Tuesday 27 June 2017

कबीर की प्रासंगिकता

"चौदह सौ पचपन साल गये,चंद्रवार एक ठाट ठये.
जेठ सुदी बरसायत को ,पूरनमासी प्रगट भये .."   

'कबीर चरित्र बोध' ग्रन्थ के अनुसार कबीर-पंथियों ने सन्त कबीर का जन्म सम्वत १४५५ की जेठ शुक्ल पूर्णिमा को माना है.अतः आज ६१४ वीं जयंती पर सन्त कबीर को श्रन्धान्ज्ली देने का यही उचित विकल्प लगा कि आज भी उनकी प्रासंगिकता क्यों है ?इस तथ्य पर विचार किया जाए.कबीर स्कूली शिक्षा से वंचित रहे-'मसि कागद छूह्यो नहीं'कह कर उन्होंने यही जतलाया है.उन्होंने' सूफी सन्त शेख तकी' से दीक्षा ली थी ,किन्तु अपनी रचनाओं में जिस श्रद्धा और सम्मान के साथ 'रामानन्द' का उल्लेख किया है उससे यही सिद्ध होता है कि रामानन्द ही इनके गुरु थे.

कबीर की रचनाओं में काव्य के तीन रूप मिलते हैं-साखी,रमैनी और सबद .साखी दोहों में,रमैनी चौपाइयों में और सबद पदों में हैं.साखी और रमैनी मुक्तक तथा सबद गीत-काव्य के अंतर्गत आते हैं .इनकी वाणी इनके ह्रदय से स्वभाविक रूप में प्रवाहित है और उसमें इनकी अनुभूति की तीव्रता पाई जाती है.

इधर कुछ समय पूर्व ब्लाग जगत में सन्त कबीर का उपहास रामविलास पासवान की रेलवे के कुत्ते की भविष्यवाणी के रूप में जम कर किया गया था.आज के आपा-धापी के युग में जब माडर्न लोग 'मेरा पेट हाउ मैं न जानू काऊ'के सिद्धांत पर चल रहे हों तो उनसे इससे अधिक की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती!वैसे सभी रोते रहते हैं भ्रष्टाचार को और कोसते रहते हैं राजनेताओं को ;लेकिन वास्तविकता समझने की जरूरत और फुर्सत किसी को भी नहीं है.भ्रष्टाचार-आर्थिक,सामजिक,राजनीतिक,आध्यात्मिक और धार्मिक सभी क्षेत्रों में है और सब का मूल कारण है -ढोंग-पाखंड पूर्ण धर्म का बोल-बाला.

कबीर के अनुसार धर्म  

कबीर का धर्म-'मानव धर्म' था.मंदिर,तीर्थाटन,माला,नमाज,पूजा-पाठ आदि बाह्याडम्बरों ,आचार-व्यवहार तथा कर्मकांडों की इन्होने कठोर शब्दों में निंदा की और 'सत्य,प्रेम,सात्विकता,पवित्रता,सत्संग (अच्छी सोहबत न कि ढोल-मंजीरा का शोर)इन्द्रिय -निग्रह,सदाचार',आदि पर विशेष बल दिया.पुस्तकों से ज्ञान प्राप्ति की अपेक्षा अनुभव पर आधारित ज्ञान को ये श्रेष्ठ मानते थे.ईश्वर की सर्व व्यापकता और राम-रहीम की एकता के महत्त्व को बता कर इन्होने समाज में व्याप्त भेद-भाव को मिटाने प्रयास किया.यह मनुष्य मात्र को एक समान मानते थे.वस्तुतः कबीर के धार्मिक विचार बहुत ही उदार थे.इन्होने विभिन्न मतों की कुरीतियों संकीर्णताओं  का डट कर विरोध किया और उनके श्रेयस्कर तत्वों को ही ग्रहण किया.

लोक भाषा को महत्त्व 

कबीर ने सहज भावाभिव्यक्ति के लिए साहित्य की अलंकृत भाषा को छोड़ कर 'लोक-भाषा' को अपनाया-भोजपुरी,अवधी,राजस्थानी,पंजाबी,अरबी ,फारसी के शब्दों को उन्होंने खुल कर प्रयोग किया है.यह अपने सूक्ष्म मनोभावों और गहन विचारों को भी बड़ी सरलता से इस भाषा के द्वारा व्यक्त कर लेते थे.कबीर की साखियों की भाषा अत्यंत सरल और प्रसाद गुण संपन्न है.कहीं-कहीं सूक्तियों का चमत्कार भी दृष्टिगोचर होता है.हठयोग और रहस्यवाद की विचित्र अनुभूतियों का वर्णन करते समय कबीर की भाषा में लाक्षणिकता आ गयी है.'बीजक''कबीर-ग्रंथावली'और कबीर -वचनावली'में इनकी रचनाएं संगृहीत हैं.
(उपरोक्त विवरण का आधार हाई-स्कूल और इंटर में चलने वाली उत्तर-प्रदेश सरकार की पुस्तकों से लिया गया है)

कबीर के कुछ  उपदेश 

ऊंचे कुल क्या जनमियाँ,जे करणी उंच न होई .
सोवन कलस सुरी भार्या,साधू निंदा सोई..

हिन्दू मूये राम कही ,मुसलमान खुदाई.
कहे कबीर सो जीवता ,दुई मैं कदे न जाई..

सुखिया सब संसार है ,खावै अरु सोवै.
दुखिया दास कबीर है ,जागे अरु रोवै..

दुनिया ऐसी बावरी कि,पत्थर पूजन जाए.
घर की चकिया कोई न पूजे जेही का पीसा खाए..

कंकर-पत्थर जोरी कर लई मस्जिद बनाये.
ता पर चढ़ी मुल्ला बांग दे,क्या बहरा खुदाय

..इस प्रकार हम देखते हैं कि,सन्त कबीर की वाणी आज भी ज्यों की त्यों जनोपयोगी है.तमाम तरह की समस्याएं ,झंझट-झगडे  ,भेद-भाव ,ऊँच-नीच का टकराव ,मानव द्वारा मानव का शोषण आदि अनेकों समस्याओं का हल कबीर द्वारा बताये गए धर्म-मार्ग में है.कबीर दास जी ने कहा है-

दुःख में सुमिरन सब करें,सुख में करे न कोय.
जो सुख में सुमिरन करे,तो दुःख काहे होय..


अति का भला न बरसना,अति की भली न धुप.
अति का भला न बोलना,अति की भली न चूक..

मानव जीवन को सुन्दर,सुखद और समृद्ध बनाने के लिए कबीर द्वारा दिखाया गया मानव-धर्म अपनाना ही एकमात्र विकल्प है-भूख और गरीबी दूर करने का,भ्रष्टाचार और कदाचार समाप्त करने का तथा सर्व-जन की मंगल कामना का.

Saturday 17 June 2017

खान अब्दुल गफ्फार खान । सीमान्त गांधी ।

खान अब्दुल गफ्फार खान ।
सीमान्त गांधी ।
बलूच बटवारे से दुखी थे ।
वे भारत के साथ रहना चाहते थे ,लेकिन भूगोल ने उन्हें मारा ।
बापूके सच्चे अनुयायी सीमान्त जब आख़िरी बार मिले तो बापू ने खान से कहा - अब भारत का मोह त्याग दो ,अपने देश की सेवा करो ।
यह अंदाजा लगाना आसान नहीं है कि क्या गुजरा होगा दोनों के दिल में ।
वही सीमान्त गांधी पाकिस्तान में ता उम्र कैद रहे ।
69 में भारत की प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरागांधी के विशेष आग्रह पर इलाज के लिए भारत आये।
हवाई अड्डे पर उन्हें लेने श्रीमती गांधी और जे पी गए ।
खान जब हवाई जहाज से बाहर आये तो उनके हाथ में एक गठरी थी जिसमे उनका कुर्ता पजामा था ।
मिलते ही श्रीमती गांधी ने हाथ बढ़ाया उनकी गठरी की तरफ -इसे हमे दीजिये ,हम ले चलते हैं ।
खान साहब ठहरे,बड़े ठंढे मन से बोले -यही तो बचा है ,इसे भी ले लोगी ?
बटवारे का पूरा दर्द खान साब की इस बात से बाहर आ गया ।
जे पी और श्रीमती गांधी दोनों ने सिर झुका लिया ।
जे पी अपने को संभाल नहीं पाये ,उनकी आँख से आंसू गिर रहे थे ।
सबसे निवेदन है खान साहब के बारे में जानो ।

Friday 16 June 2017

मैं वहां कभी नहीं गया ..


तालाब और मरघट को
अलग करने वाले मेड पर एक आम का पेड़ है ,
कितना पुराना है किसी को नहीं पता
चांदनी रात में मेरे घर की छत से दिखता है.
मरघट का विस्तार और आम का पेड़/
मेरे लिए आम के पेड़ का इस जगह होने का कोई अर्थ ,या प्रयोजन नहीं
पर आम के पेड़ का इस जगह होने का अर्थ भी है ,प्रयोजन भी है
पेड़ है तो छाया है .कोटर है मधु मक्खियों का छत्ता है चिड़ियाँ है घोसला है
गलियों में लुका छिपी खेलते बच्चों की तर्ज पर आगे पीछे सरपट भागती हैं
गिलहरियाँ इस की मोती डालों के बीच /
इस पेड़ के वंहा होने की कोई योजना नहीं थी फिर भी वह वहां हैऔर
उसके होने से बहुत कुछ है /ऋतुएं आती हैं जातीं हैं
पतझड़ होता है .बसंत आता है कोयल कूकती है छाया होती है
बच्चे अमियाँ तोड़ते ह
पत्थर मार मार कर ,
मै वंहा कभी नहीं गया पर हर क्षण होता हूँ
,हर जलती चिता में हर दफ़न होती लाश में ......

भगत सिंह के जीवन के आखिरी क्षण

भगत सिंह की ज़िंदगी के वे आख़िरी 12 घंटे
रेहान फ़ज़ल
बीबीसी संवाददाता
लाहौर सेंट्रल जेल में 23 मार्च, 1931 की शुरुआत किसी और दिन की तरह ही हुई थी. फ़र्क सिर्फ़ इतना सा था कि सुबह-सुबह ज़ोर की आँधी आई थी.
लेकिन जेल के क़ैदियों को थोड़ा अजीब सा लगा जब चार बजे ही वॉर्डेन चरत सिंह ने उनसे आकर कहा कि वो अपनी-अपनी कोठरियों में चले जाएं. उन्होंने कारण नहीं बताया.
उनके मुंह से सिर्फ़ ये निकला कि आदेश ऊपर से है. अभी क़ैदी सोच ही रहे थे कि माजरा क्या है, जेल का नाई बरकत हर कमरे के सामने से फुसफुसाते हुए गुज़रा कि आज रात भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी जाने वाली है.
उस क्षण की निश्चिंतता ने उनको झकझोर कर रख दिया. क़ैदियों ने बरकत से मनुहार की कि वो फांसी के बाद भगत सिंह की कोई भी चीज़ जैसे पेन, कंघा या घड़ी उन्हें लाकर दें ताकि वो अपने पोते-पोतियों को बता सकें कि कभी वो भी भगत सिंह के साथ जेल में बंद थे.
बरकत भगत सिंह की कोठरी में गया और वहाँ से उनका पेन और कंघा ले आया. सारे क़ैदियों में होड़ लग गई कि किसका उस पर अधिकार हो. आखिर में ड्रॉ निकाला गया.
लाहौर कॉन्सपिरेसी केस
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अब सब क़ैदी चुप हो चले थे. उनकी निगाहें उनकी कोठरी से गुज़रने वाले रास्ते पर लगी हुई थी. भगत सिंह और उनके साथी फाँसी पर लटकाए जाने के लिए उसी रास्ते से गुज़रने वाले थे.
एक बार पहले जब भगत सिंह उसी रास्ते से ले जाए जा रहे थे तो पंजाब कांग्रेस के नेता भीमसेन सच्चर ने आवाज़ ऊँची कर उनसे पूछा था, "आप और आपके साथियों ने लाहौर कॉन्सपिरेसी केस में अपना बचाव क्यों नहीं किया."
भगत सिंह का जवाब था, "इन्कलाबियों को मरना ही होता है, क्योंकि उनके मरने से ही उनका अभियान मज़बूत होता है, अदालत में अपील से नहीं."
वॉर्डेन चरत सिंह भगत सिंह के ख़ैरख़्वाह थे और अपनी तरफ़ से जो कुछ बन पड़ता था उनके लिए करते थे. उनकी वजह से ही लाहौर की द्वारकादास लाइब्रेरी से भगत सिंह के लिए किताबें निकल कर जेल के अंदर आ पाती थीं.
जेल की कठिन ज़िंदगी
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भगत सिंह को किताबें पढ़ने का इतना शौक था कि एक बार उन्होंने अपने स्कूल के साथी जयदेव कपूर को लिखा था कि वो उनके लिए कार्ल लीबनेख़ की 'मिलिट्रिज़म', लेनिन की 'लेफ़्ट विंग कम्युनिज़म' और अपटन सिनक्लेयर का उपन्यास 'द स्पाई' कुलबीर के ज़रिए भिजवा दें.
भगत सिंह जेल की कठिन ज़िंदगी के आदी हो चले थे. उनकी कोठरी नंबर 14 का फ़र्श पक्का नहीं था. उस पर घास उगी हुई थी. कोठरी में बस इतनी ही जगह थी कि उनका पाँच फिट, दस इंच का शरीर बमुश्किल उसमें लेट पाए.
भगत सिंह को फांसी दिए जाने से दो घंटे पहले उनके वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिलने पहुंचे. मेहता ने बाद में लिखा कि भगत सिंह अपनी छोटी सी कोठरी में पिंजड़े में बंद शेर की तरह चक्कर लगा रहे थे.
'इंक़लाब ज़िदाबाद!'
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उन्होंने मुस्करा कर मेहता को स्वागत किया और पूछा कि आप मेरी किताब 'रिवॉल्युशनरी लेनिन' लाए या नहीं? जब मेहता ने उन्हे किताब दी तो वो उसे उसी समय पढ़ने लगे मानो उनके पास अब ज़्यादा समय न बचा हो.
मेहता ने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से अपना मुंह हटाए बग़ैर कहा, "सिर्फ़ दो संदेश... साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और 'इंक़लाब ज़िदाबाद!"
इसके बाद भगत सिंह ने मेहता से कहा कि वो पंडित नेहरू और सुभाष बोस को मेरा धन्यवाद पहुंचा दें, जिन्होंने मेरे केस में गहरी रुचि ली थी. भगत सिंह से मिलने के बाद मेहता राजगुरु से मिलने उनकी कोठरी पहुंचे.
राजगुरु के अंतिम शब्द थे, "हम लोग जल्द मिलेंगे." सुखदेव ने मेहता को याद दिलाया कि वो उनकी मौत के बाद जेलर से वो कैरम बोर्ड ले लें जो उन्होंने उन्हें कुछ महीने पहले दिया था.
तीन क्रांतिकारी
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मेहता के जाने के थोड़ी देर बाद जेल अधिकारियों ने तीनों क्रांतिकारियों को बता दिया कि उनको वक़्त से 12 घंटे पहले ही फांसी दी जा रही है. अगले दिन सुबह छह बजे की बजाय उन्हें उसी शाम सात बजे फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा.
भगत सिंह मेहता द्वारा दी गई किताब के कुछ पन्ने ही पढ़ पाए थे. उनके मुंह से निकला, "क्या आप मुझे इस किताब का एक अध्याय भी ख़त्म नहीं करने देंगे?"
भगत सिंह ने जेल के मुस्लिम सफ़ाई कर्मचारी बेबे से अनुरोध किया था कि वो उनके लिए उनको फांसी दिए जाने से एक दिन पहले शाम को अपने घर से खाना लाएं.
लेकिन बेबे भगत सिंह की ये इच्छा पूरी नहीं कर सके, क्योंकि भगत सिंह को बारह घंटे पहले फांसी देने का फ़ैसला ले लिया गया और बेबे जेल के गेट के अंदर ही नहीं घुस पाया.
आज़ादी का गीत
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थोड़ी देर बाद तीनों क्रांतिकारियों को फांसी की तैयारी के लिए उनकी कोठरियों से बाहर निकाला गया. भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने अपने हाथ जोड़े और अपना प्रिय आज़ादी गीत गाने लगे-
कभी वो दिन भी आएगा
कि जब आज़ाद हम होंगें
ये अपनी ही ज़मीं होगी
ये अपना आसमाँ होगा.
फिर इन तीनों का एक-एक करके वज़न लिया गया. सब के वज़न बढ़ गए थे. इन सबसे कहा गया कि अपना आखिरी स्नान करें. फिर उनको काले कपड़े पहनाए गए. लेकिन उनके चेहरे खुले रहने दिए गए.
चरत सिंह ने भगत सिंह के कान में फुसफुसा कर कहा कि वाहे गुरु को याद करो.
फांसी का तख़्ता
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भगत सिंह बोले, "पूरी ज़िदगी मैंने ईश्वर को याद नहीं किया. असल में मैंने कई बार ग़रीबों के क्लेश के लिए ईश्वर को कोसा भी है. अगर मैं अब उनसे माफ़ी मांगू तो वो कहेंगे कि इससे बड़ा डरपोक कोई नहीं है. इसका अंत नज़दीक आ रहा है. इसलिए ये माफ़ी मांगने आया है."
जैसे ही जेल की घड़ी ने 6 बजाय, क़ैदियों ने दूर से आती कुछ पदचापें सुनीं. उनके साथ भारी बूटों के ज़मीन पर पड़ने की आवाज़े भी आ रही थीं. साथ में एक गाने का भी दबा स्वर सुनाई दे रहा था, "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है..."
सभी को अचानक ज़ोर-ज़ोर से 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' और 'हिंदुस्तान आज़ाद हो' के नारे सुनाई देने लगे. फांसी का तख़्ता पुराना था लेकिन फांसी देने वाला काफ़ी तंदुरुस्त. फांसी देने के लिए मसीह जल्लाद को लाहौर के पास शाहदरा से बुलवाया गया था.
भगत सिंह इन तीनों के बीच में खड़े थे. भगत सिंह अपनी माँ को दिया गया वो वचन पूरा करना चाहते थे कि वो फाँसी के तख़्ते से 'इंक़लाब ज़िदाबाद' का नारा लगाएंगे.
लाहौर सेंट्रल जेल
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लाहौर ज़िला कांग्रेस के सचिव पिंडी दास सोंधी का घर लाहौर सेंट्रल जेल से बिल्कुल लगा हुआ था. भगत सिंह ने इतनी ज़ोर से 'इंकलाब ज़िंदाबाद' का नारा लगाया कि उनकी आवाज़ सोंधी के घर तक सुनाई दी.
उनकी आवाज़ सुनते ही जेल के दूसरे क़ैदी भी नारे लगाने लगे. तीनों युवा क्रांतिकारियों के गले में फांसी की रस्सी डाल दी गई. उनके हाथ और पैर बांध दिए गए. तभी जल्लाद ने पूछा, सबसे पहले कौन जाएगा?
सुखदेव ने सबसे पहले फांसी पर लटकने की हामी भरी. जल्लाद ने एक-एक कर रस्सी खींची और उनके पैरों के नीचे लगे तख़्तों को पैर मार कर हटा दिया. काफी देर तक उनके शव तख़्तों से लटकते रहे.
अंत में उन्हें नीचे उतारा गया और वहाँ मौजूद डॉक्टरों लेफ़्टिनेंट कर्नल जेजे नेल्सन और लेफ़्टिनेंट कर्नल एनएस सोधी ने उन्हें मृत घोषित किया.
अंतिम संस्कार
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एक जेल अधिकारी पर इस फांसी का इतना असर हुआ कि जब उससे कहा गया कि वो मृतकों की पहचान करें तो उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया. उसे उसी जगह पर निलंबित कर दिया गया. एक जूनियर अफ़सर ने ये काम अंजाम दिया.
पहले योजना थी कि इन सबका अंतिम संस्कार जेल के अंदर ही किया जाएगा, लेकिन फिर ये विचार त्यागना पड़ा जब अधिकारियों को आभास हुआ कि जेल से धुआँ उठते देख बाहर खड़ी भीड़ जेल पर हमला कर सकती है.
इसलिए जेल की पिछली दीवार तोड़ी गई. उसी रास्ते से एक ट्रक जेल के अंदर लाया गया और उस पर बहुत अपमानजनक तरीके से उन शवों को एक सामान की तरह डाल दिया गया.
पहले तय हुआ था कि उनका अंतिम संस्कार रावी के तट पर किया जाएगा, लेकिन रावी में पानी बहुत ही कम था, इसलिए सतलज के किनारे शवों को जलाने का फैसला लिया गया.
लाहौर में नोटिस
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उनके पार्थिव शरीर को फ़िरोज़पुर के पास सतलज के किनारे लाया गया. तब तक रात के 10 बज चुके थे. इस बीच उप पुलिस अधीक्षक कसूर सुदर्शन सिंह कसूर गाँव से एक पुजारी जगदीश अचरज को बुला लाए.
अभी उनमें आग लगाई ही गई थी कि लोगों को इसके बारे में पता चल गया. जैसे ही ब्रितानी सैनिकों ने लोगों को अपनी तरफ़ आते देखा, वो शवों को वहीं छोड़ कर अपने वाहनों की तरफ़ भागे. सारी रात गाँव के लोगों ने उन शवों के चारों ओर पहरा दिया.
अगले दिन दोपहर के आसपास ज़िला मैजिस्ट्रेट के दस्तख़त के साथ लाहौर के कई इलाकों में नोटिस चिपकाए गए जिसमें बताया गया कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का सतलज के किनारे हिंदू और सिख रीति से अंतिम संस्कार कर दिया गया.
इस ख़बर पर लोगों की कड़ी प्रतिक्रिया आई और लोगों ने कहा कि इनका अंतिम संस्कार करना तो दूर, उन्हें पूरी तरह जलाया भी नहीं गया. ज़िला मैजिस्ट्रेट ने इसका खंडन किया लेकिन किसी ने उस पर विश्वास नहीं किया.
भगत सिंह का परिवार
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इस तीनों के सम्मान में तीन मील लंबा शोक जुलूस नीला गुंबद से शुरू हुआ. पुरुषों ने विरोधस्वरूप अपनी बाहों पर काली पट्टियाँ बांध रखी थीं और महिलाओं ने काली साड़ियाँ पहन रखी थीं.
लगभग सब लोगों के हाथ में काले झंडे थे. लाहौर के मॉल से गुज़रता हुआ जुलूस अनारकली बाज़ार के बीचोबीच रूका.
अचानक पूरी भीड़ में उस समय सन्नाटा छा गया जब घोषणा की गई कि भगत सिंह का परिवार तीनों शहीदों के बचे हुए अवशेषों के साथ फिरोज़पुर से वहाँ पहुंच गया है.
जैसे ही तीन फूलों से ढ़के ताबूतों में उनके शव वहाँ पहुंचे, भीड़ भावुक हो गई. लोग अपने आँसू नहीं रोक पाए.
ब्रिटिश साम्राज्य
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वहीं पर एक मशहूर अख़बार के संपादक मौलाना ज़फ़र अली ने एक नज़्म पढ़ी जिसका लब्बोलुआब था, 'किस तरह इन शहीदों के अधजले शवों को खुले आसमान के नीचे ज़मीन पर छोड़ दिया गया.'
उधर, वॉर्डेन चरत सिंह सुस्त क़दमों से अपने कमरे में पहुंचे और फूट-फूट कर रोने लगे. अपने 30 साल के करियर में उन्होंने सैकड़ों फांसियां देखी थीं, लेकिन किसी ने मौत को इतनी बहादुरी से गले नहीं लगाया था जितना भगत सिंह और उनके दो कॉमरेडों ने.
किसी को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि 16 साल बाद उनकी शहादत भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अंत का एक कारण साबित होगी और भारत की ज़मीन से सभी ब्रिटिश सैनिक हमेशा के लिए चले जाएंगे.
और एक सावरकर थे यातना सह नहीं पाये तो माफी मांघकर बहार आये और अंग्रेजों के लिए मुखबिरी की

पंडित जवाहर लाल नेहरू के देहावसान के पश्चात संसद में अटल बिहारी वाजपेई जी के उद्बोधन के मुख्य अंश---

पंडित जवाहर लाल नेहरू के देहावसान के पश्चात संसद में अटल बिहारी वाजपेई जी के उद्बोधन के मुख्य अंश--- महोदय, एक सपना था जो अधूरा रह गया, एक गीत था जो गूँगा हो गया, एक लौ थी जो अनन्त में विलीन हो गई। सपना था एक ऐसे संसार का जो भय और भूख से रहित होगा, गीत था एक ऐसे महाकाव्य का जिसमें गीता की गूँज और गुलाब की गंध थी। लौ थी एक ऐसे दीपक की जो रात भर जलता रहा, हर अँधेरे से लड़ता रहा और हमें रास्ता दिखाकर, एक प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गया। मृत्यु ध्रुव है, शरीर नश्वर है। कल कंचन की जिस काया को हम चंदन की चिता पर चढ़ा कर आए, उसका नाश निश्चित था। लेकिन क्या यह ज़रूरी था कि मौत इतनी चोरी छिपे आती? जब संगी-साथी सोए पड़े थे, जब पहरेदार बेखबर थे, हमारे जीवन की एक अमूल्य निधि लुट गई। भारत माता आज शोकमग्ना है – उसका सबसे लाड़ला राजकुमार खो गया। मानवता आज खिन्नमना है – उसका पुजारी सो गया। शांति आज अशांत है – उसका रक्षक चला गया। दलितों का सहारा छूट गया। जन जन की आँख का तारा टूट गया। यवनिका पात हो गया। विश्व के रंगमंच का प्रमुख अभिनेता अपना अंतिम अभिनय दिखाकर अन्तर्ध्यान हो गया। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भगवान राम के सम्बंध में कहा है कि वे असंभवों के समन्वय थे। पंडितजी के जीवन में महाकवि के उसी कथन की एक झलक दिखाई देती है। वह शांति के पुजारी, किन्तु क्रान्ति के अग्रदूत थे; वे अहिंसा के उपासक थे, किन्तु स्वाधीनता और सम्मान की रक्षा के लिए हर हथियार से लड़ने के हिमायती थे। वे व्यक्तिगत स्वाधीनता के समर्थक थे किन्तु आर्थिक समानता लाने के लिए प्रतिबद्ध थे। उन्होंने समझौता करने में किसी से भय नहीं खाया, किन्तु किसी से भयभीत होकर समझौता नहीं किया। पाकिस्तान और चीन के प्रति उनकी नीति इसी अद्भुत सम्मिश्रण की प्रतीक थी। उसमें उदारता भी थी, दृढ़ता भी थी। यह दुर्भाग्य है कि इस उदारता को दुर्बलता समझा गया, जबकि कुछ लोगों ने उनकी दृढ़ता को हठवादिता समझा। मुझे याद है, चीनी आक्रमण के दिनों में जब हमारे पश्चिमी मित्र इस बात का प्रयत्न कर रहे थे कि हम कश्मीर के प्रश्न पर पाकिस्तान से कोई समझौता कर लें तब एक दिन मैंने उन्हें बड़ा क्रुद्ध पाया। जब उनसे कहा गया कि कश्मीर के प्रश्न पर समझौता नहीं होगा तो हमें दो मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा तो बिगड़ गए और कहने लगे कि अगर आवश्यकता पड़ेगी तो हम दोनों मोर्चों पर लड़ेंगे। किसी दबाव में आकर वे बातचीत करने के खिलाफ थे। महोदय, जिस स्वतंत्रता के वे सेनानी और संरक्षक थे, आज वह स्वतंत्रता संकटापन्न है। सम्पूर्ण शक्ति के साथ हमें उसकी रक्षा करनी होगी। जिस राष्ट्रीय एकता और अखंडता के वे उन्नायक थे, आज वह भी विपदग्रस्त है। हर मूल्य चुका कर हमें उसे कायम रखना होगा। जिस भारतीय लोकतंत्र की उन्होंने स्थापना की, उसे सफल बनाया, आज उसके भविष्य के प्रति भी आशंकाएं प्रकट की जा रही हैं। हमें अपनी एकता से, अनुशासन से, आत्म-विश्वास से इस लोकतंत्र को सफल करके दिखाना है। नेता चला गया, अनुयायी रह गए। सूर्य अस्त हो गया, तारों की छाया में हमें अपना मार्ग ढूँढना है। यह एक महान परीक्षा का काल है। यदि हम सब अपने को समर्पित कर सकें एक ऐसे महान उद्देश्य के लिए जिसके अन्तर्गत भारत सशक्त हो, समर्थ और समृद्ध हो और स्वाभिमान के साथ विश्व शांति की चिरस्थापना में अपना योग दे सके तो हम उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करने में सफल होंगे। संसद में उनका अभाव कभी नहीं भरेगा। शायद तीन मूर्ति को उन जैसा व्यक्ति कभी भी अपने अस्तित्व से सार्थक नहीं करेगा। वह व्यक्तित्व, वह ज़िंदादिली, विरोधी को भी साथ ले कर चलने की वह भावना, वह सज्जनता, वह महानता शायद निकट भविष्य में देखने को नहीं मिलेगी। मतभेद होते हुए भी उनके महान आदर्शों के प्रति, उनकी प्रामाणिकता के प्रति, उनकी देशभक्ति के प्रति, और उनके अटूट साहस के प्रति हमारे हृदय में आदर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इन्हीं शब्दों के साथ मैं उस महान आत्मा के प्रति अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। *-श्री अटल बिहारी वाजपेयी* (29 मई, 1964 को संसद में दिया गया भाषण