Wednesday 26 November 2014

क्या ! ऐसा नही हो सकता ....

क्या !
ऐसा नही हो सकता ....
कि.जब भी मिले हम
इस तरह मिलें
जैसे मिलाती हैं
अलग अलग दिशाओं में ब्याही
दो सखियाँ
वर्षों बाद किसी मेले में .|
जीवन में बहुत बवाल है
वरना कौन भूलता है बेफिकर दिनो को
आपभी भूले नही होंगे
पर याद  नही करते होंगे हरदम
आखिर कौन है इतना फुरसतिहा  |
बहुत मार काट है इन दिनों
जिसे देखो वाही धकियाते जा रहा है
एक दूसरे को
ऐसे में महज इतना ही हो
तो भी अच्छा है है
की कम केबाद
जब आप पोंछ रहे हों अपना पसीना
तो बस याद आ जाये
पसीना पोंछता पिता का चेहरा .|
और यह की
दुनिया सिर्फ हमारी बपौती नही है
यहाँ सब को हक़ है जीने का
अपनी पूरी आजादी के साथ |

यह कविता नही .मेरे एकांत का प्रवेशद्वार है

यह कविता नही .
मेरे एकांत का प्रवेशद्वार है
यहीं आकर सुस्ताता हूँ मैं
टिकाता हूँ यहाँ अपना सिर
जिन्दगी की जद्दो जहद से थक हार कर |
जब भी लौटता हूँ यहाँ
आहिस्ता से खुलता है
इसके भीतर एक द्वार
जिसमे धीरे से प्रवेश करता मैं
तलाशता हूँ अपना निजी एकांत.
यहीं मई होता हूँ वह
जिसे होने के लिए
मुझे कोई प्रयास नही करना पड़ता....
पूरी दुनिया से छिटक कर
अपनी नाभि नाल से जुड़ता हूँ मैं यहीं
मेरे एकांत में देवता नही होते
न ही उनके लिए होती हैकोई प्रार्थना
मेरे पास होती हैं
जीवन की बाधाएं
कुछ स्वपन और कुछ कथाएं ..
होती है धुंधली सी एक धुन
हर देश काल में जिसे
अपनी तरह से पकड़ता पुरुष
बहार आता है अपने आप से ____

Sunday 23 November 2014

इस दौर में भी बचाने को बहुत कुछ बचा है हमारे पास ///

हर बार की तरह लौटा हूँ घर .और
 घर लौट आया है मुझ में ..
 वह घर जो मेरा है ..मेरा नहीं है .!
 इसकी दीवारों पर लिखे अनगिनत किस्से ,सपने मेरे अपने हैं ,..
पर यह अलग बात है ..जो कोई मायने नहीं रखते ..
जब भी मैं लौटता हूँ घर ,मेरा घर दौड़ कर लिपट जाता है
मुझसे ढूंढता है मेरी आँखों में अपने लिए सहानुभूति
बताता है अपनी बदहाली के किस्से
किस तरह चुपके से अपनों ने ही कुतर दिया घरेलू रिश्तों की बुनियाद .
 किस तरह धीरे धीरे मर गया घर का चरित्र
आज वह मुझे पढवाता है
 तनहाइयों में दीवारों पर लिखे कुछ शब्द
 बताता है की कैसे कैसे उलझनों में वह उलझ गया ,
 खामोश खड़ी दीवारें
 निःशब्द कह जाती है अपनी ब्यथा कथा
बीमार हवाएं रिश्तों में फूटते दुर्गन्ध का बयान करती हैं
खुद को सम्हालने की असफल कोशिस करता मै
 सहेजता हूँ ठंढी होती दिनचर्या में जीवन की गर्माहट,
 मन का हरापन भोलापन दिल का ,अक्खड़ पन, जुझारू पन ,
एक शाश्वत प्रश्न खड़ा होता है क्यों ?
किसके लिए ?
पर वह मेरे भीतर जो एक मन और है ..
जो नहीं जनता दैन्य हार मानता नहीं ..
कहता है डटे रहो मोर्चे पर
लड़ना है अपने हिस्से का महाभारत अकेले ही
 इस दौर में भी बचाने को बहुत कुछ बचा है हमारे पास ///

Wednesday 29 October 2014

अनार को कहीं से काटिए कोई न कोई दाना जरूर कट जाएगा; इस देश में घृणा के लिए कोई स्थान नही

  मैंने प्रायः स्वतंत्रता आन्दोलन के हर उस जाने पहचाने अराजकताबादी या हिंसाबादी के बारे में पढ़ा है और उनकी देश भक्ति से प्रभावित भी हवा हूँ .लेकिन मैंने महशूस किया की हिंसा भारत की समस्याओं का हल नहीं हमारी सभ्यता को रक्षा के लिए एक भिन्न अपेक्षाकृत उच्च आदर्शो वाले हथियार की आवश्यकता है . जो विचार यहाँ रख रहा हूँ वे मेरे हैं भी और मेरे नहीं भी हैं . वे मेरे हैं क्यों की उनके मुताबिक़ आचरण की मैं उम्मीद करता हूँ .वे मेरी आत्मा में बसे हैं .वे मेरे नहीं हैं क्यों की उन्हें मैंने ही नहीं सोचा कुछ किताबें पढ़ने के बाद वे बने हैं .भीतर तक मैं इन्हें महशूस करता हूँ . यह विचारना मेरी ही नहीं .मैं ही नहीं बल्कि वे सारे हिन्दुस्तानी जिन पर पश्चिमी सभ्यता का भूत सवार न हो और जो किसी धर्मांध साम्प्रदायिक संगठन का हिस्सा न बन गए हों .सभी के हैं . आप माने न माने यही विचार अमेरिका और योरप के बहुत से उन लोगों के हैं जो शान्ति और सद्भाव के हिमायती हैं .वह है महात्मा गाँधी का विचार शान्ति का सद्भाव का सहिष्णुता का .बराबरी का सभी के उत्थान का प्रगति का .हमारा देश विभिन्न जातियों समुदायों का एक संगुम्फन है जिसमे हम सभी उसी तरह आपस में एकदूसरे से जुड़े हैं जैसे अनार् के दाने अपनी खोल में एक दूसरे से अलग भी होते हैं और जुड़े भी .अनार को कहीं से काटिए कोई न कोई दाना जरूर कट जाएगा बस इसी तरह ज़रा सी असहिष्णुता हमारे जातीय संस्कारों को लहू लुहान कर देती है , क्षत विक्षत कर देती है सभ्यता और संस्कृति की सारी धरोहर नष्ट नाबूद हो जाती है . हमारे देश में अराजकता के लिए हिंसा के लिए घृणा के लिए तिरस्कार के लिए कोई स्थान नहीं .ह्त्या और अराजकता किसी समस्या का निदान नहीं ...बस हमें तो महात्मा गांधी का चिंतन ही इस देश को बचाए रखने का एक मात्र उपाय दिखाई पड़ता है ....
अभी अभी मोदी जी का जापान दिया वक्तब्य हमारी जातीय संस्कृति को लहू लुहान कर गया .मोदी जी जिस संबिधान की शपथ लेकर आप दुनिया घूम रहे हैं वह धर्मनिरपेक्ष ही है .अब आप उसकी बेज्जती करें घृणा करें उसका कुछ नही बिगड़ता आप के संस्कारों से ही दुनिया परिचित होगी .देश तभी तक है जब तक वह धर्मनिरपेक्ष है ,जिस दिन यह खतंम हवा देश अनगिनत टुकड़ों में बाँट जाएगा .हमारी जातीय संस्कृति के खतरे भी हैं और मजबूती भी . घृणा के लिए इस देश में कोई जगह नहीं .

Tuesday 10 June 2014

मन दर्पण गया टूट /

कोल्हू घनी सरसों पानी
कहता सब की राम कहानी
कर लो मन मजबूत /
स्नेह घरौंदा हर पल ढहता
इक्षा चना भार में भुन्जता
करम पछोरे सूप /
रद्दा रद्दा जमा अँधेरा
उजड़ा कैसे रैन बसेरा
आशा गूलर फूल /
बीता बीता धूप सरकती
संशय मकड़ी जाला बुनती
कंही हो गयी चूक /
मद्धिम मद्धिम दाह सुलगता
घर के भीतर का घर ढहता
कंहा हो गयी चूक /
बरसों की यह कठिन तपस्या
प्यार समर्पण बनी समस्या
कैसे हो गई चूक /
कैसे कोई खुशियाँ बांटे
करनी भरनी काटें छाटें
थक कर हो गया चूर /
एक बंजारा ब्यथित खड़ा है
खेल नियति का जटिल बड़ा है
जम गयी मन पर धूल /
दुःख का तक्षक नित प्रति डंसता
ओंठ न कोई ऐसा दिखता
जहर जो लेता चूस /
धीर पुरनिया कटता लुटता
अपने आँगन रोज घिसटता
हिल गयी उसकी चूल /
पत्ता पत्ता पीला पड़ गया
अंजुरी चेहर थाम्हे रह गया
मन दर्पण गया टूट /

Friday 30 May 2014

anhad - vani: दिन बेगाने हो जाते हैं

anhad - vani: दिन बेगाने हो जाते हैं: सुबह सबेरे सूरज आता नून तेल के झंझट लाता दिन बेगाने हो जाते हैं / सपनों वाली पहचानी सी गली पुरानी जहाँ खेलते बच्चों का स्वर धमा चौकड़ी ...

anhad - vani: किसी ने सुना ही नहीं.

anhad - vani: किसी ने सुना ही नहीं.: किसी ने सुना ही नहीं. इधर कुछ दिनों से मैंने पत्नी से पानी मागना बंद कर दिया है . कार्यालय आते या जाते समय नहीं करता प्रतीक्षा ...

anhad - vani: भोर हो गई

anhad - vani: भोर हो गई: भोर हो गई अस्ताचल में सूरज छिपा ही था कि कि शुक्र तारे कि बिंदी लगाये उतर गई संध्या मेरे अगन में पसर गई पूरे घर में चुपके से व...

anhad - vani: उठो जागो .स्त्री को मुक्त करो

anhad - vani: उठो जागो .स्त्री को मुक्त करो: भारतीय मानस जिन्हे धर्म ग्रंथ कहता है . मूलतः वे ही अधर्म को तर्क देते हैं ,इन्ही ने हमारे मॅन मस्तिस्क मे स्त्री को भोग्या बना र...

anhad - vani: सलाह नही लेना चाहिए .

anhad - vani: सलाह नही लेना चाहिए .: एक तालाब था ,उसके मेड पर एक नेवले का बिल था ,तालाब के किनारे एक पेड़ था ,पेड़ पर एक बगुला का घोसला था ,तालाब मे मछली और केकड़ा रहते थे ,...

Thursday 24 April 2014

यह काशी है .इसकी तासीर में सरलता और तरलता है .यह अधिनायक बादी दम्भी को सबक सिखाएगी

आईये आज काशी पर बात करें . टुकुर टुकुर निहारते गुंडों से पद दलित होते आज की काशी की चर्चा करें .
उद्दद्न्ड मोदी ने कहा ..मुझे गंगा मैय्या ने बुलाया मैं खुद नहीं आया .मैं गंगा का उद्धार करूंगा उसे शाबर मती बनाउंगा(भागीरथ बनगया )
.उद्दद्न्ड मतिमंद  मोदी ने कहा  यूपीए द्वारा की गयी बर्बादी से देश को बचाने के लिए ईश्‍वर ने मेरा चुनाव किया है। कठिन काम करने के लिए ईश्‍वर कुछ लोगों का चयन किया करता है। मेरा विश्‍वास है कि इस काम के लिए ईश्‍वर ने मुझे चुना है।बस केवल 20 दिन और । मात्र 20 दिन बचे हैं फिर मैं बदला लूंगा । एक एक पैसे और मिनट का हिसाब लूंगा ।
( मुहम्मद पैगम्बर और ईशा बन गया) ......गंगा का उद्धार करेगा(.भागीरथ बन गया ) .भगवान को उपकृत करेगा (बारह अवतार बन गया )वह जो खुद अशुद्ध है .काशी के लोगों में पानी होगा तो ऐसा सबक सिखाएगे  की इन अधिनायक् बादी .फासिस्ट को भागने से रास्ता नहीं मिलेगा .यह काशी है इसका मिजाज बड़े बड़े नहीं समझ सके ..तुम जैसे तुच्छ प्राणी क्या समझेंगे .जाओ और अपनी माता तथा पत्नी को घर लाओ .उनकी सेवा करो प्रायश्चित से पाप धुल जायेंगे
यह कबीर की काशी ..कबीर यह घर प्रेम का खाला का घर नाही .सीस  उतारे भूईं धरे तब पैठे घर माहि ....यह प्रेम की नगरी है दंभ अहंकार को यहाँ दुत्कार मिलाती है /
मुंशी प्रमचंद की काशी.....मुंशी प्रेमचंद का निधन हो गया था सारे साहित्यकार अर्थी लेकर जारहे थे .एक ने दूकान पर झाडू लगाते हुए कहा ..लगता है की कोई मास्टर मर गया .नन्द दुलारे बाजपेई भड़क गए .इतना बड़ा साहित्यकार उठ गया ये कहता है ....बाबु जयशंकरप्रसाद ने कहा ..यही तो बनारसी रंग है .यहाँ कोई किसी से जादा मतलब नहीं रखता .
प्रसाद की काशी ..ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है इक्षा क्यों पूरी हो मन की
एक दूसरे से न मिल सकें यह बिडम्बना है जीवन की .
जीवन का उद्देश्य नहीं है श्रांत भवन में टिक रहना
किन्तु पंहुचाना उस सीमा पर जिसकी कोई गैल नहीं
अथवा उस आनंद भूमि पर जिसकी सीमा कहीं नहीं /
धूमिल की काशी ..एक आदमी रोटी बेलता है एक आदमी रोटी खाता है एक है जो न बेलता है न खाता है ..यह तीसरा आदमी कौन है देश की संसद मौन है .
यह लालबहादुरकी नगरी है  .बुद्ध ने यहीं से ज्ञान का प्रसार करना शुरू किया था शांति का सदेश देकरदुनिया को रास्ता दिया .
पर आज वही  काशी बिलबिला उठी .आज एक आक्रान्ता की नौटंकी से काशी कराह उठी .भला हो समाज् बादियों का की पंडित मदन मोहन मालवीय की प्रतिमा से धोकर शुद्ध कर दिया . कशी की गलियाँ सीढियां और घाट .मोदी को गंगा जली पकड़ा देंगे

Wednesday 9 April 2014

काहे को ब्याहे विदेश ..



 अमीर ख़ुसरो की एक हजार साल पहले लिखी कविता ‘काहे को ब्याही बिदेस’
 हमेशा याद करता हूं। इसकी कई मार्मिक और जीवन से बड़ी होती जाती पंक्तियां हर बार पढ़ने पर अन्दर से भिगो डालती हैं। इसीलिए कहते हैं जिस पर बीतती है वही जानता है। .

 काहे को ब्याही बिदेस, अरे लखिया बाबुल मोरे।
 भइया को दीनो बाबुल, महला दुमहला हमको दियो परदेस।।

 हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ, घर-घर माँगी में जाएँ।
 हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गइयाँ, जित बाँधो तित जाएँ।।

 हम तो बाबुल तोरे पिंजड़े की चिड़ियाँ, कुहुक-कुहुक रट जाएँ।।
 ताँतों भरी मैंने गुड़िया जो छोड़ी, छूटा सहेलन का साथ।।

 निमिया तले मोरा डोला जो उतरा, आया बलम जी का गाँव।।
 ’काहे को ब्याही बिदेस लखिया बाबुल मोरे’

Saturday 5 April 2014

कांग्रेस क्यों जरूरी है

ज विजनौर में मोदी के सिपहसालार अमित शाह का बयान /भाषण सुन कर दुःख हुवा .खुल्लम खुल्ला .इस तरह की धमकी ..मैंने पहले भी लिखा था .की देश के लिए कांग्रेस इस लिए जरूरी है की कांग्रेस का विरोध करके भी हम ज़िंदा हैं .कांग्रेस ने हमें बोलने की सोचने की स्वतंत्रता दी है .सोचिये अगर देश स्वतंत्रता के बाद संघियों के हाथ लग जाता तो कितने करोड़ लोगों का नामो निशान मिट जाता .अगर सम्विधान बनाने की संघियों को छूट मिलती तो देश का संबिधान ऐसा नहीं होता .कैसा होता आप खुद सोच लो .
बोलना तो दूर की बात है ज़िंदा रहना मुश्किल हो जाता . सभी को खाकी नेकर पहन के घूमना पड़ता .जिस नेहरू परिवार को पता नही क्या क्या कहते हैं फासिस्ट संघी उन्ही की बदौलत हम ज़िंदा हैं .इनकी सत्ता होती तो हिंदुत्व तथा राष्ट्र्बाद के नाम पर अब तक कितने हलाल हो जाते .पता ही नहीं चलता .जब गुजरात का हिसाब नहीं लगा सके तो देश का क्या पता क्या . करते .देश अबतक कई खंड का हो चुका होता .
इसी लिए मित्रों हम कांग्रेस चाहते हैं जिस से खुल कर जी सकें .देश का हर नागरिक का देश हो .निर्भय जी सकें लोग

कौन गलत है

दो तरह की विचार धारा होती है एक अच्छी और दुसरी बुरी . गाँधी एक ऐसा व्यक्तित्व है जिसका सारी दुनिया सम्मान करती है .इस सदी मे गाँधी जी सर्वाधिक प्रासँगिक नेता है . पर भाजपा एवँ आर एस एस गाँधी को पसँद नही करती .या तो पुरी दुनिया गलत है नही तो पक्का ये तथाकथित राष्ट्रवादी सँगठन .

Friday 7 March 2014

क्या ? ऐसा नहीं हो सकता /

क्या ? 
ऐसा नहीं हो सकता /
 कि जब भी मिलें हम एस तरह मिलें ,
जैसे मिलती हैं , 
अलग अलग दिशाओं में ब्याही दो सखियाँ 
वर्षों बाद किसी मेले में / 
जीवन में बहुत बवाल है वरना ,
कौन भूलता है बेफिक्र दिनों को ,
आप भी नहीं भूले होंगे 
पर याद नहीं करते होंगे हरदम , 
आखिर कौन है इतना फुर्सतिहा /
 बहुत मार काट है इन दिनों , 
जिसे देखो वही दूसरे को धकियाते जा रहा है / 
ऐसे में महज इतना हो जाय तो भी अच्छा है कि
 जब आप थक हार कर पोंछ रहे हों अपना पसीना
 तो याद आ जाय पसीना पोंछते पिता का थका चेहरा 
और यह की दुनिया सिर्फ हमारी बपौती नहीं है 
 यहाँ सभी को हक है जीने का अपनी आजादी के साथ /

Sunday 5 January 2014

कमजोर कहे जाने वाले का मजबूत दांव .


कई बार समय पर और तहजीब से कही गयी बात इतने गंभीर तरीके से सम्प्रेषित होती है की उसका कोई जबाब नहीं होता और दूर तक प्रहार करती है .मनमोहन जी की नरेंद्र मोदी पर की गयी तिप्पडी इसी तरह है ..पूरे देश में इस बयान के दूर गामी परिणाम आने के कयास लगाए जा रहे हैं .इस बयान से मन मोहन जी ने खुद को अराजनीतिक और नौकर शाह बताने वालों को करारा तमाचा मारा .ऐसी चतुराई उन्होंने पहली बार नहीं दिखाई २००९ में भाजपा के पी एम् इन वेटिंग लालकृष्ण आडवानी के द्वारा खुद पर लगाए गए आरोपों का भी जबाब इसी अंदाज में देकर कांग्रेस को चुनाव जिताने और यु पी ए दो बनवाने की सफलता हासिल की थी ..: अहमदा बाद की गलियों में मौत का तांडव रचाने वाले को यदि सशक्त प्रधान मंत्री मानना यदि ताकत वर की पहचान है तो उस से मेरी तोबा " . यह बे हिसाब लेग क़टर गेंद है भाजपा के लिए और भाजपा के बाउंसर पर छक्का है इस से तिलमिलाए भाजपाई बगलें झांक रहे हैं.और यह की देश का टोटल डिजास्टर हो जाएगा यदि मोदी प्रधान मंत्री बने तो .निरुत्तर कर दिया . .उनकी उम्मीद पर घड़ों पानी पड गया .बार बार मन मोहन की बखिया उधेड़ने वालो में बौखलाहट है .एक दब्बू कहेजाने वाले नेता की इस दबंगई से अन्य बिपक्षी भी हैरान हैं .एक छोटे से अदालत द्वारा क्लीन चिट दिए जाने पर मोदी के ट्युट की एकाकी वेदना के बेहद मार्मिक शब्द का प्रभाव भी मटिया मेट हो गया .अब तो सभी दल फिर से सोच विचार में हैं लगता है समीकरण बदल जायेंगे.भाजपा ने मदारी रामदेव को उछल कूद के लिए फिर से उद्गारा है .उधर "आप "इमानदार राजनीती के आँचल में बीडी सुलगा कर .सत्ता को गले लगा लेने को ब्याकुल है .जाते जाते इतना कहूंगा की मनमोहन जी ने जितना किया किसी गैर कांग्रेसी के बस का नहीं देश की जनता को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए .एक बात और कह दूं मन मोहन जी के इस बयान से कांग्रेस की भी परेशानी बड़ी है .वह भी हतप्रभ है .

Friday 3 January 2014

नरेंद्र मोदी से जादा खतरनाक हैं केजरीवाल .

मूक भारत है बहुत लेकिन शोर है

धर्म निरपेक्षता और स्त्री अस्मिता का गृहयुद्ध भी कुल मिलाकर एनजीओ करिश्मा है

पलाश विशवास की वाल से
हम फेसबुक के माध्यम से संवाद का दरवाजा खोलने की शायद बेकार ही कोशिश कर रहे हैं।  लाइक और शेयर के अलावा कोई गंभीर बहस की गुंजाइश यहां है नहीं। मोबाइल के जरिये फेसबुक पर जो हमारे लोग हैं, वे दरअसल हमारे लोग रह नहीं गये हैं। वे मुक्त बाजार के उपभोक्ता बन गये हैं।
बहस और अभियान लेकिन फेसबुक पर कम नहीं है। जो है वह लेकिन मुक्त बाजार का प्रबंधकीय चमत्कार है। हम लोग उनके मुद्दों पर जमकर हवा में तलवारबाजी कर रहे हैं, जबकि अपने मुद्दों को पहचानने की तमीज हमें है ही नहीं। जो लोग समर्थ हैं, वे भी मौकापरस्त इतने कि अपने स्टेटस को जोखिम में डालने को तैयार नहीं हैं।
अब हालत यह है कि धर्मनिरपेक्षता बनाम स्त्री विमर्श का गृहयुद्ध लगातार तेज होता जा रहा है। रोज नये मोर्चे खुल रहे हैं। जमकर सभी पक्षों से गोलंदाजी हो रही है। लेकिन कॉरपोरेट धर्मोन्मादी सैन्य राष्ट्रवाद के मुकाबले कोई मोर्चा बन ही नहीं रहा है। हम दरअसल किसका हित साध रहे हैं, यह समझने को भी कोई तैयार नहीं है।
ह भय और आतंक इस लोकतांत्रिक बंदोबस्त के लिये सबसे ज्यादा खतरनाक है। लोग सुनियजित तरीके से भय का वातावरण बना रहे हैं ताकि नागरिक व मानवाधिकार के खुले उल्लंIन के तहत एकतरफा कॉरपोरेट अभियान में कोई बाधा न पहुँचे। पिछले दिसंबर में संसदीय सत्र के दरम्यान हुये निर्भया जनांदोलन के फलस्वरtप यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून बना दिया गया तुरत फुरत। न यौन उत्पीड़न का सिलसिला थमा है और न थमे हैं बलात्कार। सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के तहत जो इलाके हैं, जो आदिवासी और दलित इलाके हैं,जहां सलवा जुड़ुम और रंग बिरंगा अभियान के तहत जनता के खिलाफ युद्ध जारी है, वहाँ पुलिस और सेना और सामतों को रक्षाकवच मिला हुआ है, वहाँ यौन उत्पीड़न और बलात्कार किसी कानून से थमने वाले नहीं है। लेकिन विडंबना तो यह है कि सत्ता केंद्रों में, राजधानियों में, शहरीकरण और औद्योगीकरण के खास इलाकों में, सशक्त महिलाओं के कार्यस्थलों में स्त्री पर अत्याचारों की घटनाएं बेहद बढ़ गयी हैं और उन घटनाओं को हम पितृसत्तात्मक नजरिये से देख रहे हैं। हमारी धर्मनिरपेक्षता का आन्दोलन भी इस पितृसत्ता से मुक्त नहीं है। धर्मनिरपेक्षता बनाम स्त्री विमर्श का यह गृहयुद्ध देहमुक्ति विमर्श और सत्ता तन्त्र में, कॉरपोरेट राज में अबाध पुरुष वर्चस्व के संघर्ष की अनिवार्य परिणति है।
भी-अभी जिस ईश्वर का जन्म हुआ है और हमारे वैकल्पिक मीडिया और जनांदोलनों के सिपाहसालार जिनकी ताजपोशी के लिये बेसब्र हैं, वे नरेंद्र मोदी से ज्यादा खतरनाक साबित होंगे। खतरा नरेंद्र मोदी से उतना नहीं, बाजार की प्रबंधकीय दक्षता और सूचना क्रान्ति के महाविस्फोट से जनमे जुड़वाँ ईश्वरों से कहीं ज्यादा है,यह बात मैं बार बार कह रहा हूं। कालाधन की अर्थ व्यवस्था के विरुद्ध आपका कोई न्यूनतम कार्यक्रम नहीं है और न कोई मोर्चाबन्दी है। आप भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं।
केजरीवाल टीम के बैराग्य का तो खुलासा सरकार बनते न बनते होने लगा है। जनादेश और जनमत संग्रह की प्रणाली को हाशिये पर रखें, तो भी काँग्रेस के खिलाफ जिहाद के बाद काँग्रेस के खिलाफ सामाजिक शक्तियों की सामूहिक गोलबन्दी और जनादेश के विरुद्ध जाकर नये सिरे से जनमतसंग्रह करके काँग्रेस के सशर्त समर्थन से सबसे ज्यादा प्रतिव्यक्ति आय और सर्वाधिक कॉरपोरेट राज और उपभोक्ता बाजार के पोषक विशिष्ट ऑनलाइन समाज के  मार्फत आप देश,समाज और राष्ट्र का चरित्र बदलने चले हैं,ऐसे लोगों के भरोसे जिनकी नैतिकता सत्ता में निष्मात हो चुकी है सत्ता तक पहुँचने से पहले।
काँग्रेस, संघ परिवार, वामपन्थी, बहुजनपन्थी सर्वदलीय सहमति से परिवर्तन की लहर थामने के लिये मोर्चाबद्ध तरीके से लोकपाल विधेयक पारित किया गया है। जो भ्रष्टाचार को कितना खत्म करेगा, वह पहले से हासिल कागजी हक-हकूक के किस्से से जाहिर न भी हुये हों तो देर सवेर उजागर हो जायेगा।
ह बात समझनी चाहिए कि अब जो राजनीतिक सत्ता केंद्रित भ्रष्टाचार है, वे कॉरपोरेट हितों के मुताबिक हैं। जिसमें हिस्सेदार सत्तावर्ग के सभी तबके कमोबेश हैं। कॉरपोरेट फंडिंग से चलने वाली राजनीति ने कॉरपोरेट और निजी कम्पनियों को, एनजीओ को भ्रष्टाचार के दायरे से बाहर रखा है और तहकीकात के औजार वही बन्द पिंजड़े में कैद रंग बिरंगे तोते हैं। हम बारबार लिख रहे हैं और आपका ध्यान खींच रहे हैं कि हम लोग जनांदोलनों से सिरे से बेदखल हो गये हैं। हम मुद्दों से बेदखल हो गये हैं। हम अपने महापुरुषों और माताओं से बेदखल हो गये हैं, हम हर तरह के विचारों से, विमर्श से और समूचे लोकतन्त्र और भारत के संविधान से भी बेदखल है। जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखली से कम खतरमनाक नही है यह। किसी भी बेदखली के विरुद्ध प्रतिवाद इसी बेदखली से असम्भव हो गया है। उत्पादन प्रणाली ध्वस्त है तो यह इसलिये कि भारतीय कृषि की हत्या का हम प्रतिरोध नहीं कर पाये और हमारे सारे आन्दोलन अस्मिता निर्भर है जो भारतीय कृषि समाज और भूगोल और जनता के बँटवारे का मुख्य आधार है। इसे सम्भव बनाने में स्वंयसेवी प्रत्यक्ष विदेशी विनियोग निर्भर तमाम जनसंगठन हैं। अब समझ लीजिये कि धर्म निरपेक्षता और स्त्री अस्मिता का यह गृहयुद्ध भी कुल मिलाकर एनजीओ करिश्मा है। जहां भ्रष्ट आचरण निरंकुश है और लोकपाल से वहाँ कुछ भी नहीं बदलना वाला है।
मनमोहन ईश्वर के अवसान के बाद जो दो जुड़वाँ ईश्वरों की ताजपोशी की तैयारी है, उनके पीछे भी एनजीओ की विदेशी फंडिंग ज्यादा है, कॉरपोरेट इंडिया और कॉरपोरेट मीडिया तो है ही।
त्ता वर्ग को नरेंद्र मोदी से दरअसल कोई खतरा है ही नहीं। आर्थिक सुधारों के समय जनसंहार संस्कृति के मुताबिक राजकाज में काँग्रेस और संघ परिवार अकेले साझेदार नहीं हैं। वामपन्थी,बहुजनवादी और रंग बिरंगी अस्मिताओं के तमाम क्षत्रप भी कॉरपोरेट नियंत्रण के तहत इस कॉरपोरेट राजकाज में समान साझेदार है।
भय और आतंक का माहौल सिर्फ नमोमय भारतके निर्माण से ही नहीं हो रहा है। स्त्री जो हर कहीं असुरक्षित हैं, हर कहीं जो नागरिक मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, पाँचवीं और छठीं अनुसूचियों और संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध देश बेचो अभियान के तहत हिमालय, पूर्वोत्तर में और दंडकारण्य में जो भय और आतंक का माहौल है, जो सलवा जुड़ुम तक सीमाबद्द नहीं है, गुजरात नरसंहार और बाबरी विध्वंस का न्याय नहीं हुआ लेकिन सिख जनसंहार के युद्ध अपराधी और हिन्दुत्व के पुनरुत्थान से पहले जो दंगे हुये, उन तमाम मामलों के लिये नरेंद्र मोदी जिम्मेदार नहीं है। धर्म निरपेक्षता के नाम पर हम संघ परिवार को कटघरे में खड़ा कर दें और आर्थिक नरसंहार के युद्ध अपराधी, भारत में धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की मौलिक पिताओं को बरी कर दें। यह कैसी धर्मनिरपेक्षता है, कम से कम मेरी समझ में नहीं आती।
य और आतंक के इसी माहौल में अपने पास जो है, उसी को बहाल रखने की फिक्र ज्यादा है लोगों को। बाजार में नंगे खड़े होने, आत्महत्या के कगार पर खड़े हो जाने के बावजूद बाबा साहेब अंबेडकर के मुताबिक बहुजन भारत आज भी मूक है। पाँच करोड़ क्या पचास करोड़ लोग भी ऑनलाइन हो जाये तो यह निःस्तब्धता टूटेगी नहीं। घनघोर असुरक्षाबोध ने हमारे इंद्रियों को बेकल बना दिया है और पूरा देश कोमा में है। प्राण का स्पन्दन फेसबुक पोस्ट से वापस लाना शायद असम्भव है। हम रात दिन चौबीसों घंटा सातों दिन बारह महीने कंबंधों के जुलूस  में हैं। कब्र से उठकर रोजमर्रे की जिन्दगी जीने की रोबोटिक आदत है। सम्वेदनाएं अब रोबोट में भी है। हाल में काम के बोझ से रोबोट ने आत्महत्या भी कर ली लेकिन कॉरपोरेट राज में आत्मसमर्पित भारतीयों में कोई सम्वेदना है ही नहीं। होती तो अपनी माँ बहनों के साथ बलात्कार करने, उनके यौन उत्पीड़न का उत्सव मनाने का यह पशुत्व हम में नहीं होता। पशुत्व कहना शायद पशुओं के साथ ज्यादती है। कॉरपोरेट राज के नागरिक मनुष्यों की तुलना पशुओं से करना पशुों का अपमान है जो अपने समाज और अपने अनुशासन के प्रति कहीं ज्यादा सम्वेदनशील और जिम्मेदार हैं।
हम न पशु हैं और न हम मनुष्य रह गये हैं। हम अपने कंप्यूटरों, विजेट और गैजेट, उनसे बने वर्चुअल यथार्थ की तरह, रोबोट की तरह अमानवीय हैं। इसीलिये सारी विधाएं, सारे माध्यम, सारी भाषाएं, सारी कलाएं अबाध भोग को समर्पित है, मनुष्यता को नहीं। हमारा सौंदर्यबोध चूँकि क्रयशक्ति निर्भर है। तो बाजार में टिके रहने के लिये यथासम्भव क्रयशक्ति हमारे जीने का एकमात्र मकसद है और हम सारे लोग बाजार के व्याकरण के मुताबिक आचरण कर रहे हैं। उस व्याकरण के बाहर न राजनीति है और न जीवन।
तमाम लोग इसी क्रयशक्ति के कारोबार में भय और आतंक का माहौल रच रहे हैं, अकेले नरेंद्र मोदी नहीं। माध्यमों में जो आवाजें अभिव्यक्त हो रही हैं, वे अब सबसे ज्यादा दहशतगर्द हैं। बाजार की तरह धर्मोन्माद और सांप्रदायिकता भी पुरुषतांत्रिक है, जो अब निर्लज्ज तरीके से स्त्री अस्मिता से युद्धरत है। धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की तरह माफ करना दोस्तों, धर्मनिरपेक्षता भी अब भय और आतंक पैदा करने लगा है और इसका जीवन्त उदाहरण मुजफ्फरनगर है।
इस सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान कॉरपोरेट राज के तहत दुनिया भर में सबसे ज्यादा असुरक्षित स्त्री है और पुरुषतन्त्र की नजर में योनि से बाहर उसका कोई वजूद ही नहीं। इस वैश्वक लूटतन्त्र की जायनवादी व्यवस्था में राजनीति का शिकार हर देश के अल्पसंख्यक हैं। मसलन भारत में मुसलमान,ईसाई,सिख और बौद्ध तो बांग्लादेश में हिंदू और बौद्ध,पाकिस्तान में हिंदू और ईसाई, हिंदू राष्ट्र नेपाल में मदेशिया हिंदू तो श्रीलंका में तमिल हिंदू और म्यांमार में फिर मुसलमान।सिर्फ उत्पीड़ितों की पहचान देश काल के मुताबिक बदलती है, उत्पीड़न की सत्ता का चरित्र समान है जो अब कॉरपोरेट है। धर्म और जाति के आरपार नस्ली और भौगोलिक भेदभाव है, जिसके कारण उत्तराखंड और पूर हिमालयी क्षेत्र में सांप्रदायिक या धार्मिक नहीं अंधाधुंध कॉरपोरेट विकास का आतंक है। जो इस देश में और दुनिया भर में प्रकृति से जुड़े तमाम समुदायों और प्रकृति के संरक्षक समुदायों की भारत के हर आदिवासी इलाके की तरह समान नियति है।
अब गौर करे तो यह धर्मोन्मादी सांप्रदायिक हिंसा भी दरअसल विकास का आतंक है और एकाधिकारवादी कॉरपोरेट आक्रमण है। अस्सी के दशक में उत्तरप्रदेश में दंगों का कॉरपोरेट चेहरा हमने खूब देखा है और उस पर जमकर लिखा भी है, हालाँकि विद्वतजनों ने मेरे लिखे का कभी नोटिस ही नहीं लिया है।
विडम्बना यह है कि करीब दस साल से परम्परागत लेखन छोड़कर विशुद्ध भारतीय नागरिकों और विशुद्ध मनुष्यता को सम्पादक, आलोचक, प्रकाशक के दायरे से बाहर सम्बोधित करने की कोशिश कर रहा हूँ।
दीवार से सिर टकराने का नतीजा सबको मालूम है।
अब लग रहा है कि इस आखिरी माध्यम से भी हम बहुत जल्दी बेदखल होने वाले हैं।
भारत नमोमय बने या न बने, केजरीवाल या नंदन निलेकणि प्रधानमंत्री बने या नहीं बने, अब कॉरपोरेट राज से मुक्ति असम्भव है और इस भय, आतंक, गृहयुद्ध और युद्ध से भी रिहाई असम्भव है।
मूक भारत है बहुत लेकिन शोर है।
जनादेश जो कॉरपोरेट बनने की इजाजत हम देते रहे हैं, उसकी तार्किक परिणति यही है।
जनादेश का नतीजा जो भी हो, हमेशा अल्पसंख्यकों और शरणार्थियों की गरदने या हलात होती रहेगी या जिबह। अखिलेश का समाजवादी राज और उत्तर प्रेदेश के बहुप्रचारित सामाजिक बदलाव के चुनावी समीकरण का नतीजा मुजफ्फरनगर है तो नमोमय भारत के बदले केजरीवाल भारत बनाकर भी हम लोग क्या इस हालात को बदल पायेंगे, बुनियादी मसला यही है। इस स‌िलसिले को तोड़ने के लिये हम शायद कुछ भी नहीं कर रहे हैं। गर्जना, हुंकार और शंखनाद के गगनभेदी महानाद में हमारी इंद्रियों ने काम करना बन्द कर दिया है।