Wednesday 15 February 2012

ललित लालित्य और मेरी आधुनिकता ..पुस्तक का अंश

नारी सुहावन जल भरि लावे ,पुरुष अँधेरे दीप जलावे,

सन्मुख धेनु पियावै बाछा ,मंगल कारन सगुन हुभ आछा ,

यही तो कहा था जाते समय माँ ने ....

मैं भटक गया था ..कहाँ जीवन के प्रभात काल के मीठे रसभरे ताजे गुड के गंध से सराबोर यथार्थ बोध कहाँ ये कसैले क्षण बिलकुल वैसे ही जैसे तरुनाई से यौवन की ओर कदम बढ़ाते सुर्ख गालों पर मुहांसों की बे तरतीब जकडन.मन खट्टा हो जाता है अपने से ही वितृष्णा होने लगती है ,विश्वास की पकड़ ढीली पड़ने लगती है ,यह सब कुछ स्मरण करके सिहरन होती है ,मई अपनी चतना को झकझोर कर अनचाही स्मृतियों को झटक देता हूँ ,और दृश्य पटल बदल जाते हैं,मेड पर खड़े खड़े एकबार फिर उन मनभाई स्मृतियों को समाकलित करता हूँ जो मेरे भीतर चित्रलिखित हैं और पहुँच जाता हूँ खेतों में .अपने सम्पूर्ण उभार के साथ मस्तक ऊँचा कियेसुजियाये धन की पीताभ डीभीकिनारे मक्के के खेत में कुदाल चलते युवकों की टोली मेड पर बसीनाहरी लिए बैठी उनकी प्रियतमा चाचर कबड्डी और झाबर खेलती चरवाहों की टोली भैंस की पीठ पर बैठ कर बिरहा गाते अहीर के छोकरे और दूर आल्हा के स्वर के साथ ठनकती ढोल के स्वर का उभरता ओज -जे कर तिरिया दुसमन लई गई तेकरे जीवन के धिक्कार ,बाप का बदला जे न लेह लिस ....-उस बड़े बूढ़े बरगद की विशाल काय मोटी डाल में सामूहिक झूला झूलती अनुराग युक्त ग्राम बालाएं अपनी अपनी छिपी छिपी उम्मीदवारी लिए पेंग बढ़ने की होड़ में तरुणों कीटोली,पूरी ताकत से सनसनात झूला अंतर को उद्द्वेलित कर देने वाली कजरी ,-सावन बीति जाट मोर सजनी पिया मोर अजहूँ न आये हो - की तीस युवतियों की आपसी छेड़छाड़ पोरी तन्मयता से उफनते बरसाती नालों की हराहराहट ,किनारे एकाग्र चेतना से उतने ही तन्मय मछली तथा केकड़े पकड़ने में मस्त व्यस्त बालकों का झुण्ड ,हरी डूब पर अपेक्षा कृत छोटे नगरे बच्चों की गुत्थम गुत्थी और बीर बहूटियों का रेंगता काफिला ,अख्दे में ताल ठोंक कर भिड़ते युवक . अभी अभी पिया के घर से आई ननदों की लाज भरी तृप्त कामा चितवन बड़ी बड़ी किन्तु शरमाई चतुर आँखों में झांक कर सबकुछ उगलवा लेने की चुहल में लगी मनचली शरारती भाभियों की छींटा कसी ,छेड़ छाड़और खीचा तानी अजीबो गरीब गदहपचीसी ,उतारते भादो की रात की अनबूझ कालिमा और दादी के साथ -ओका बोका तीन तलोका लैया लाटा चन्दन काटा खेलते बच्चे .प्रवासी प्रिय की स्नेहिल स्मृतियों में खोई अकेली रात बिताने के उपक्रम में करवट बदलती बियोगिनियों की गुण गुनाहट -सईंया मोर गैलें रामा पूर्वी हो बनिजिया की लई ho ऐहैं ना रस बेन्दुली टिकुलिया लई हो ऐहैं ना- .आज फिर खडा हूँ उसी मेड पर जहाँ से लोंगो ने मुझे विदा किया था .गाँव की सीमा पर पडा और खडा यह मेड साक्षी है अपने उन तमाम पुत्रों की विदाई का जो नौकरी और जीविको पार्जन की तलाश में विदा हुए थे ,लौट कर आने का आश्वासन देकर ,पर लौट कर आये कितने ? बहुत कम ,जो लौट कर आया भी वह माटी के साथ एक मेक नहीं हो सके . ,यही वह मेड है जहाँ से उठाया था फागू काका ने मेरा सामान और नाक की सीध में बढ़ चले थे ,मैंने भी तो चाचा -चाची ,काका -काकी अनेकों कतार बद्ध स्वजनों के पैर छूए थे ,सारा गाँव विदा करने चला आया था ,सभी से विदा हो कर मैंने लिया था आशीस अपने में ही सिमटी एक किनारे खडी माँ से ,छाती से चिपका कर वह फफक कर रो पड़ी थी और रोते रोते बोली थी लौट कर आना बेटे .मानो उसे मेरे लौटने पर संदेह हो,यह भी तो कहा था ख़त तुरंत लिखना ,अपना ख्याल रखना, खाना समय से खाना ,मेरे लिए दही मछली लेकर आना.मै माँ से आँखे नहीं मिला सका था बिना कुछ बोले ही मुड कर तेज कदमो चल पडा था कानो में दूर तक गूंजती रही सगुनौती ..नारि सुहावन...जल घाट लावे ...कितना कुछ बदल गया है समझ में नहीं आ रहा है की यह बदलाहट है कहाँ .मुझ में ,मेरीसोच में ,दृष्टि में ,या फिर जो कुछ सामने देख रहा हूँ उसमे ,परन्तु आँखे टिक नहीं रही हैं ,टिकें कैसे वह कुछ तो मिल ही नहीं रहा है जिसे वे ढूंढ रही हैं सब कुछ बदल गया है ,परिवर्तन तो प्रकृति का शास्वत नियम है किन्तु यह अपेक्षा से कंही अधिक है ,हो भी क्यों न ,गुजर भी तो गया एक लम्बा अन्तराल .एक दौड़ जो शुरू हुई थी इसी मेड से मुक्त आकाश को बाँहों में समेत लेने की.. निश्छल निष्कपट,स्वच्छंद ,कोमल भावुकता मई उत्साही क्षणों के मध्य से .यौवन की दहलीज को पार करभविष्यत के सपनो में आकंठ निमग्न अपनी अनंत इक्षाओं को फटी जेबों में ठूस कर निकल जाना चाहता था दूर बहुत दूर ..अनजान राहों की अंत हीन यात्रा गुजर आयी अति आधुनिक ,मशीनी ,कुंठा ,पलायन ,शोर शराबे, कपट ईर्ष्या ,अविश्वास स्वार्थ और कटे फटे संबंधो की थेगदी लपेटे ,आकर्षक रंग बिरंगे शहरों के बीच बिची बिछी कोलतार की लम्बी चमक दार बर्तुल सपाट सडकों, ,सजी धजी अट्टालिकाओं के बीच सड़ते सेफ्टिकटैंको के बदबू दार ,कचरों से भरे टेढ़े मेढे गलियारों के बीच से .

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