Sunday 23 November 2014

इस दौर में भी बचाने को बहुत कुछ बचा है हमारे पास ///

हर बार की तरह लौटा हूँ घर .और
 घर लौट आया है मुझ में ..
 वह घर जो मेरा है ..मेरा नहीं है .!
 इसकी दीवारों पर लिखे अनगिनत किस्से ,सपने मेरे अपने हैं ,..
पर यह अलग बात है ..जो कोई मायने नहीं रखते ..
जब भी मैं लौटता हूँ घर ,मेरा घर दौड़ कर लिपट जाता है
मुझसे ढूंढता है मेरी आँखों में अपने लिए सहानुभूति
बताता है अपनी बदहाली के किस्से
किस तरह चुपके से अपनों ने ही कुतर दिया घरेलू रिश्तों की बुनियाद .
 किस तरह धीरे धीरे मर गया घर का चरित्र
आज वह मुझे पढवाता है
 तनहाइयों में दीवारों पर लिखे कुछ शब्द
 बताता है की कैसे कैसे उलझनों में वह उलझ गया ,
 खामोश खड़ी दीवारें
 निःशब्द कह जाती है अपनी ब्यथा कथा
बीमार हवाएं रिश्तों में फूटते दुर्गन्ध का बयान करती हैं
खुद को सम्हालने की असफल कोशिस करता मै
 सहेजता हूँ ठंढी होती दिनचर्या में जीवन की गर्माहट,
 मन का हरापन भोलापन दिल का ,अक्खड़ पन, जुझारू पन ,
एक शाश्वत प्रश्न खड़ा होता है क्यों ?
किसके लिए ?
पर वह मेरे भीतर जो एक मन और है ..
जो नहीं जनता दैन्य हार मानता नहीं ..
कहता है डटे रहो मोर्चे पर
लड़ना है अपने हिस्से का महाभारत अकेले ही
 इस दौर में भी बचाने को बहुत कुछ बचा है हमारे पास ///

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