Saturday 18 November 2017

दुर्लभं भारते जन्मः !!! भारतीय हेाने का गर्व करे !

1. अलबर्ट आइन्स्टीन - हम भारत के बहुत ऋणी हैं, जिसने हमें गिनती सिखाई, जिसके बिना कोई भी सार्थक वैज्ञानिक खोज संभव नहीं हो पाती।
2. रोमां रोलां (फ्रांस) - मानव ने आदिकाल से जो सपने देखने शुरू किये, उनके साकार होने का इस धरती पर कोई स्थान है, तो वो है भारत।
3. हू शिह (अमेरिका में चीन राजदूत)- सीमा पर एक भी सैनिक न भेजते हुए भारत ने बीस सदियों तक सांस्कृतिक धरातल पर चीन को जीता और उसे प्रभावित भी किया।
4. मैक्स मुलर- यदि मुझसे कोई पूछे की किस आकाश के तले मानव मन अपने अनमोल उपहारों समेत पूर्णतया विकसित हुआ है, जहां जीवन की जटिल समस्याओं का गहन विश्लेषण हुआ और समाधान भी प्रस्तुत किया गया, जो उसके भी प्रसंशा का पात्र हुआ जिन्होंने प्लेटो और कांट का अध्ययन किया, तो मैं भारत का नाम लूँगा।
5. मार्क ट्वेन- मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्यवान और सृजनशील सामग्री है, उसका भंडार अकेले भारत में है।
6. आर्थर शोपेन्हावर - विश्व भर में ऐसा कोई अध्ययन नहीं है जो उपनिषदों जितना उपकारी और उद्दत हो। यही मेरे जीवन को शांति देता रहा है, और वही मृत्यु में भी शांति देगा।
7. हेनरी डेविड थोरो - प्रातः काल मैं अपनी बुद्धिमत्ता को अपूर्व और ब्रह्माण्डव्यापी #गीता के तत्वज्ञान से स्नान करता हूँ, जिसकी तुलना में हमारा आधुनिक विश्व और उसका साहित्य अत्यंत क्षुद्र और तुच्छ जान पड़ता है।
8. राल्फ वाल्डो इमर्सन - मैं भगवत #गीता का अत्यंत ऋणी हूँ। यह पहला ग्रन्थ है जिसे पढ़कर मुझे लगा की किसी विराट शक्ति से हमारा संवाद हो रहा है।
9. विल्हन वोन हम्बोल्ट- #गीता एक अत्यंत सुन्दर और संभवतः एकमात्र सच्चा दार्शनिक ग्रन्थ है जो किसी अन्य भाषा में नहीं।
वह एक ऐसी गहन और उन्नत वस्तु है जिस पर सारी दुनिया गर्व कर सकती है।
10. एनी बेसेंट -विश्व के विभिन्न धर्मों का लगभग ४० वर्ष अध्ययन करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंची हूँ की हिंदुत्व जैसा परिपूर्ण, वैज्ञानिक, दार्शनिक और अध्यात्मिक धर्म और कोई नहीं।
११.चर्चिल .....दुनिया में और कहीं भगवान् हो या न हो भारत में अवश्य है
१२ चर्चिल.. महात्मा गाँधी .के लिए  आने वाली पीढियां यह सहज ही नही मानेगी की गाँधी की तरह कोई हद मांस का आदमी धरती पर था .अहिंसा जिसका ब्रम्हास्त्र था
दुर्लभं भारते जन्मः !!!
भारतीय हेाने का गर्व करे !

Wednesday 15 November 2017

वंशवादी’ नेहरू ने इंदिरा को नहीं, सरदार पटेल की बेटी-बेटे को संसद भेजा था !


वंशवादी’ नेहरू ने इंदिरा को नहीं, सरदार पटेल की बेटी-बेटे को संसद भेजा था !
नरेंद्र मोदी की बीजेपी को इसके लिए धन्यवाद ज़रूर देना चाहिए कि उसने इतिहास में लोगों की दिलचस्पी नए सिरे से पैदा की। बीजेपी और संघ के प्रचारतंत्र ने नेहरू को विलेन बनाने के लिए जैसा अविश्वसनीय अभियान चलाया, उसने लोगों को मजबूर किया कि वे हक़ीक़त का पता करने के लिए व्हाट्सऐप और फ़ेसबुक जैसे सोशल मीडिया के प्लेटफ़ॉर्म से उतर कर किताबों की धूल झाड़ें।
संघ संप्रदाय ने पटेल और सुभाष बोस का इस्तेमाल हमेशा नेहरू को निशाना बनाने के लिए किया। कुछ ऐसे अंदाज़ में जैसे कि जैसे उनमें कोई निजी दुश्मनी थी। लेकिन जब आप इतिहास के पन्नो से गुज़रते हैं तो पता चलता है कि तमाम विषयों पर मतभेद के बावजूद उनमें एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना में कोई कमी नहीं थी। पटेल ने ख़ुद लिखा है कि वे ‘नेहरू के वफ़ादार सिपाही हैं’ और सुभाष बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज में ‘नेहरू ब्रिगेड’ की स्थापना की थी।
इन दिनों, ख़ासकर गुजरात चुनाव को ध्यान में रखते हुए लगातार सोशलमीडिया में ऐसी कहानियाँ प्रचारित की जा रही हैं जिनमें कहा जा रहा है कि पटेल की मौत के बाद उनके बच्चों का कोई ख़्याल नहीं रखा गया। उन्होंने बड़े दुर्दिन देखे। तमाम सच्चे-झूठे क़िस्से प्रचारित किए जा रहे हैं जिसके निशाने पर पटेल विरोधी ‘वंशवादी’ नेहरू हैं, जिन्होंने अपने ख़ानदान को राजनीति में आगे बढ़ाया।
आख़िर सच्चाई क्या है ?
सच्चाई यह है कि वंशवादी नेहरू ने अपने जीते जी कभी इंदिरा गाँधी को संसद का मुँह नहीं देखने दिया, जबकि पटेल के बेटे और बेटी को लगातार संसद भेजा। ( भेजा का अर्थ यही है कि उन्हें काँग्रेस का टिकट देकर चुनाव में जिताया। )
इंदिरा गाँधी, स्वतंत्रता सेनानी थी, उन्हीं के बीच पली बढ़ी थीं। जब नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उनकी सहायक के रूप में लगातार काम करती रहीं, लेकिन नेहरू ने उन्हें सांसद या मंत्री बनाने के बारे में नहीं सोचा। 1959 के दिल्ली अधिवेशन में वे काँग्रेस की अध्यक्ष ज़रूर चुनी गई थीं, लेकिन 1960 में ही इस पद पर नीलम संजीव रेड्डी आ गए थे। 1964 में नेहरू की मौत के बाद काँग्रेस ने इंदिरा गाँधी को राज्यसभा भेजा। इस तरह वे पहली बार सांसद बनीं। राज्यसभा की इस ‘गूँगी गुड़िया’ को काँग्रेस दिग्गजों ने प्रधानमंत्री बनाया था, न कि नेहरू ने।
अब आइए देखते हैं कि नेहरू ने अपने अनन्य सहयोगी सरदार पटेल के बच्चों के साथ क्या किया जिनकी 1950 में मृत्यु हो गई थी।
मणिबेन अपने पिता सरदार पटेल के लिए उसी तरह थीं जैसे कि इंदिरा, नेहरू के लिए। वे सरदार पटेल के साथ साये की तरह रहती थीं। पटेल की मृत्यु के बाद उनके दुख को नेहरू से ज़्यादा कौन समझ सकता था। लिहाज़ा 1952 के पहले ही आम चुनाव में ही नेहरू जी ने उन्हें काँग्रेस का टिकट दिलवाया। वे दक्षिण कैरा लोकसभा क्षेत्र से सांसद बनीं। 1957 में वे आणंद लोकसभा क्षेत्र से चुनी गईं। 1964 में उन्हें काँग्रेस ने राज्यसभा भेजा। वे 1953 से 1956 के बीच गुजरात प्रदेश काँग्रेस कमेटी की सचिव और 1957 से 1964 के बीच उपाध्यक्ष रहीं।
इस तरह नेहरू के रहते मणिबेन को काँग्रेस में पूरा मान-सम्मान मिला। यही नहीं, नेहरू के समय ही सरदार पटेल के बेटे डाह्याभाई पटेल को भी लोकसभा का टिकट मिला। वे 1957 और 1962 में लोकसभा के लिए चुने गए और फिर 1973 में अपनी मौत तक राज्यसभा सदस्य रहे। (यह सहज ही समझा जा सकता है कि काँग्रेस प्रत्याशी बतौर मणिबेन और दाह्याभाई को संघ और जनसंघ के विरोध का सामना करना पड़ा होगा।)
यानी एक समय ऐसा भी था जब सरदार पटेल के बेटे और बेटी, दोनों ही एक साथ लोकसभा और फिर राज्यसभा में थे। भाई-बहन के लिए ऐसा संयोग ‘वंशवादी नेहरू’ ने ही निर्मित किया था जिन्होंने अपनी बेटी इंदिरा को जीते-जी काँग्रेस का टिकट नहीं मिलने दिया। नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे, न कि इंदिरा गाँधी।
ऐसा ही कुछ मामला नेता जी सुभाषचंद्र बोस को लेकर भी है। लगातार दुष्प्रचार किया गया कि सुभाष बोस से जुड़ी ‘फाइलों’ में ऐसी गोपनीय बातें हैं जिससे नेहरू शर्मसार हो सकते हैं, इसलिए उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जाता। यह बात भुला दी गई कि दोनों ही काँग्रेस के समाजवादी खेमे के नेता थे। कोई निजी मतभेद नहीं था। सुभाषचंद्र बोस की ‘सैन्यवाद प्रवृत्ति’ को गाँधी और उनके अनुयायी उचित नहीं मानते थे। नेहरू भी उनमें थे। लेकिन परस्पर सम्मान ऐसा कि जब सुभाष बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज बनाई तो एक ब्रिगेड का नाम नेहरू के नाम पर रखा। गाँधी जी को ‘राष्ट्रपिता’ का संबोधन भी नेता जी ने ही दिया था।
बहरहाल, मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद एक बार फिर ‘बोस फ़ाइल्स’ का हल्ला मचा। जनवरी 2016 में कई फ़ाइलें सार्वजनिक की गईं तो जो सामने आये वह प्रचार से बिलकुल उलट था। पता चला कि नेहरू ने सुभाष बोस की, विदेश में पल रही बेटी के लिए हर महीने आर्थिक मदद भिजवाने की व्यवस्था की थी। 
इन गोपनीय फाइलों से खुलासा हुआ कि ‘अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी’ (एआईसीसी) ने 1954 में नेताजी की बेटी की मदद के लिए एक ट्रस्ट बनाया था, जिससे उन्हें 500 रुपये प्रति माह आर्थिक मदद दी जाती थी। दस्तावेजों के मुताबिक, 23 मई, 1954 को अनिता बोस के लिए दो लाख रुपये का एक ट्रस्ट बनाया गया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी. सी. रॉय उसके ट्रस्टी थे।
नेहरू द्वारा 23 मई, 1954 को हस्ताक्षरित एक दस्तावेज के अनुसार, “डॉ. बी. सी. राय और मैंने आज वियना में सुभाष चंद्र बोस की बच्ची के लिए एक ट्रस्ट डीड पर हस्ताक्षर किए हैं। दस्तावेजों को सुरक्षित रखने के लिए मैंने उनकी मूल प्रति एआईसीसी को दे दी है।”
एआईसीसी ने 1964 तक अनिता को 6,000 रुपये वार्षिक की मदद की। 1965 में उनकी शादी के बाद यह आर्थिक सहयोग बंद कर दिया गया। यह मत समझिए कि तब 500 रुपये महीने कोई छोटी रकम थी। बड़े-बड़े अफ़सरों को भी इतना वेतन नहीं मिलता था।‘वंशवादी’ नेहरू ने इंदिरा को नहीं, सरदार पटेल की बेटी-बेटे को संसद भेजा था !
नरेंद्र मोदी की बीजेपी को इसके लिए धन्यवाद ज़रूर देना चाहिए कि उसने इतिहास में लोगों की दिलचस्पी नए सिरे से पैदा की। बीजेपी और संघ के प्रचारतंत्र ने नेहरू को विलेन बनाने के लिए जैसा अविश्वसनीय अभियान चलाया, उसने लोगों को मजबूर किया कि वे हक़ीक़त का पता करने के लिए व्हाट्सऐप और फ़ेसबुक जैसे सोशल मीडिया के प्लेटफ़ॉर्म से उतर कर किताबों की धूल झाड़ें।
संघ संप्रदाय ने पटेल और सुभाष बोस का इस्तेमाल हमेशा नेहरू को निशाना बनाने के लिए किया। कुछ ऐसे अंदाज़ में जैसे कि जैसे उनमें कोई निजी दुश्मनी थी। लेकिन जब आप इतिहास के पन्नो से गुज़रते हैं तो पता चलता है कि तमाम विषयों पर मतभेद के बावजूद उनमें एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना में कोई कमी नहीं थी। पटेल ने ख़ुद लिखा है कि वे ‘नेहरू के वफ़ादार सिपाही हैं’ और सुभाष बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज में ‘नेहरू ब्रिगेड’ की स्थापना की थी।
इन दिनों, ख़ासकर गुजरात चुनाव को ध्यान में रखते हुए लगातार सोशलमीडिया में ऐसी कहानियाँ प्रचारित की जा रही हैं जिनमें कहा जा रहा है कि पटेल की मौत के बाद उनके बच्चों का कोई ख़्याल नहीं रखा गया। उन्होंने बड़े दुर्दिन देखे। तमाम सच्चे-झूठे क़िस्से प्रचारित किए जा रहे हैं जिसके निशाने पर पटेल विरोधी ‘वंशवादी’ नेहरू हैं, जिन्होंने अपने ख़ानदान को राजनीति में आगे बढ़ाया।
आख़िर सच्चाई क्या है ?
सच्चाई यह है कि वंशवादी नेहरू ने अपने जीते जी कभी इंदिरा गाँधी को संसद का मुँह नहीं देखने दिया, जबकि पटेल के बेटे और बेटी को लगातार संसद भेजा। ( भेजा का अर्थ यही है कि उन्हें काँग्रेस का टिकट देकर चुनाव में जिताया। )
इंदिरा गाँधी, स्वतंत्रता सेनानी थी, उन्हीं के बीच पली बढ़ी थीं। जब नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उनकी सहायक के रूप में लगातार काम करती रहीं, लेकिन नेहरू ने उन्हें सांसद या मंत्री बनाने के बारे में नहीं सोचा। 1959 के दिल्ली अधिवेशन में वे काँग्रेस की अध्यक्ष ज़रूर चुनी गई थीं, लेकिन 1960 में ही इस पद पर नीलम संजीव रेड्डी आ गए थे। 1964 में नेहरू की मौत के बाद काँग्रेस ने इंदिरा गाँधी को राज्यसभा भेजा। इस तरह वे पहली बार सांसद बनीं। राज्यसभा की इस ‘गूँगी गुड़िया’ को काँग्रेस दिग्गजों ने प्रधानमंत्री बनाया था, न कि नेहरू ने।
अब आइए देखते हैं कि नेहरू ने अपने अनन्य सहयोगी सरदार पटेल के बच्चों के साथ क्या किया जिनकी 1950 में मृत्यु हो गई थी।
मणिबेन अपने पिता सरदार पटेल के लिए उसी तरह थीं जैसे कि इंदिरा, नेहरू के लिए। वे सरदार पटेल के साथ साये की तरह रहती थीं। पटेल की मृत्यु के बाद उनके दुख को नेहरू से ज़्यादा कौन समझ सकता था। लिहाज़ा 1952 के पहले ही आम चुनाव में ही नेहरू जी ने उन्हें काँग्रेस का टिकट दिलवाया। वे दक्षिण कैरा लोकसभा क्षेत्र से सांसद बनीं। 1957 में वे आणंद लोकसभा क्षेत्र से चुनी गईं। 1964 में उन्हें काँग्रेस ने राज्यसभा भेजा। वे 1953 से 1956 के बीच गुजरात प्रदेश काँग्रेस कमेटी की सचिव और 1957 से 1964 के बीच उपाध्यक्ष रहीं।
इस तरह नेहरू के रहते मणिबेन को काँग्रेस में पूरा मान-सम्मान मिला। यही नहीं, नेहरू के समय ही सरदार पटेल के बेटे डाह्याभाई पटेल को भी लोकसभा का टिकट मिला। वे 1957 और 1962 में लोकसभा के लिए चुने गए और फिर 1973 में अपनी मौत तक राज्यसभा सदस्य रहे। (यह सहज ही समझा जा सकता है कि काँग्रेस प्रत्याशी बतौर मणिबेन और दाह्याभाई को संघ और जनसंघ के विरोध का सामना करना पड़ा होगा।)
यानी एक समय ऐसा भी था जब सरदार पटेल के बेटे और बेटी, दोनों ही एक साथ लोकसभा और फिर राज्यसभा में थे। भाई-बहन के लिए ऐसा संयोग ‘वंशवादी नेहरू’ ने ही निर्मित किया था जिन्होंने अपनी बेटी इंदिरा को जीते-जी काँग्रेस का टिकट नहीं मिलने दिया। नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे, न कि इंदिरा गाँधी।
ऐसा ही कुछ मामला नेता जी सुभाषचंद्र बोस को लेकर भी है। लगातार दुष्प्रचार किया गया कि सुभाष बोस से जुड़ी ‘फाइलों’ में ऐसी गोपनीय बातें हैं जिससे नेहरू शर्मसार हो सकते हैं, इसलिए उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जाता। यह बात भुला दी गई कि दोनों ही काँग्रेस के समाजवादी खेमे के नेता थे। कोई निजी मतभेद नहीं था। सुभाषचंद्र बोस की ‘सैन्यवाद प्रवृत्ति’ को गाँधी और उनके अनुयायी उचित नहीं मानते थे। नेहरू भी उनमें थे। लेकिन परस्पर सम्मान ऐसा कि जब सुभाष बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज बनाई तो एक ब्रिगेड का नाम नेहरू के नाम पर रखा। गाँधी जी को ‘राष्ट्रपिता’ का संबोधन भी नेता जी ने ही दिया था।
बहरहाल, मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद एक बार फिर ‘बोस फ़ाइल्स’ का हल्ला मचा। जनवरी 2016 में कई फ़ाइलें सार्वजनिक की गईं तो जो सामने आये वह प्रचार से बिलकुल उलट था। पता चला कि नेहरू ने सुभाष बोस की, विदेश में पल रही बेटी के लिए हर महीने आर्थिक मदद भिजवाने की व्यवस्था की थी। 
इन गोपनीय फाइलों से खुलासा हुआ कि ‘अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी’ (एआईसीसी) ने 1954 में नेताजी की बेटी की मदद के लिए एक ट्रस्ट बनाया था, जिससे उन्हें 500 रुपये प्रति माह आर्थिक मदद दी जाती थी। दस्तावेजों के मुताबिक, 23 मई, 1954 को अनिता बोस के लिए दो लाख रुपये का एक ट्रस्ट बनाया गया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी. सी. रॉय उसके ट्रस्टी थे।
नेहरू द्वारा 23 मई, 1954 को हस्ताक्षरित एक दस्तावेज के अनुसार, “डॉ. बी. सी. राय और मैंने आज वियना में सुभाष चंद्र बोस की बच्ची के लिए एक ट्रस्ट डीड पर हस्ताक्षर किए हैं। दस्तावेजों को सुरक्षित रखने के लिए मैंने उनकी मूल प्रति एआईसीसी को दे दी है।”
एआईसीसी ने 1964 तक अनिता को 6,000 रुपये वार्षिक की मदद की। 1965 में उनकी शादी के बाद यह आर्थिक सहयोग बंद कर दिया गया। यह मत समझिए कि तब 500 रुपये महीने कोई छोटी रकम थी। बड़े-बड़े अफ़सरों को भी इतना वेतन नहीं मिलता था।

नेहरू की सादगी, ग़ुस्सा और आशिक़ी..!

नेहरू की सादगी, ग़ुस्सा और आशिक़ी..!




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नेहरू की मौत के तुरंत बाद चीन के प्रधानमंत्री चू एन लाई ने चीन की यात्रा पर आए श्रीलंकाई प्रतिनिधिमंडल से कहा था, "मैं खुश्चेव से मिला हूँ, मैं चांग काई शेक से मिला हूँ, अमरीकी जनरलों से भी मेरी मुलाक़ात रही है, लेकिन नेहरू से ज़्यादा अहंकारी शख़्स मैंने नहीं देखा."
बांडुंग सम्मेलन में जब श्रीलंका के प्रधानमंत्री सर जॉन कोटलेवाला ने इस ओर ध्यान दिलाया कि पोलैंड, हंगरी, बुलगारिया और रोमानिया जैसे देश उसी तरह सोवियत संघ के उपनिवेश हैं जैसे एशिया और अफ़्रीका के दूसरे उपनिवेश हैं तो नेहरू को बहुत बुरा लगा.
वो उनके पास गए और आवाज़ ऊँची करके बोले, "सर जॉन आपने ऐसा क्यों किया? अपना भाषण देने से पहले आपने उसे मुझे क्यों नहीं दिखाया?"
सर जॉन ने छूटते ही जवाब दिया, "मैं क्यों दिखाता अपना भाषण आपको? क्या आप अपना भाषण देने से पहले मुझे दिखाते हैं?"

ग़ुस्से से लाल नेहरू

इतना सुनना था कि नेहरू का चेहरा ग़ुस्से से लाल हो गया. इंदिरा गाँधी ने उनका हाथ पकड़ कर उनके कान में फुसफुसाया कि 'आप शांत हो जाइए'. लेकिन दो पड़ोसी देशों के प्रधानमंत्री स्कूली बच्चों की तरह लड़ते रहे.
वहाँ मौजूद चू एन लाई ने अपनी टूटी फूटी अंग्रेज़ी में सर जॉन को समझाना चाहा, ‘मी यॉर फ़्रेंड!’ सब लोगों ने स्तब्ध होकर देखा कि किस तरह महान लोग भी साधारण इंसानों की तरह व्यवहार कर सकते थे.
सुबह होने तक ये तूफ़ान निकल गया. सर जॉन ने बहुत गरिमापूर्ण ढंग से माफ़ी मांगते हुए कहा, "मेरा उद्देश्य इस सम्मेलन में व्यवधान पहुँचाने का कतई नहीं था."
बाद में सर जॉन कोटलेवाला ने अपनी किताब 'एन एशियन प्राइम मिनिस्टर्स स्टोरी' में लिखा, "मैं और नेहरू हमेशा बेहतरीन दोस्त रहे. मुझे विश्वास है कि नेहरू ने मेरी उस धृष्टता को भुला दिया होगा."


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नेहरू के सचिव रहे एमओ मथाई अपनी किताब 'रेमिनिसेंसेस ऑफ़ नेहरू एज' में लिखते हैं कि नेहरू इतने सुसंस्कृत थे कि अहंकारी हो ही नहीं सकते थे. लेकिन ये सही है कि उनमें धीरज नहीं था और वो बेवकूफ़ों को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे.
वैसे भी चू एन लाई को नेहरू पर फ़ैसला सुनाने का कोई हक़ नहीं था, क्योंकि उन्होंने ख़ुद भारत पर चीन के हमले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

धैर्य का अभाव

नेहरू के ग़ुस्से पर पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने एक क़िस्सा सुनाया कि एक बार नेहरू उनसे इस बात पर बहुत नाराज़ हो गए कि उन्होंने उनके नेपाल नरेश को लिखे गए पत्र को विदेश मंत्रालय के सेक्रेट्री जनरल को न दिखा कर अपनी आलमारी में रख लिया था.


नेहरूइमेज कॉपीरइटNEHRUCHURCHIL
Image captionनेहरू आधुनिक भारत के निर्माताओं में एक माने जाते हैं

उस ज़माने में नटवर सिंह सेक्रेट्री जनरल के सहायक हुआ करते थे. वो याद करते हैं, "शाम साढ़े छह बजे नेहरू का नेपाल नरेश महेंद्र को लिखा पत्र मेरे पास आया. मैंने सोचा कि सुबह इसे पढ़ूंगा. सुबह मैं सेक्रेट्री जनरल को छोड़ने हवाई अड्डे चला गया जो सरकारी यात्रा पर मंगोलिया जा रहे थे. वहाँ उनका विमान लेट हो गया."
नटवर सिंह आगे कहते हैं, "वहीं एक शख़्स मेरे पास आ कर बोला कि आपको पंडित जी बुला रहे हैं. मैं तुरंत साउथ ब्लॉक पहुँचा. वहाँ नेहरू के निजी सचिव खन्ना ने मुझसे कहा कि प्रधानमंत्री के कमरे में मत घुसिएगा. वो इतने ग़ुस्से में हैं कि कोई चीज़ आपके ऊपर फेंक कर मार देंगे. हुआ ये कि अगले दिन जैसा कि उनकी आदत थी, नेहरू विदेश सचिव के कमरे में जा पहुंचे और पूछा कि नेपाल नरेश को जो पत्र मैंने लिखा है, क्या आपने देखा है? विदेश सचिव ने कहा कि नहीं क्योंकि वो पत्र तो मेरे पास आया ही नहीं."

हमेशा फ़िट रहे नेहरू

नटवर सिंह आगे बताते हैं, "बाद में पता चला कि पत्र तो नटवर सिंह के पास है. विदेश सचिव ने नटवर को बचाने के उद्देश्य से कहा कि शायद नटवर को वो पत्र बहुत पसंद आया है. उन्होंने पढ़ने के लिए रख लिया होगा. ये सुनना था कि नेहरू का पारा सातवें आसमान को पहुंच गया. बोले मैंने वो ख़त नटवर सिंह को ख़ुश करने के लिए नहीं लिखा. फ़ौरन पुलिस बुलाइए. उनकी आलमारी तुड़वाइए और वो पत्र मेरे सामने पेश करिए. इस घटना के सात दिनों बाद तक मैं नेहरू के दफ़्तर के सामने से नहीं गुज़रा."
नेहरू के सुरक्षा अधिकारी रहे केएम रुस्तमजी अपनी किताब 'आई वाज़ नेहरूज़ शैडो' में लिखते हैं, "जब मैं उनके स्टाफ़ में आया तो वो 63 साल के थे लेकिन 33 के लगते थे. लिफ़्ट का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं करते थे. और तो और एक बार में दो सीढ़ियाँ चढ़ा करते थे. एक बार डिब्रूगढ़ की यात्रा के दौरान मैं उनका सिगरेट केस लेने उनके कमरे में घुसा तो मैंने देखा कि उनका सहायक हरि उनके फटे मौज़ों की सिलाई कर रहा है. उन्हें चीज़ों को बरबाद करना पसंद नहीं था. एक बार सऊदी अरब की यात्रा के दौरान वो उस महल के हर कमरे में जा कर बत्तियाँ बुझाते रहे, जिसे ख़ासतौर से उनके लिए बनवाया गया था."



उसी यात्रा के दौरान नेहरू को रसूल-अस-सलाम कह कर पुकारा गया था जिसका अरबी में अर्थ होता है शाँति का संदेश वाहक. लेकिन उर्दू में ये शब्द पैग़म्बर मोहम्मद के लिए इस्तेमाल होता है. नेहरू के लिए ये शब्द इस्तेमाल करने के लिए पाकिस्तान में शाह सऊद की काफ़ी आलोचना भी हुई थी.

दरियादिल नेहरू

तब जाने माने कवि रईस अमरोहवी ने एक मिसरा लिखा था जिसे कराची से छपने वाले अख़बार डॉन ने प्रकाशित भी किया था –
जप रहे हैं माला एक हिंदू की अरब,
ब्राहमनज़ादे में शाने दिलबरी ऐसी तो हो.
हिकमते पंडित जवाहरलाल नेहरू की कसम,
मर मिटे इस्लाम जिस पर काफ़िरी ऐसी तो हो.
नेहरू के पर्सनल असिस्टेंट के रूप में काम करने वाले डॉक्टर जनकराज जय ने बीबीसी से बात करते हुए एक दिलचस्प किस्सा सुनाया, "नेहरू के बाल काटने के लिए राष्ट्रपति भवन से एक नाई आया करता था. एक बार नेहरू ने उससे कहा हम विलायत जा रहे हैं. बोलो तुम्हारे लिए क्या लाएं? नाई ने शर्माते हुए कहा हज़ूर कभी-कभी आने में देर हो जाती है. अगर घड़ी ले आएं तो अच्छा होगा. जब नेहरू विलायत से लौटे तो वो नाई फिर उनका बाल काटने आया. नेहरू बोले तुम पूछोगे नहीं कि मैं तुम्हारे लिए घड़ी लाया हूँ या नहीं. जाओ सेशन (उनके निजी सहायक) से जा कर घड़ी ले लो."

नेहरू और वो टैक्सी वाला

डॉक्टर जनकराज जय एक और क़िस्सा सुनाते हैं, ''एक बार जब जवाहरलाल दफ़्तर जा रहे थे तो साउथ एवेन्यू के पास उनकी कार पंक्चर हो गई. दूर से एक सरदार टैक्सी वाले ने देख लिया. वो अपनी टैक्सी ले कर पहुंचा और बोला मैरा सौभाग्य होगा अगर आप मेरी टैक्सी में बैठ जाएं. मैं आपको दफ़्तर ले कर चलूँगा. नेहरू बिना किसी की सुने उसकी टैक्सी में बैठ गए. दफ़्तर पहुँचकर वो अपनी जेब टटोलने लगे लेकिन उनकी जेब में पैसे तो होते नहीं थे. टैक्सी वाला बोला आप क्यों शर्मिंदा कर रहे हैं. क्या मैं आपसे पैसे लूँगा? अब तो मैं पाँच दिनों तक किसी को इस सीट पर बैठाउंगा भी नहीं!"


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पूर्व विदेश सचिव दिनशॉ गुंडेविया ने अपनी आत्मकथा 'आउटसाइड आर्काइव्स' में लिखा है कि एक बार स्विट्ज़रलैंड में मशहूर अभिनेता चार्ली चैपलिन ने नेहरू को अपने घर खाने पर आमंत्रित किया. खाने से पहले एक ट्रे में शैम्पेन की कई बोतलें लाई गईं.
चैपलिन ने एक गिलास उठा कर नेहरू के हाथ में दे दिया. नेहरू बोले क्या आपको पता नहीं कि मैं पीता नहीं हूँ. चैपलिन ने कहा, "प्रधानमंत्री महोदय, आप कैसे मुझे मेरी शेंपेन पीने के सम्मान से वंचित कर सकते हैं?" नेहरू फिर भी झिझके. चार्ली झुके और उन्होंने शैम्पेन से भरा गिलास नेहरू के होठों से लगा दिया.
नेहरू ने गिलास से एक सिप लिया और पूरे वक़्त तक उस गिलास को अपने बगल में रखे बैठे रहे.
रुस्तमजी भी लिखते हैं कि उन्होंने कभी नेहरू को शराब पीते नहीं देखा. हाँ वो सिगरेट ज़रूर पिया करते थे और वो भी स्टेट एक्सप्रेस 555 जो कि उस ज़माने का ख़ासा मशहूर ब्रैंड होता था.

नेहरू का इश्क

नेहरू को लॉर्ड माउंटबेटन की पत्नी एडविना माउंटबेटन से इश्क था. मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर ने बीबीसी को बताया कि जब वो ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त थे तब उनको पता चला कि एयर इंडिया की फ़्लाइट से नेहरू रोज़ एडविना को पत्र भेजा करते थे.
एडविना उसका जवाब देती थीं और उच्चायोग का आदमी उन पत्रों को एयर इंडिया के विमान तक पहुंचाया करता था.


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नैयर ने एक बार एडविना के नाती लार्ड रैमसे से पूछ ही लिया कि क्या उनकी नानी और नेहरू के बीच इश्क था? रैमसे का जवाब था, "उनके बीच आध्यात्मिक प्रेम था." इसके बाद नैयर ने उन्हें नहीं कुरेदा. नेहरू के एडविना को लिखे पत्र तो छपे हैं लेकिन एडविना के नेहरू को लिखे पत्रों के बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं हैं.
कुलदीप नैयर ने एक बार इंदिरा गाँधी से उन पत्रों को देखने की अनुमति मांगी थी लेकिन उन्होंने उन पत्रों को दिखाने से साफ़ इनकार कर दिया था.
एडविना ही नहीं सरोजिनी नायडू की पुत्री पद्मजा नायडू के लिए भी नेहरू के दिल में सॉफ़्ट कॉर्नर था. कैथरीन फ़्रैंक इंदिरा गाँधी की जीवनी में लिखती हैं कि विजयलक्ष्मी पंडित ने उन्हें बताया था कि नेहरू और पद्मजा का इश्क ‘सालों’ चला.

इंदिरा की ख़ातिर

नेहरू ने उनसे इसलिए शादी नहीं की क्योंकि वो अपनी बेटी इंदिरा का दिल नहीं दुखाना चाहते थे. इंदिरा, नेहरू के जीवनीकार एस गोपाल से इस बात पर नाराज़ भी हो गई थी क्योंकि उन्होंने नेहरू के 'सेलेक्टेड वर्क्स' में उनके पद्मजा के लिखे प्रेम पत्र प्रकाशित कर दिए थे.


नेहरू और चर्चिलइमेज कॉपीरइटNEHRU MEMORIAL MUSEUM AND LIBRARY
Image captionब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री चर्चिल के साथ नेहरू

1937 में नेहरू ने पद्मजा को लिखा था, "तुम 19 साल की हो (जबकि वो उस समय 37 साल की थीं)... और मैं 100 या उससे भी से ज़्यादा. क्या मुझे कभी पता चल पाएगा कि तुम मुझे कितना प्यार करती हो."
एक बार और मलाया से नेहरू ने पद्मजा को लिखा था, "मैं तुम्हारे बारे में जानने के लिए मरा जा रहा हूँ.. मैं तुम्हें देखने, तुम्हें अपनी बाहों में लेने और तुम्हारी आँखों में देखने के लिए तड़प रहा हूँ."(सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ नेहरू, सर्वपल्ली गोपाल, पृष्ठ 694)

जानवरों से लगाव

नेहरू को पालतू जानवर बहुत पसंद थे. एक बार उनके कुत्ते सोना ने एडविना माउंटबेटन का उस समय हाथ काट लिया था जब वो उसे सहलाने की कोशिश कर रही थीं. नेहरू को दुःखी मन से उस कुत्ते को प्रधानमंत्री निवास से बाहर भेजना पड़ा था.
ख्रुश्चेव ने एक बार नेहरू को एक घोड़ा भेंट किया था. सऊदी शाह ने भी नेहरू को दो शानदार घोड़ियाँ भेंट में दी थीं जिन्हें कुछ दिन रखने के बाद नेहरू ने सेना को दे दिया था.
नेहरू के पास पिंजड़े में बाघ और तेंदुए के बच्चे भी रहा करते थे जो उन्हें मध्य प्रदेश के कुछ लोगों ने भेंट में दिए थे. छह महीने तक रखने के बाद नेहरू ने उन्हें दिल्ली चिड़ियाघर भिजवा दिया था.


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मथाई ने अपनी किताब 'माई डेज़ विद नेहरू' में लिखा है, "एक बार नेहरू बीमार पड़ गए और पालतू पांडा भीमसा को खाना खिलाने के लिए उनके बाड़े में नहीं जा पाए. मैं भीमसा को घर के दरवाजे पर ले आया. वो सीढ़ियाँ चढ़ कर नेहरू के शयन कक्ष में पहुंच गया. मैंने नेहरू को बांस की पत्तियाँ दी जिसे उन्होंने अपने हाथों से भीमसा को खिलाया और बहुत ख़ुश हुए."
1964 में 27 मई को पूरे भारत को पता था कि नेहरू मौत से जूझ रहे हैं. 'ब्लिट्ज़' के संपादक रूसी करंजिया ने अपने सबसे काबिल स्तंभकार ख़्वाजा अहमद अब्बास को बुलाया और कहा कि 'नेहरू किसी भी मिनट मर सकते हैं. तुम्हें चार घंटे के अंदर उनकी ऑबिट लिखनी है'.
अब्बास ने अपने को एक कमरे में बंद किया. तभी आर्ट विभाग का एक शख़्स आया और बोला पहले हेड लाइन लिखिए. अब्बास ने लिखा ‘नेहरू डाइज़,’ फिर लिखा, ‘नेहरू डेड’, फिर लिखा ‘नेहरू नो मोर.’ फिर उन्होंने तीनों हेडलाइंस को काट दिया और नए सिरे से एक हेडलाइन दी. अगले दिन यही ब्लिट्ज़ की हेडलाइन थी.... नेहरू लिव्स...