Tuesday 9 May 2017

अब्दुल रहीम खान खाना

अब्दुल रहीम खान खाना .अकबर के नौ रत्नों में सबसे नायब हीरा ,एक अद्भुत व्यक्ति .इतना बड़ा शूरमा की १६ से ७२ वर्ष की उम्र तक लडाइयां ही लड़ता और जीतता रहा /इतना बड़ा दानी की किसी ने कहा की मैंने एक लाख अशर्फियाँ एक साथ देखी नहीं.. तोउसे एक लाख अशर्फियाँ दे दी.. विनम्रता इतनी की देने के बाद भी शर्मिंदा थे ...देते समय उनकी आखे नीचे थीं ,किसी ने आँखे नीचे होने का कारन पूछा तो कहा .
देन हार कोई और है भेजत है दिन रैन
लोग भरम हमपर धरें यातें नीचे नैन ..
सहृदय ऐसे की एक सिपाही की स्त्री के एक बर्वे पर प्रसन्न हो गए ;-
प्रेम प्रीति को बिरवा चलेहु लगाय
सींचनि की सुधि लीजै मुरझ न जांय.
और सिपाही को धन धन्य देकर उसकी नवागत बधू के पास भेज दिया .और इसी चाँद पर एक पूरा ग्रन्थ ही लिख डाला
गुण के ग्राहक ऐसे की अरबी/फ़ारसी ,हिन्दी के अनेक रचना कार इनके मित्र थे.
चरित्रवान इतने की रूपवती के प्रणय निवेदन के कथन ..की मुझे अपने जैसा पुत्र दे दो .पर अपना सर उसकी गोद में डाल दिया ..माँ कहकर
.तुलसी के मित्र थे .अकबर के विस्वास पात्र थे .जहाँगीर और शाहजहाँ के द्वन्द में इस कदर फंसे की पिस गए .जेल में डाल दिए गए उनके पुत्र दरब खान का सर काट कर उनके पास भेज दिया गया .उनके पूरे परिवार को जालिमो ने मार दिया फिर भी स्वाभि मान नहीं छोड़ा ...
रहिमन मोहि न सुहाय अमिय पियावै मान बिन
.बरु विष देई बुलाय मान सहित मरिबो भलो .
और प्रेमी इतने गहरे की ..
अंतर दाव लगी रहे धुंवा न प्रगट सोय
कई जिय जाने आपनो या सर बीती होय ..
जे सुलगे ते बुझ गए बुझे ते सुलगे नाहि
रहिमन दाहे प्रेम के बुझी बुझी के सुल गाहि .
कल आप ने यहाँ तक पढ़ा था ..अब आगे पढ़िए ..
..
(२ .अब्दुल रहीम खानखाना )कल से आगे ..पढिये .
भक्त ऐसे की कृष्ण मय हो गए कवियों ने लिखा कोटिन हिन्दू वारिये मुस्लमान हरि जनन पर ,.कुल मिला कर एक ऐसा व्यक्तित्व
जिसे पढ़ कर आप पूरी एक कौम के बारे में अपनी जान कारी को अधूरी मानने पर विवास होंगे ..
कल से आगे ..कल के लेख में अशुद्धियाँ थीं बाद में दूर किया अब नही हैं .आज कोशिस की है की अशुद्ध न हो फिर भी होगा ही ..आज और अच्छा बना है पढ़िए
रहीम को पढ़ते समय मुझे लगा की उनका पूरा जीवन -राजसी विलास का रहा हो ,.दर दर,मारे मारे फिरने का रहा हो, युद्ध और फतह का रहा हो ,राजा, के क्रोध काल का हो ,कुचाली दोस्तों के विश्वास घातके समय का रहा हो, एक आंवा था जो भीतर ही दहक रहा था /
रहीम के बारे में एक कहानी मिलती है की तान सेन ने अकबर के दरबार में एक पद गाया, जो इस प्रकार था .
जसुदा बार बार यों भाखै है
कोऊ ब्रज में हितू हमारो चलत गोपालहिं राखै ...
और अकबर ने अपने सभा सदों से इसका अर्थ कहने को कहा ,
तनसेन ने कहा --यशोदा बार बार अर्थात पुनः पुनः यह पुकार लगाती है की है कोई ऐसा हितू जो ब्रज में गोपाल को रोक ले .
शेख फैजी ने अर्थ कहा ....बार बार का मतलब ..रो रो कर रट लगाती है .बीरबल ने कहा बार बार का अर्थ है द्वार द्वार जाकर यशोदा पुकार लगाती है ...खाने आजम कोका ने कहा बार का अर्थ दिन है और यशोदा प्रतिदिन यही रटती रहती है .अब रहीम की बरी थी .उन्होंने अर्थ कहा ...तानसेन गायक हैं इनको एक ही पद को अलापना रहता है इस लिए उन्हों ने बार बार का अर्थ पुनुरुक्ति किया शेख फैजी फ़ारसी का शायर हैं इन्हें रोने के सिवा कोई काम नहीं .राजा बीर बल द्वार द्वार घूमने वाले ब्राम्हण हैं इसलिए इनका बार बार का अर्थ द्वार द्वार ही उचित है, खाने आजम कोका नजूमी (ज्योतिषी) हैं उन्हें तिथि बार से ही वास्ता पड़ता है इसलिए बार बार का अर्थ उन्होंने दिन दिन किया ,.
पर हुजूर वास्तविक अर्थ यह है की
यशोदा का बार बारअर्थात रोम रोम पुकारता है की कोई तो मिले जो मेरे गोपाल को ब्रज में रोक ले .इस ब्य्ख्या से रहीम की विद्ग्घ्ता और साहित्य की समझ का पता चलता है
इस से रहीम के उस गहरे हिन्दुस्तानी रंग का पता चलता है जो रोमांच को सात्विक भाव मानता हैऔर रोम रोम में ब्रम्हांड देखता . जो शरीर के रोम जैसे अंग को भी प्राणों का सन्देश वाहक मानता है जो वनस्पति मात्र को विरत अस्तित्व का रोमांच मानता है रहीम का जीवन एक पूरा दुखांत नाटक है .जिसमे बहुत से उतर चढाव हैं .महात्मा तुलसी से उनकी प्रगाढ़ मित्रता थी .बाप बैरम खान अकबर की ही तरह तुर्किस्तान के एक बहुत बड़े कबीले के सरदार थे वे सोलह वर्ष की आयु से ही हुमायू के साथ रहे .उन्ही की कूबत थी की हुमयू को फिर से दिल्ली की राजगद्दी पर बिठाया ,हुमायूँ के मरने पर वे ही अकबर के अभिभावक बनगए.जिस साल हुमायूँ मरे उसी साल लाहौर में रहीम का जन्म हुआ .रहीम की माँ अकबर की मौसी थीं .अकबर से दूसरा रिश्ता भी था ,बैरम खान की दूसरी शादी बाबर की नतिनी सलीमा बेगम सुल्ताना से हुई थी .बैरम खान के मरने के बाद अकबर के साथ सलीमा का पुनर्विवाह हुआ ,पर भाग्य का खेल ,चुगुल खोरों ने बैरम खान और अकबर के बीच भेद की गहरी खाई खोद दी .बैतररम खान ने विद्रोह किया परास्त हुए ,उन्हें हज करने जाने की सजा मिली.वे गुजरात पहुंचे थे की उनका डेरा लुट गया बैरम खान का क़त्ल हो गया ,बफदारों ने ओ परिवार बचाया ,चार वर्ष के रहीम बारह वर्ष की सलीमा सुल्ताना बेगम .अहमद बाद पहुंचे .जब रहीम पांच वर्ष के थे तभी अकबर ने उन्हें अपने संरक्षण में ले लिया .शिक्षा दीक्षा कराई.बड़े सरदार मिर्जा अजीज कोकलताश की बहन माह बनू बेगम से निकाह करवाया .उन्नीस वर्ष की आयु में गुजरात का युद्ध जीत कर वहा के सूबेदार बने ....
वे तुलसी के परम मित्र थे .और तुलसी को बेहतरीन इंसान मानते थे ..
सुरतिय नर तिय नागतिय सब चाहत अस होय
गोद लिए हुलसी फिरें तुलसी सों सूत होय
और रामचरित मानस को बेहतरीन ग्रन्थ ........
राम चरित मांनस विमल सब ग्रंथन को सार
हिंदुआं को वेद सैम तुरकन प्रकट कुरान ....
कबीर तुलसी रहीम और रसखन मध्यकाल के चार बेहतरीन इंसान ..कबीर संत थे एक बेहतरीन इंसान थे .अनपढ़ गृहस्त थे .जाति पांति धन धर्म से परे थे .मन से साफ़ थे .कबीर की भाषा आम आदमी की भाषा थी.वे लिखते नहीं थे केवल बोलते थे लोक जीवन के बहुत नजदीक थे .उनके प्रतीक दृष्टान्त लोक जीवन से आते थे . वे राम नाम जपते जरुर थे पर पूजा और आडम्बर के विरोधी थे उनके राम दशरथ के बेटे राम नही थे .इस धरती पर कबीर से बड़ा कोई इन्सान पैदा ही नहीं हुआ ,एक मुकम्मल इन्सान क्या होता है जानने के लिए हर किसी को कबीर पढ़ना चाहिए .अनगढ़ ,सहज ,भीतर- बाहर एक ,निर्भय ,आस्थावान ,जागृत विवेक .बिना पढ़े पूरी तरह ज्ञानी ,प्रेमानुभूति की पराकाष्ठा को समझाने वाला .मनुष्यता का रक्षक ,जागृत ,त्यागी गृहस्थ ,मनुष्यता की रक्षा के लिए भगवान से भी मुठभेड़ करने को आमादा ,जीवन और जगत को पूरी तरह समझाने वाला ,उसकी नश्वरता का गायक .मनुष्य इस धरती पर दूसरा कोई नहीं ...कबीर को जानना एक तपस्या है .उसे समझना मनुष्य बनने के रस्ते में एक सफल कदम है, उसे जीना ही मनुष्य होना है .कबीर सत्य है, कबीर नित्य है, कबीर .लोक है ,कबीर लोक राग है ,कबीर जिजीविषा है ..अपने लोक को ,अपने लोकराग को .अपने सत्य को अपने नित्य में जी पाना ही कबीर होना है .उसे पढ़ना एक रोमांच है .उसे समझना ब्रम्ह को ,प्राणी को जानना है ,उसे जीना एक ताकत है ,कबीर जीवन की हिम्मत है .जीवन की कला है ..आज कबीर की ही सबसे जादा जरूरत है . कबीर धर्म की ब्याख्या है .कबीर कर्म का प्रमाण है .वह निष्काम कर्मयोगी गृहस्थ ...वेद की ब्याख्या है .पुरानो की समीक्षा है वेदांत दर्शन का निचोड़ है ....
तुलसी महात्मा थे . भक्त थे . पढ़े लिखे थे . गृहस्त नहीं थे .पर संत नहीं थे .उन्हों ने अपने काम को पीटपीट के राम बना दिया था .और राम के परम भक्त थे.संस्कृत के विद्वान थे पर अवधी में लिखते थे वे.उनमे भी वे सारे गुण थे जो कबीर में थे बल्कि वे पढ़े लिखे थे पुरानो के जादा नजदीक थे परन्तु वेद वेदांत के ज्ञाता थे . रहीम .के परम मित्र थे .और रहीम तुलसी को बेहतरीन इंसान मानते थे ..
सुरतिय नर तिय नागतिय सब चाहत अस होय
गोद लिए हुलसी फिरें तुलसी सों सूत होय
और रामचरित मानस को बेहतरीन ग्रन्थ ........
राम चरित मांनस विमल सब ग्रंथन को सांन 
हिंदुअन को वेद सम तुरकन प्रकट कुरान ....
रहीम अकबर के दरबारी थे तुलसी नही थे .हाँ अकबर ने चाहा था पर तुलसी ने अकबर को सीधा सा जबा दे दिया था .. 
होऊं चाकर रघुबीर को पटो लिखो दरबार .
तुलसी अब का होंही गे नर के मंसब दार ..
.मतलब हिम्मती थे निडर थे ब्राम्हण थे .लिखते अवधी में थे . लोक जीवन के बहुत नजदीक थे .उनके प्रतीक दृष्टान्त लोक जीवन से आते थे .रहीमऔर तुलसी दोनों समकालीन थे.रहीम संस्कृत अवधि अरवी फारसी के जानकार थे .सभी भाषाओं का आदर करते थे सभी में लिखते थे .वे मुसलमान थे पर भक्त थे .राम के भी और कृष्ण के भी .कृष्ण के एक परम भक्त और थे रसखान .इन पर फिर कभी ..
हाँ तो मैं कह रहा था की तुलसी ने कभी मुस्लिम धर्म की कोई बात नहीं की .अरवी और फारसी की चर्चा तक नहीं की ...रहीम अरवी फारसी के साथ हिन्दवी में भी लिखते रहे और नमाज के साथ साथ पूजा भी करते रहे .वे दरबारी थे .शासक थे तलवार के धनी थे फिर भी भक्त थे .महात्मा थे संत थे .उदार थे ..उन्हों ने तुलसी और मांनस दोनों की प्रशंसा की .पर तुलसी ने ऐसा कहीं नहीं किया कभी नहीं किया .एक बार भी रहीम का जिक्र नही किया अरवी फारसी का नाम तक नहीं लिया प्रशंसा की तो बात ही छोडिये .इसी लिए मैंने कहा तुलसी संत नहीं थे .उनमें हिंदुत्व .और हिंदी संकृत प्रेम तो होना लाजमी था पर अरवी फारसी को जानने की ललक भी नहीं थी यह समझ से परे है .सम्मान तो जाने दीजिये .रहीं म तो अपने को भक्त कहलाने में खुस थे पर तुलसी इस दिशा में मौन ही रहे.बाबा तुलसी दास ने मानस लिख कर राम को स्थापित किया .हिन्दुओं को संगठित किया .लेकिन अपने सम्पूर्ण लेखन में देशकी अधी जनसंख्या का कोई उल्लेख नहीं किया .शैव ,वैष्णव, स्मार्त, साधू ,संत ,योगी ,गृहस्त ऊँचनीच का भेद भाव त्याग कर एक होने और लड़ाई ख़तम करने की बात की .किन्तु उन्हों ने कहीं भी .हिन्दू मुसलमान ,अवधि फारसी संस्कृत और अरबी,की बात नहीं की ,बौद्धों की बात नहीं की जैनियों की बात नहीं की .मतलब वे हिन्दुओं को संगठित करते रहे ,पर मुसलमान बौद्ध ,जैन की चिंता नहीं की ..अवधी में लिखते रहे ..पर .अरबी और फारसी ..तथा अन्य बोलियों की चर्चा नहीं की ...जब की उस समय की सबसे बड़ी जरुरत यही थी ..आमिर खुसरो ,कबीर ,जायसी .रहीम ,रसखान ..जैसे नायक .हिन्दू मुसलमान .और भाषा की समस्या से दो चार होते रहे ..रहीम जैसे .रसखान जैसे विद्वानों ने कृष्ण भक्ति की प्रन्संशा की .रहीम ने तो तुलसी दास और मानस तक की प्रसंशा की ..पर तुलसी ने ऐसा कभी नहीं किया ..आखिर तुलसी दास ने ऐसा क्यों किया ..यह प्रश्न मेरे दिमाग को परेशान करता है .कोई भी बड़ा रचना कार अपने युग से उस काल की सबसे बड़ी समस्या से मुह मोड़ कर कैसे रह सकता है .बड़ी बड़ी लडाइयां हो रहीं थीं अकबर ने तोडर मल ने सभी ने हिन्दू मुसलमान को एक करने की कोशिस की .अकबर ने तो दीनेइलाही .लिखा .पर तुलसी ने इस दिशा में मौन क्यों साधे रखा ... .इस मायने में रहीम और रसखान दोनों कबीर की तरह तुलसी से बहुत आगे रहे .
मैं तो सोचता हूँ की अगर तुलसी ने रहीम और रसखान की तरह का आचरण किया होता तो शायदहमारी बहुत बड़ी समस्या ख़त्म हो जाती कम से कम उर्दू भाषा का जन्म तो नहीं होता .इस मायने में आमिर खुसरो की भी चर्चा कभी करूँगा . आज इतना ही ..
बहुरि बंदि खलगन सितभायें जे बिन काज दाहिने बाएं ..तुलसी की खल वंदना के साथ रहीम का चौथा एपिसोड लिखना शुरू कर रहा हूँ .सज्जन लोग पढेंगे ,आदर करेंगे ...
अमित उदार अति पावन विचारी चारू ,जहाँ तहां आदरियो गंगा जी के नीर सों /
खलन के घालिबे को खलक के पलिबे को ,खान खाना एक रामचन्द्र जी के तीर सों //
गंगा जल की तरह पवित्र राम के तीर की तरह शत्रु विनाशक परन्तु जगत पालक ब्यक्तित्व को उनकी कृति में तलाश क रने की लालसा ,ललक ,जग उठी है /
रहीम ने प्रेम पंथ का एक चित्र खींचा है ..
रहिमन मैं तुरंग चढी चलिबो पावक मांहि
प्रेम पंथ ऐसो कठिन सब सों निबहत नाहि /
घोड़े पर सवार होकर आग पर चलाना .और निबाह लेना सब के बसबूते का नहीं.रहीम जिन्दगी भर घोडेपर सवार हो कर आग में दौड़ते रहे . रहीम के काब्य तुरंग की यात्रा भी अग्नि यात्रा ही तो है .वह अग्नि है जीवन के सहज प्यार की जो कभी बड़ी सुखद कभी बड़ी दुखद रही ,पहले पड़ाव तक चढ़ती जवानी के अनुभवों से गुजरे ,पर वे भी राजसी जीवन के नहीं थे ,बिभिन्न प्रकारके सामान्य जन की मानसिक स्थितियों में प्यार के अनुभव थे ,इनमे हांस -विलाश है सजने सजाने का भाव है लालसा विदग्धता छल है मान मनौवल है प्रतीक्षा है राग रंग है ईर्ष्या है उत्कंठा है और लगन है ,कुल मिला कर लौकिक श्रृंगार की लहक दार .ललक मय छटा है .
इस काल की दो रचनाएँ हैं बरवै नईका भेद और नगर शोभा ,बरवै नईका भेदमें नायिका की बिभिन्न अवस्थाओं का चित्र है ,
एक उदाहरन .-
मितवा चलेऊ विदेसवा मन अनुरागि
-पिय की सुरति गगरिया रहि मग लागि
प्रिय की स्मृति का कलश लिए नायिका रास्ते में खड़ी है कब प्रिय लौटेंगे और स्मृतियों का कलश उनके लिए मंगल कलश बनेगा , 
दूसरा चित्र
.भोरहिं बोल कोयलिया बढ़वति ताप
घरी एक धरि अलिया रहु चुप चाप ./
रात भर स्मृतियों में खोये खोये नींद उचटी रही जरा सी आंख लगी तो कोयल सबेरे ही बोल पडी और सबेरे सबेरे ताप चढ़ गया एक घड़ी तक तो वह चुप रहती ,पहले लेखमे मैंने बताया है की अपने एक सिपाही की पत्नी के चाँद से प्रभावित हो कर रहीम ने उसे धन देकर छुट्टी भेजा और उसी छंद में पुस्तक लिख दी नईका भेद .इसी काल की दूसरी रचना नगर- शोभा में बिभिन्न ब्यावसायों वर्गों ,जातियों उपजातियों की रूपसी तरुणियों के चित्र हैं 
,कुजडिन का एक रूप देखिये.
भांटा वरन सु कौजरी बेचै सोवा साग
नीलजु भई खेलत सदा गारी दै दै फाग ,
--बैगन की तरह काली कुजडिन सोवा साग बेचती है और निर्लज्ज गली दे दे कर फाग खेलती है ..इस रचना में कोई नहीं छूटा हैदफाली गाडीवान महावत नाल वन्दिनी चिरवा दारीनि,सईस ,काम ग़री ,नगारची ,बाज दारिनी ,दाव ग़री,साबुनी ग़री ,कुंडी गरिन,जिले दारी नी तक न जाने कितनी रोजगार में लगीं महिलाओं के चित्र हैं .जिले दारिनी का चित्र ..औरन को घर सघन मन चले जो घूंघट माह ,वाके रंग सुरंग को जिले दार पर छांह रुतबा तो देखिये .जिले दार बेचारा उसके बस में है,.बस आज इतना ही
बहुरि बंदि खलगन सितभायें जे बिन काज दाहिने बाएं ..तुलसी की खल वंदना के साथ रहीम का चौथा एपिसोड लिखना शुरू कर रहा हूँ .सज्जन लोग पढेंगे ,आदर करेंगे ...
अमित उदार अति पवन विचारी चारू ,जहाँ तहां आदरियो गंगा जी के नीर सों /
खलन के घालिबे को खलक के पलिबे को ,खान खाना एक रामचन्द्र जी के तीर सों //
गंगा जल की तरह पवित्र राम के तीर की तरह शत्रुविनाशक परन्तु जगत पलक ब्यक्तित्व को उनकी कृति में तलाश्काराने की लालसा ,ललक ,जग उठी है /
रहीम ने प्रेम पंथ का एक चित्र खींचा है ..
रहिमन मैं तुरंग चढी चलिबो पावक मांहि
प्रेम पंथ ऐसो कठिन सब सों निबहत नाहि /
घोड़े पर सवार होकर आग पर चलाना .और निबाह लेना सब के बसबूते का नहीं.रहीम जिन्दगी भर घोडेपर सवार हो कर आग में दौड़ते रहे . रहीम के काब्य तुरंग की यात्रा भी अग्नि यात्रा ही तो है .वह अग्नि है जीवन के सहज प्यार की जो कभी बड़ी सुखद कभी बड़ी दुखद रही ,पहले पड़ाव तक चढ़ती जवानी के अनुभवों से गुजरे ,पर वे भी राजसी जीवन के नहीं थे ,बिभिन्न प्रकारके सामान्य जन की मानसिक स्थितियों में प्यार के अनुभव थे ,इनमे हस -विलाश है सजाने सजाने का भाव है लालसा विदग्धता छल है मन मनौवल है प्रतीक्षा है राग रंग है ईर्ष्या है उत्कंठा है और लगन है ,कुल मिला कर लौकिक श्रृंगार की लहक्दार .ललक माय छटा है .इस काल की दो रचनाएँ हैं बरवै नईका भेद और नगर शोभा ,बरवै नईका भेदमें नायिका की बिभिन्न अवस्थाओं का चित्र है ,एक उदाहरन .-मितवा चलेऊ विदेसवा मन अनुरागि
-पिय की सुरति गगरिया रहि मग लागि
प्रिय की स्मृति का कलश लिए नायिका रास्ते में खड़ी हैकब प्रिय लौटेंगे और स्मृतियों का कलश उनके लिए मंगल कलश बनेगा ,दूसरा चित्र
.भोरहिं बोल कोयलिया बढ़वति ताप
घरी एक धरि अलिया रहु चुप चाप ./
रात भर स्मृतियों में खोये खोये नींद उचटी रही जरा सी आंख लगी तो कोयल सबेरे ही बोल पडी और सबेरे सबेरे ताप चढ़ गया एक घड़ी तक तो वह चुप रहती ,पहले लेखमे मैंने बताया है की अपने एक सिपाही की पत्नी के चाँद से प्रभावित हो कर रहीम ने उसे धन देकर छुट्टी भेजा और उसी छंद में पुस्तक लिख दी नईका भेद .इसी काल की दूसरी रचना नगर- शोभा में बिभिन्न ब्यावसायों वर्गों ,जातियों उपजातियों की रूपसी तरुणियों के चित्र हैं ,कुजडिन का एक रूप देखिये.
भांटा वरन सु कौजरी बेचै सोवा साग
नीलजु भई खेलत सदा गारी दै दै फाग ,
--बैगन की तरह काली कुजडिन सोवा साग बेचती है और निर्लज्ज गली दे दे कर फाग खेलती है ..इस रचना में कोई नहीं छूटा हैदफाली गाडीवान महावत नाल वन्दिनी चिरवा दारीनि,सईस ,काम ग़री ,नगारची ,बाज दारिनी ,दाव ग़री,साबुनी ग़री ,कुंडी गरिन,जिले दारी नी तक न जाने कितनी रोजगार में लगीं महिलाओं के चित्र हैं .जिले दारिनी का चित्र ..औरन को घर सघन मन चले जो घूंघट माह ,वाके रंग सुरंग को जिले दार पर छांह रुतबा तो देखिये .जिले दार बेचारा उसके बस में है,.बस आज इतना ही