Wednesday 11 May 2016

मैं अपने गाँव लौटूंगा

मैं अपने गाँव लौटूंगा

मेरे गाँव के बीचोबीचपुश्तों से खड़ा बरगद का पेड़अब बूढा हो चला है .
काल के निर्मम थपेड़ों मेंएक एक कर ढहतीं रहींइसकी विशाल भुजाएं
विकलांग श्रद्धा के अभिशाप भोगने को विवश
यह बरगद मूलोच्छेदित हो जाय,
उसके पहलेउसके पांवों में एक बरगद उगाउंगा.
उसकी बांहों में नया संसार बसाऊंगा
जहाँ मेरा लोक फिर से लौट कर बतियाये गा ,
धामा चौकड़ी मचाये गा .गायेगा ,
फगुआ .चैता .आल्हा.कजरी और कन्हरवा .
मेरे आंगन में पुश्तों से खड़ा तुलसी का चौरा
उसमे फिर से लगाऊंगा एक नन्हा पौधा
सींचूँगा अपने संस्कार बोध से
प्रत्येक संध्या कच्ची मिटटी के नन्हे दीपकजलायेगी मेरी सह धर्मिणी .
संझौती लेसेगी मेरी पुत्र बधू
टिमटिमाते दिए की मद्धिम लव में
अँधेरे के शाश्वत सत्ता को पिघलते मैं जी भरके देखूँगा .
अपनी पुस्तैनी देहरी पर माथा झुकऊँ गा
,उस चौखट पर फिर एक बार अपनी नन्ही बिटिया को
ओका बोका तीन तलोका खिलाऊंगा .
देहरी का लालित्य ,
चौखट का मर्म
और चौखट लांघने का अर्थ समझाऊंगा

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