मनुष्य की अदम्य जिजीविषा ,जीवन जीने की उत्कट अभिलाषा उसे सारे ख़तरों से
जूझने और निपटने की हिम्मत देती है ;यह अदम्य लालसा ही है जो जो मनुष्य
को अन्य प्रणियों से भिन्न करती है .हमारी संस्कृति ,हमारे संस्कार .हमारी
आत्मानुशासन की प्रवृत्ति ,हमारे जीवन को सुरुचिपूर्ण और आकर्षक बनती है
.हम इसी मे उठते और आगे बढ़ते हैं .यह सांस्कृतिक धरोहर हमे अपने लोक से
मिलता है.जिसका लोक जितना समृद्ध होगा उसका आभिजात्य ..उतना ही सशक्त
होगा सामर्थ्य वान होगा ..लौकिक जीवन हमे आस्था के गंगा जल मे अवगाहन
कराता है ,हमारी आस्था ही हमारी उर्जा है शक्ति है .इसके अभाव मे हम बहुत
हल्के और कमजोर होते हैं .पर यह आस्था किसी देवी देवता के प्रति नही
.मनुष्य और मनुष्यता के प्रति होना चाहिए ...आस्था के मार्ग पर भटकने का
अर्थ है मनुष्य जीवन के लक्ष्य से भटकना .सबसे जाड़ा ज़रूरी है की हमारी
आस्था और प्रतिबद्धता अपने प्रति हो .मनुष्य के प्रति हो .परिवार और समाज
के प्रति हो .धन ,धर्म पद प्रतिष्ठा मान सम्मान जाति ये सभी दूसरे नंबर पर
आते हैं .
सर्वे भवंतु सुखीनः सर्वे संतु निरामाया की हमारी कल्पना तभी साकार
होगीहमारी सबसे बड़ी समस्या आज के दिन है की हम आभिजात्य की ओर भाग रहे
हैं .हमे समझना होगा की जो लौकिक नही वह सभ्य तो हो सकता है सुसंस्कृत नही
होसकता ..समझने केलिए कह सकते हैं की जो अंतर प्यार और कांट्रेक्ट मे है
.जोलौकिक है वह प्यार करता है ,स्नेह करता है सम्मान करता है .किसी को दुख
नही देना चाहता ,अपने लिए नही दूसरोंके लिए जीना चाहता है .सहिष्णु होता
है .उन्मुक्त होता है कपाट विहीन स्वच्छन्द होता है ज
िसकी जड़ें लोक मे नही किंतु आभिजात्य है वह इन सब के बिपरीत होता है .मा
के हंत की बनी गुदड़ी लौकिक है .उस पर सुंदर कवर ,संस्कृति है ..फोम का
गद्दा आभिजात्य है सभी है ..जो आत्मीयता प्रेम स्नेह आनंद संतोष गुदड़ी मे
सोने मे है वह फोम के गद्दे मे नही .फोम आप को सुख देगा आनंद नही ..केवल
आभिजात्य होना हमे दंभ देता है .अभिमान देता है .जड़ बनता है .संबेदना
शून्य कर देता है .आज की दिनचर्या मे हम सभ्य हैं आभिजात्य हैं लेकिन लौकिक
नही .इसी मे हम अपना पं खोते जा रहे हैं और मानसिक रूप से रुग्ण तथा
गुलाम होते जा रहे हैं .हमे सोचना होगा की अपनी आने वाली पीढ़ी को उत्तरा
धिकार मे हमे क्या देना है ..तोड़ा सा अपना पन या ढेर सारा आभिजात्य
.,/हमारी जातीय संस्कृति विलुप्त हो गयी है ..इसके ज़िम्मेदार हम ही हैं
... कोई भी लकड़ी बिना स्नेह .आत्मीयता श्रम के गुड़िया नही बनती . हमे
याद रखना चाहिए ..अभी भी समय है जो जहाँ है वहीं अपने जातीय गुनो को
संरक्शाट कर सकता है .यह आप का धर्म भी है .कर्ज़ भी है ..रोटी से
पिज़्ज़ा की ओर भागती पीढ़ी ........कल क्या होगी सोचिए ज़रा