Saturday 14 January 2012

प्रवाह पा जाते हैं

जो ठोकर खाते हैं प्रवाह पा जाते हैं
बिना गीत लिखे बिना गीत गए वे
चाल के लय ,ताल और छंद से परिचित हो जाते हैं
पत्थरों से टकराता है पानी ,
पत्ठार वहीँ पड़े रह जाते हैं आगे बढ़ जाता है ठोकर खाया हुवा पानी
जो ठोकर खाते है वे प्रवाह पा जाते हैं
जिन पत्थरों से नदी गुजरी है उन्होंने
अगर मिली होगी अपनी आवाज तो वे रेट हो चुके होंगे
कछारों में बगुलों के संग उड़ रहे होंगे
अठाव नदी के मार्ग से अलग पड़े हुए होंगे
पानी के स्पर्श और उससे उठते संगीत के लिए तड़प रहे होंगे

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