Saturday 2 February 2013

नहीं दीखता मुझे बसंत कहीं भी


अभी अभी लौटा हूँ

कवि गोष्ठी से

लोगों ने सुनाईकवितायेँ

सुनाये वसंत के गीत .

किसी की खो गई प्रियतमा

किसी को मिल गया मन का मीत .

पर अबकी बार भी मै नही जान सका

वह तरकीव जिससे महसूसता

आगमन बसंत का .

सुनता कोयल की कूक

मैना दम्पति की सीना जोरी

फागुनी हवावों की कानाफूसी

भीतर तक मेरे भरी नहीं अम्र कुंजों की मधु गंध

गदबदाये

सरई बनो का जादू ,मादक गंध महुवा की .

अन्दर तक बना हुवा संत मै खोजता हूँ

अपने परिवेश में बसंत .

मेरे भीतर तक धंसा पसरा समूचा

बियाबान

मारता है हूक

मुझे तो सब कुछ दीखता है ठूंठ

ठूंठ ,ठूंठ ,ठूंठ दर ठूंठ ,और उस पर बैठा है

एक गिरहबाज नोच रहा है ,नन्ही सी चिड़िया के पंख

तोड़ रहा है उसके डैने अपने अभ्यस्त खुरदुरेपंजों से

नाखून बढे पंजों में जकड़े निचोड़ रहा है उसका समुच अस्तित्व

नीचे झड़े सूखे पत्ते का अम्बार खड खडा उठता है,

और क्रूर हो उठता है हवा का रुख .

धीरे से सरकता हुआ भेडिया,लपलपाती जीभ

चाटता है रक्त उस लड़ बडाये लाल भुभुक्क पलास के नीचे .

अभी कल की ही तो है बात

शहर के उस ब्यस्ततम चौराहे पर पिचक दिया था

ट्रक ने उस नन्ही सी जान को पचाक ......

हो गयी थी सारी सड़क लाल

हाँ हाँ वही तो जो देख नहीं सका अपना छठां बसंत .

अभी कल ही तो बैठा था मेरे संग

और उसका बाप पिट गया उसी रात

ट्रक मालिक के गुंडों के हाथ ,खिचगयी साड़ी

उसबाचारी अभागिन मां की जो भरे बसंत में

समेटे है बीरान बियाबान पतझड़

पिचके गाल सूखी छाती

निचुड़े अध् ढंके अंगों से निर्वासित ,रीती भयातुर आँखें

वह भी तो खोज रही है अपने जीवन का बसंत

जो तोड़ चुका है दम ,

वह चीखती है चिल्लाती है

अपने बसंत को आवाज लगती है .

पर खो जाती है उसकी चीख

भीड़ भरे इस अपने ही अजनबी शहर में

नहीं दीखता मुझे बसंत कहीं भी
इस श्मशान नगर में .

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