Sunday 28 April 2013

anhad - vani: यह ढलने वाला

anhad - vani: यह ढलने वाला: आग हुई चूल्हे की ठंडी अदहन नहीं उबलने वाला
 हर दिन उल्कापिंड गिरते आसमान से हम क्या पाते
 आंधी वाली सुबहे आती चक्रवात खपरैल उड़ाते
 इस सूरज से अब क्या डरना शाम हुई  ढलने वाला है .


anhad - vani: दर्द के गाँव से नित गुजरना ही है

anhad - vani: दर्द के गाँव से नित गुजरना ही है: दर्द के गाँव से नित गुजरना ही है ,हम को जीना यहीं ,यहीं मरना भी है अपनी फितरत में है दर्द को जीतना, दर्द लेना भी है दर्द सहना भी है दर्द ...

anhad - vani: सोचिए ज़रा

anhad - vani: सोचिए ज़रा: मनुष्य की अदम्य जिजीविषा ,जीवन जीने की उत्कट अभिलाषा उसे सारे ख़तरों से जूझने और निपटने की हिम्मत देती है ;यह अदम्य लालसा ही है जो जो मन...

anhad - vani: कृपया बच्चों को भगवान का असली अर्थ समझाइये .

anhad - vani: कृपया बच्चों को भगवान का असली अर्थ समझाइये .: मुझे नरक जाना पसंद है पर इस तरह के संतो का सानिध्य मोक्ष नही चाहिए कतई नही |.वैसे मैं भगवान को मानता हूँ पर स्वर्ग नरक मोक्ष ,देबी देव...

anhad - vani: फागुन जोग लिखी ..

anhad - vani: फागुन जोग लिखी ..: चुगुली करती हवा निगोड़ी मधुऋतु  अलख जगाये मैना करती सीना जोरी रुनझुन पायल गए फागुन जोग लिखी .. धीरे धीरे बही फगुनहट चंपा महकी र...

Wednesday 24 April 2013

फागुन जोग लिखी ..


चुगुली करती हवा निगोड़ी
मधुऋतु  अलख जगाये
मैना करती सीना जोरी
रुनझुन पायल गए
फागुन जोग लिखी ..
धीरे धीरे बही फगुनहट
चंपा महकी रात
लादे पलास लाल दिसि चारो
आँखें करतीं बात
चैत में धूम मची ..
बौरे आम टिकोरा झूलें
भौंरा बांस लुभाए
खेत पके खलिहान जगे सब
कोयल पंचम गए
बिंहसती धुप खिली ..
नीरस हुई निगोड़ी पछुवा
नीकी लगे छाँव
सूखन लगे ताल तलैया
बगिया सिमटा गाँव
धूप  की तेज बढ़ी ..
सूरज ने फैलाई बांहें
लूह चले चहुँ ओर
दहकन लागी दासों दिसायें
छाँव खोजती ठौर
अभी से  तपन बढ़ी ..
पके आम चुचुआने महुवा
बगिया सिमटा गाँव
ताल सरोवर दरकन लागे
धधक उठी हर ठाँव
भोर कुछ खिली खिली..
भांय भांय  करती दुपहरिया
चिड़िया दुबकी पात
नाच रही चिल चिल गन गनियां
सुलगे आधी रात
जवानी ग्रीष्म चढी ..
फागुन जोग लिखी .....

Sunday 21 April 2013

क्या ? ऐसा नहीं हो सकता /

क्या ? ऐसा नहीं हो सकता / कि जब भी मिलें हम एस तरह मिलें ,जैसे मिलती हैं , अलग अलग दिशाओं में ब्याही दो सखियाँ वर्षों बाद किसी मेले में / जीवन में बहुत बवाल है वरना ,कौन भूलता है बेफिक्र दिनों को ,आप भी नहीं भूले होंगे पर याद नहीं करते होंगे हरदम , आखिर कौन है इतना फुर्सतिहा / बहुत मार काट है इन दिनों , जिसे देखो वही दूसरे को धकियाते जा रहा है / ऐसे में महज इतना हो जाय तो भी अच्छा है कि जब आप थक हार कर पोंछ रहे हों अपना पसीना तो याद आ जाय पसीना पोंछते पिता का थका चेहरा और यह की दुनिया सिर्फ हमारी बपौती नहीं है यहाँ सभी को हक है जीने का अपनी आजादी के साथ /

तेरे प्यार की हिफाजत कुछ इस तरह से की है ,

तेरे प्यार की हिफाजत कुछ इस तरह से की है ,
जब भी कभी किसी ने प्यार से देखा तो नजरे झुका ली हमने /
बस यही सोच कर तुझसे मोहब्बत करता हूँ मैं
मेरा तो कोई नहीं है .. मगर तेरा तो कोई हो ...

Thursday 18 April 2013

.जब जब बाजे खझडिया त हिरनी विसुरै हो .

कल राम नवमी है .

.शाक्त देवी को बलि देंगे वैष्णव राम की जय करेंगे .

.हम जो अयोध्या वासी हैं .क्या करें ..सोहर गायेंगे .आप को सुनना है ......सुनिए .

.पर ध्यान रहे रोना नहीं है .
..जब जब बाजे खझडिया त हिरनी विसुरै हो .
राम का मुंडन है .सरयू के किनारे एक हिरन का जोड़ा घास चर रहा है ..हिरनी की नजर चहलकदमी पर पडी तो उसने ..हिरन से कहा ,प्रिय लगता है आज महाराज दशरथ के यहाँ कोई उत्सव है .चलो छिप जाओ ..नहीं तो तुम्हारा शिकार हो जाएगा .

.अभी बात पूरी हुई ही नहीं थी की हिरन को वान लग गया .वह मर गया .शिकारी उसे कंधे पर लेकर दशरथ के दरबार में गया, माता कौशल्या के हवाले किया .हिरनी उसके पीछे पीछे गयी ..कौशल्या ने हिरनी से आने का कारन पूछा तो उसने कहा ..माता तुम ऐसा करो हिरन का मांस निकाल लो राम के लिए व्यंजन बनाओ .. और खाल हमें दे दो .हमें खुसी होगी ..हम चले जायेंगे |
कौशल्या बोली ..तुम खाल का क्या करोगी ....हिरनी
हिरनी बोली....जंगल के किसी सूखे ठूठ पर लटका कर इसके इर्द गिर्द घास चरुन्गी .मुझे संतोष होगा की मेरा पति मेरे पास है .
कौसल्या पहले तो राजी हो गयीं .पर तुरंत मना कर दिया ..बोलीं ....
.जाहु हिरनी घर अपने खलारिया न देबय हो ..हिरनी खलरी क खझडी मढइबय बजईहैं राजा रघुबर .

..क्या करती हिरनी रोती विलखती चली गयी ....फिर क्या था हिरन के .खाल की खंझडी बनी|

राम लखन भारत सत्रुघन बजाते बजाते खेलते थे .खझडी. की आवाज हिरनी को जंगल में सुनाई पड़ती ..तो उसे अपने पति की याद आती, वह पति के स्मृति में विभोर हो जाती |
लोक गीत कार लिखता है ...जब जब बाजे खझडिया त हिरनी वीसूरय हो ......
यह मार्मिक सोहर हम माँ से सुनते थे ..सुबह जब माँ जातामें गेंहू पीसती थी तो यही सोहर गाती थी .हम खटिया से उठ कर आते और माँ की जांघ में सर रख कर सो जाते जाते के घुरुर घुरू की ध्वनी और सोहर का राग ..अलौकिक संगीत का समा .वहअब कहाँ ......कैसी लगी कथा .