Thursday 28 January 2016

ऋ्ग्वेद की सबसे खुबसूरत कविता अक्ष सूक्त है, अथर्ववेद के जो मंत्र गीत मुझे बेहद करीब लगते हैं..वे हैं प्रेम के गीत

ऋ्ग्वेद की सबसे खुबसूरत कविता अक्ष सूक्त है, जिसमें एक जुआरी अक्षों यानी पांसों के शतरंजी पर गिरने की ध्वनि मात्र से व्याकुल होने का उल्लेख करता हुआ उसके मोहपाश का उल्लेख करता हुआ, अपने पारीवारिक कष्टों का भी उल्लेख करता है कि मेरी पत्नी नें इन्हीं पांसो के लिये मुझे छोड़ दिया, मेरी सास मेरे विमुख हो गई, मेरे मित्रों ने मुझे पहचानने से इंकार कर दिया, मेरे कपड़े फट गये, लेकिन सोते जागते जैसे ही पांसो के छनछनाकर कर गिरने की आवाज सुनाई देती है, मैं भागा चला जाता हूँ। अक्षों से स्नेह, मोह और उनके सौनद्रय को वर्णित करते हुए कवि यहां पर जुआरी क व्यथा को इस तरह से बताते है कि हमारा मन जुआरी के प्रति दया से भर जाता है। परावेपा मा बर्हतो मादयन्ति परवातेजा इरिणे वर्व्र्तानाः | सोमस्येव मौजवतस्य भक्षो विभीदको जाग्र्विर्मह्यमछान || न मा मिमेथ न जिहीळ एषा शिवा सखिभ्य उत मह्यमासीत | अक्षस्याहमेकपरस्य हेतोरनुव्रतामप जायामरोधम || दवेष्टि शवश्रूरप जाया रुणद्धि न नाथितो विन्दतेमर्डितारम | अश्वस्येव जरतो वस्न्यस्य नाहं विन्दामिकितवस्य भोगम || अन्ये जायां परि मर्शन्त्यस्य यस्याग्र्धद वेदने वाज्यक्षः | पिता मता भरातर एनमाहुर्न जानीमो नयताबद्धमेतम || यदादीध्ये न दविषाण्येभिः परायद्भ्यो.अव हीयेसखिभ्यः | नयुप्ताश्च बभ्रवो वाचमक्रतनेमीदेषां निष्क्र्तं जारिणीव || सभामेति कितवः पर्छमानो जेष्यामीति तन्वाशूशुजानः | अक्षासो अस्य वि तिरन्ति कामं परतिदीव्नेदधत आ कर्तानि || अक्षास इदनकुशिनो नितोदिनो निक्र्त्वानस्तपनास्तापयिष्णवः | कुमारदेष्णा जयतः पुनर्हणो मध्वासम्प्र्क्ताः कितवस्य बर्हणा || तरिपञ्चाशः करीळति वरात एषां देव इव सवितासत्यधर्मा | उग्रस्य चिन मन्यवे ना नमन्ते राजा चिदेभ्योनम इत कर्णोति || नीचा वर्तन्त उपरि सफुरन्त्यहस्तासो हस्तवन्तं सहन्ते | दिव्या अङगारा इरिणे नयुप्ताः शीताः सन्तो हर्दयंनिर्दहन्ति || जाया तप्यते कितवस्य हीना माता पुत्रस्य चरतः कवस्वित | रणावा बिभ्यद धनमिछमानो.अन्येषामस्तमुपनक्तमेति || सत्रियं दर्ष्ट्वाय कितवं ततापान्येषां जायांसुक्र्तं च योनिम | पूर्वाह्णे अश्वान युयुजे हि बभ्रून सोग्नेरन्ते वर्षलः पपाद || यो वः सेनानीर्महतो गणस्य राजा वरातस्य परथमोबभूव | तस्मै कर्णोमि न धना रुणध्मि दशाहम्प्राचीस्तद रतं वदामि || अक्षैर्मा दीव्यः कर्षिमित कर्षस्व वित्ते रमस्व बहुमन्यमानः | तत्र गावः कितव तत्र जाया तन मे विचष्टे सवितायमर्यः || मित्रं कर्णुध्वं खलु मर्लता नो मा नो घोरेण चरताभिध्र्ष्णु | नि वो नु मन्युर्विशतामरातिरन्यो बभ्रूणाम्प्रसितौ नवस्तु ||..Rig Veda Book 10 Hymn 34 ................................................. अथर्ववेद के जो मंत्र गीत मुझे बेहद करीब लगते हैं वे प्रेम गीत हैं, ये प्रेम गीत एक तरफा नहीं अपितु उस काल में स्त्री ने भी अपने मन को खोला है, जब कभी कोई पुरुष किसी स्त्री को धोखा देकर चला जाता तो वह उसे पुनःअपने करीब बुलाने की क्षमता रखती है। ये गीत एक ऐसी ही नारी का प्रतीत होता है, जिसका पति या प्रेमी उसे छोड़ दूसरे के पास ला गया है। एक अन्य मंत्र गीत में वह भगोड़े पति को खींच कर सभा में ले जा ती है दण्ड दिलवाने को , और एक अन्य में वह कामुक पति को नपुंसक बनाने का भी उपाय खोजती है, अन्य मंत्र गीत फिर कभी, अभीफिलहाल ये प्रेम गीत पत्नी का .... नि शीर्षतो नि पत्तत आध्यो नि तिरामि ते। देवाः प्रहिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु।। अनुमतेन्विदं मन्यस्वाकूते समिदं नमः। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु। यद् धावसि त्रियोजनं पञ्च योजनमाश्विनम्। ततस्त्वं पुनरायसि पुत्राणां नो असः पिता।। अवे. 6.131.1-3 तुझे प्रेम मे डुबोती हूँ सिर से पाँव तक देव प्रेरित काम तड़पाए तुझे मेरे प्यार से हे अनुमति तू सहाय कर आकूति सहाय कर देव प्रेरित काम तड़पाए तुझे मेरे प्यार से तू दूर जाए यदि तीन योजन या फिर पाँच योजन घोड़े पर बैठ कर फिर-फिर लौट कर आए पिता बने मेरे पुत्रों का अपने प्रेम से तड़पाती हूँ तुझे

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