Sunday 15 January 2012

कुनमुना उठता है सारा गाँव / ,

भोर की पहली किरण के साथ
आकर बैठाता था एक जोड़ा सोन चिड़िया
नित्य अपनी ही जगह गाँव के उस
बृद्ध बरगद की सबसे ऊंची फुनगी पर
गद बदाये स्वर्ण रोमिल पंखो को फुलाए
बड़ी तल्लीनता से रटा करते मन्त्र कोई
जागरण का एक स्वर में
रच रहे होते नए सन्दर्भ कुछ कुछ राग के
कुनमुना उठता सुबह का गाँव /
प्रात के फैले सुनहले धूप के संग
चह चहाते बुलबुलों के कई जोड़े
पूर्व की बंसवारियों के झुरमुटों में
मुक्त चंचल फुदकते निर्द्वन्द
देखती थी रोज ललचाई सुरेखा
फाड़ कर दीदें बड़ी उत्फुल्लता से
बज रही होतीं है मंगल घंटियाँ
पास के ही मंदिरों के गर्भ में
दौड़ने लगता है पूरा गाँव /
सोनबरसा बगीचे के आम की उस लचकती डाल पर
एक जोड़ा सुआ गदराया हुआ
बहुत कुछ बतिया रहा होता समूची दुपहरी
अलस नैनों में नया उन्माद भर स्निग्धता से प्रेम से
गर्दनो को जरा सा तिरछा किये झांकते हैं दोनों दूसरे की आंख में
रच रहे होते नए कुछ बिम्ब कोई छंद फिर अनुराग के
गूँज उठती दूर की सूनी इबादत गाह में एक नई अजान की आवाज
मुक्त हो जाता है सारा गाँव /
प्रात की पहली किरण के साथ से ही
चुन रहा होता है तिनके घास जाने और क्या क्या
एक जोड़ा गौरय्या नव सृजन की चाह में
एक छोटे घोंसले के लीं है तल्लीन है उन्माद से भरपूर
समर्पित निष्कपट कर रहा होता उपक्रम प्यार का
एक पूरा बीत गया दिन मान
संध्या पसर जाती डूब जाता नींद में है गाँव /
एक कोने बिछी गुदरी में समाये
एक दूजी बांह का तकिया लगाये ,सो रहा है एक दम्पति
झोपडी से झर रही होती सफेदी चांदनी की
दमकता है रूप जीवन संगिनी का झांकता है फटे वस्त्रों से
बिलम्बित क्षुब्ध यौवन ,फिर समर्पण स्नेह का
इतिहास लिखता स्वप्न में खोया समूचा गाँव /
भोर की पहली किरण के साथ गूंजा जागरण का
फिर नया पद बंधबोली सोन चिड़िया कुनमुना उठता है सारा गाँव / ,

No comments:

Post a Comment