Wednesday 9 April 2014

काहे को ब्याहे विदेश ..



 अमीर ख़ुसरो की एक हजार साल पहले लिखी कविता ‘काहे को ब्याही बिदेस’
 हमेशा याद करता हूं। इसकी कई मार्मिक और जीवन से बड़ी होती जाती पंक्तियां हर बार पढ़ने पर अन्दर से भिगो डालती हैं। इसीलिए कहते हैं जिस पर बीतती है वही जानता है। .

 काहे को ब्याही बिदेस, अरे लखिया बाबुल मोरे।
 भइया को दीनो बाबुल, महला दुमहला हमको दियो परदेस।।

 हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ, घर-घर माँगी में जाएँ।
 हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गइयाँ, जित बाँधो तित जाएँ।।

 हम तो बाबुल तोरे पिंजड़े की चिड़ियाँ, कुहुक-कुहुक रट जाएँ।।
 ताँतों भरी मैंने गुड़िया जो छोड़ी, छूटा सहेलन का साथ।।

 निमिया तले मोरा डोला जो उतरा, आया बलम जी का गाँव।।
 ’काहे को ब्याही बिदेस लखिया बाबुल मोरे’

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