह फोम के गद्दे मे नही .फोम आप को सुख देगा आनंद नही ..केवल आभिजात्य होना हमे दंभ देता है .अभिमान देता है .जड़ बनता है .संबेदना शून्य कर देता है .आज की दिनचर्या मे हम सभ्य हैं आभिजात्य हैं लेकिन लौकिक नही .इसी मे हम अपना पं खोते जा रहे हैं और मानसिक रूप से रुग्ण तथा गुलाम होते जा रहे हैं .हमे सोचना होगा की अपनी आने वाली पीढ़ी को उत्तरा धिकार मे हमे क्या देना है ..तोड़ा सा अपना पन या ढेर सारा आभिजात्य .,/हमारी जातीय संस्कृति विलुप्त हो गयी है ..इसके ज़िम्मेदार हम ही हैं ... कोई भी लकड़ी बिना स्नेह .आत्मीयता श्रम के गुड़िया नही बनती . हमे याद रखना चाहिए ..अभी भी समय है जो जहाँ है वहीं अपने जातीय गुनो को संरक्शाट कर सकता है .यह आप का धर्म भी है .कर्ज़ भी है ..रोटी से पिज़्ज़ा की ओर भागती पीढ़ी ........कल क्या होगी सोचिए ज़रा

Sunday 3 February 2013

जिन्दगी भर .पीड़ा और रोमांच देती रहीं बचपन की बेवकूफियां

जिन्दगी भर .पीड़ा और रोमांच देती रहीं बचपन की बेवकूफियां


बचपन के दिन भी क्या दिन थे, जब हम शहंशाह होते थे,बेताज बादशाह ,खुराफात के पिटारे ,जो सूझा कर दिया ,लेकिन क्या बात थी तब के समाज गाँव घर में ,बचपने को बचपना मानकर ही ब्यवहार होता था ,अब तो थाना पुलिस  मार पीट दुश्मनी  सब हो जाय .वाकया उन दिनों का है जब हम चौथी  कक्षा में पढ़ते थे ,मेरे एक चहेरे भाई की भाभी थीं ,अरे यार भाभी मेरी थीं उनकी तो पत्नी थीं बेहद सुन्दर चंचल मुझे बहुत अच्छी  लगती थीं.खूब  काम कराती थीं अपना ,लेकिन बदले में कुछ न कुछ देतीं थीं ,उनकी एक आदत गड़बड़ थी ,जब भी मिलतीं थीं मेरे गोल गालों को जोर से चिमट देतीं थीं और चूम लेतीं थीं ,चूमना तो ठीक था पर चिमटतीं  तो इतने जोर से थीं की रोना आजाता था ,आँखें आंसू से डबडबा जातीं  थीं, उनकी सास मतलब की मेरी चाची इस प्रसंग में मेरा साथ देतीं थीं ,होली आयी ,होली के दिन लगभग १२ बज रहे थे ,चाची ने मुझे बुलाया और पुचकारते हुए बोलीं ..हमर बचवा हो ताड़ी वाली (भाभी के मायके के नाम ताड़ी था ) तोहर गलवा नोच नोच के लाल कई दिहीं ,फिर उन्होंने अपनी ही बहू के खिलाफ मुझे भड़काया मै भी चढ़ गया चने के झाड़ पर चाची ने जो जैसा कहा था किया .सुबह की धुलंड होली (धुल कीचड़ की होली )ख़तम हो गयी थी ,दोपहर को नहा धोकर भाभी अपना बाल खोल  कर सुखा  रही थीं और साथ ही पूड़ी बेल रही थीं , चाची के निर्देश के अनुसार मैं नाद से सड़ा हुआ भूसा (बैलों को खिलाने वाला नाद..भूसा खली दाना  ) बाल्टी में लेकर लुकते छिपते गया और भाभी के खुलेसर और बालों  पर होली है की उदघोशना के साथ उलट दिया ,सारी गंदगी फ़ैल गयी बाल में खली दाने में सडा हुआ  भूसा भर गया ,सब गन्दा पानी कपडे ,शरीर के साथ पूड़ी और गुल गुले  के आंटे में भर गया ,पूरा घर गंधाने  लगा ,चाची बड़ी  खुस ,की आज तो बहू से बदला निकाल लिया बच्चे ने. उनका खुद का घर खुद की बहू खुद के त्यौहार के पकवान और  आंटे के बर्बाद होने की चिंता नहीं ,उन्हें मजा आ रहा था.खूब हंस रहीथीं , .भाभी खिसीआई  सी ,रुआंसी    हो गयी ,उसे इस बात का दुःख नहीं था की मैंने गन्दा कर दिया, दुःख इस बात का था की चाची के प्लान ने उसे पराजित कर दिया नहीं तो सुबह से किसी ने उसे कीचड़ नहीं लगाया था,गुस्से में भाभी ने मेरे घर जाकर मेरी माँ से शिकायत  कर दी ,माँ ने पहले तो मेरा होलीकाष्टक छुड़ाया ,खूब पीटा.फिर सजा का फरमान सुनाया .जाओ कूंएं से पानी लाकर दो बहू नहाये गी ,अब क्या था .भाभी बैठ गयी नहाने ,मानिनी नायिका की तरह ,मैं पानी लेकर आता था  भाभी उलट देती थी ,नहाती नहीं थी ,मेरे पूछने पर धमकाए, की लाते हो पानी की जाकर अम्मा को बताऊँ ,मै चुप होकर आदेश  का पालन करता रहा ,दो घंटे तक कमसे कम ५० बाल्टी पानी भरवाने के बाद भाभी मुझे पकड़ कर मेरा गाल चिमाटते हुए बोली कहो लाला कैसा लगा ,फिर खेलोगे भूसे की होली ,मेरे गालों को चूमा, बोलीं जा अब हम नहालेंगे ,बाल धोने में बहुत देर लागी भूसा बालों से चिपक गया था ,निकलता ही नहीं था ,आज भाभी ७८ साल की हैं ,पर याद करके खूब हंसती हैं अपने पोपले गालों को फुलाकर , भाभी मेरी सुन्दर थी ,आज भी है ,

फागुन जोग लिखी .

फागुन जोग लिखी .


चुगुली करती हवा निगोड़ी
मधुऋतु  अलख जगाये
मैना करती सीना जोरी
रुनझुन पायल गए
फागुन जोग लिखी ..
धीरे धीरे बही फगुनहट
चंपा महकी रात
लादे पलास लाल दिसि चारो
आँखें करतीं बात
चैत में धूम मची ..
बौरे आम टिकोरा झूलें
भौंरा बांस लुभाए
खेत पके खलिहान जगे सब
कोयल पंचम गए
बिंहसती धुप खिली ..
नीरस हुई निगोड़ी पछुवा
नीकी लगे छाँव
सूखन लगे ताल तलैया
बगिया सिमटा गाँव
धूप  की तेज बढ़ी ..
सूरज ने फैलाई बांहें
लूह चले चहुँ ओर
दहकन लागी दासों दिसायें
छाँव खोजती ठौर
अभी से  तपन बढ़ी ..
पके आम चुचुआने महुवा
बगिया सिमटा गाँव
ताल सरोवर दरकन लागे
धधक उठी हर ठाँव
भोर कुछ खिली खिली..
भांय भांय  करती दुपहरिया
चिड़िया दुबकी पात
नाच रही चिल चिल गन गनियां
सुलगे आधी रात
जवानी ग्रीष्म चढी ..
फागुन जोग लिखी .....

Saturday 2 February 2013

नहीं दीखता मुझे बसंत कहीं भी


अभी अभी लौटा हूँ

कवि गोष्ठी से

लोगों ने सुनाईकवितायेँ

सुनाये वसंत के गीत .

किसी की खो गई प्रियतमा

किसी को मिल गया मन का मीत .

पर अबकी बार भी मै नही जान सका

वह तरकीव जिससे महसूसता

आगमन बसंत का .

सुनता कोयल की कूक

मैना दम्पति की सीना जोरी

फागुनी हवावों की कानाफूसी

भीतर तक मेरे भरी नहीं अम्र कुंजों की मधु गंध

गदबदाये

सरई बनो का जादू ,मादक गंध महुवा की .

अन्दर तक बना हुवा संत मै खोजता हूँ

अपने परिवेश में बसंत .

मेरे भीतर तक धंसा पसरा समूचा

बियाबान

मारता है हूक

मुझे तो सब कुछ दीखता है ठूंठ

ठूंठ ,ठूंठ ,ठूंठ दर ठूंठ ,और उस पर बैठा है

एक गिरहबाज नोच रहा है ,नन्ही सी चिड़िया के पंख

तोड़ रहा है उसके डैने अपने अभ्यस्त खुरदुरेपंजों से

नाखून बढे पंजों में जकड़े निचोड़ रहा है उसका समुच अस्तित्व

नीचे झड़े सूखे पत्ते का अम्बार खड खडा उठता है,

और क्रूर हो उठता है हवा का रुख .

धीरे से सरकता हुआ भेडिया,लपलपाती जीभ

चाटता है रक्त उस लड़ बडाये लाल भुभुक्क पलास के नीचे .

अभी कल की ही तो है बात

शहर के उस ब्यस्ततम चौराहे पर पिचक दिया था

ट्रक ने उस नन्ही सी जान को पचाक ......

हो गयी थी सारी सड़क लाल

हाँ हाँ वही तो जो देख नहीं सका अपना छठां बसंत .

अभी कल ही तो बैठा था मेरे संग

और उसका बाप पिट गया उसी रात

ट्रक मालिक के गुंडों के हाथ ,खिचगयी साड़ी

उसबाचारी अभागिन मां की जो भरे बसंत में

समेटे है बीरान बियाबान पतझड़

पिचके गाल सूखी छाती

निचुड़े अध् ढंके अंगों से निर्वासित ,रीती भयातुर आँखें

वह भी तो खोज रही है अपने जीवन का बसंत

जो तोड़ चुका है दम ,

वह चीखती है चिल्लाती है

अपने बसंत को आवाज लगती है .

पर खो जाती है उसकी चीख

भीड़ भरे इस अपने ही अजनबी शहर में

नहीं दीखता मुझे बसंत कहीं भी
इस श्मशान नगर में .

मै वहां कभी नहीं गया..पर मै वंहा हर क्षण होता हूँ ...


मेरे घर से थोड़ी दूर पर है .वह कब्रिस्तान
नजदीक ही है वह श्मशान ,एक ही जमीन का टुकड़ा
जो दफनाये गए उनके लिए कब्रिस्तान
जो जलाये गए उनके लिए श्मशान
चारो ओर से खुला है ,हर चुनाव में .
इसके घेरे बंदी की चिंता करते हैं नेता लोग
अपने भाषणों में इसे मरघट कहते हैं ,
लोग दफनाये जाते हैं लोग जलाये जाते हैं इसी मरघट में ,
मोहल्ले के रहवासियों के लिए आबादी के निस्तार का
एक हिस्सा ही है यह/ मरघट मेरे छत से दिखता है /
मेरे घर और मरघट के बीच एक बहुत बड़ा ताल है
तालाब नुमा /इसमें "आब" नहीं है /फैली है बेशर्मी
डबरा है थोडा सा /इसी में लोटते रहते हैं दिन भर
भैंसें, सूअर ,बकरियां ,गाँयें,कुत्ते और कुत्तों के पिल्लै
चरवाहे,नशाखोर ,जुआरी ,कचरा बीनने वाले बच्चे ,रात में
कबर बिज्जू /किनारे --नाऊ,धोबी .पान और चाय की दुकान
दुकानों पर ग्राहक .भीड़ .सोहदे .बाल कटवाते लोग
सड़क से स्कूल जाती लड़कियों को घूरते ,पेपर पढ़ते .बीडी पीते चेहरे
दिशा मैदान करने वाले गालो पर हाथ धरे बेशर्मी की आड़ में चैन से शौच करते है /
लोग जलाये जाते हैं ,लोग दफनाये जाते है इसी मरघट में
पर इस दिनचर्या में कोई खलल नहीं पड़ता/एक डाक्टर हैं
अस्पताल भी है उनका इसी मरघट के किनारे
मरीजों के पलस्तर काट काट करफेंक देते हैं .कर्मचारी इसी मरघट में रोज /
छितराए रहते हैं मानव अंग प्रत्यंग रोज इसी मरघट में ,इन्ही में खेलते हैं
कचरा बीनने वाले बच्चे कुत्ते. कुत्तों के पिल्लै /तालाब और मरघट को
अलग करने वाले मेड पर एक आम का पेड़ है ,कितना पुराना है किसी को नहीं पता
चांदनी रात में मेरे घर की छत से दिखता है.मरघट का विस्तार और आम का पेड़/
मेरे लिए आम के पेड़ का इस जगह होने का कोई अर्थ ,या प्रयोजन नहीं
पर आम के पेड़ का इस जगह होने का अर्थ भी है ,प्रयोजन भी है
पेड़ है तो छाया है .कोटर है मधु मक्खियों का छत्ता है चिड़ियाँ है घोसला है
गलियों में लुका छिपी खेलते बच्चों की तर्ज पर आगे पीछे सरपट भागती हैं
गिलहरियाँ इस की मोती डालों के बीच /इस पेड़ के वंहा होने की कोई योजना नहीं थी फिर भी वह वहां हैऔर उसके होने से बहुत कुछ है /ऋतुएं आती हैं जातीं हैं
पतझड़ होता है .बसंत आता है कोयल कूकती है छाया होती है बच्चे अमियाँ तोड़ते हैं
पत्थर मार मार कर ,मै वंहा कभी नहीं गया पर हर क्षण होता हूँ
,हर जलती चिता में हर दफ़न होती लाश में ......