Saturday 11 February 2012

मायाराम सुरजन ट्रस्ट द्वारा आयोजित "संबाद" कार्यक्रम में बच्चों को संबोधित बक्तब्य का अंश

मायाराम सुरजन ट्रस्ट द्वारा आयोजित "संबाद" कार्यक्रम में बच्चों को संबोधित बक्तब्य का अंश. देवता और राक्षस दो छोर हैं दोनों के ही पास ढेर सारा धन और सत्ता है हम धन या सत्ता से देवताओं के सामान विलासी और राक्षसों के सामान दुष्ट बन सकते हैं पर अच्छा इन्सान नहीं /निश्चित रूप से धन सब कुछ नहीं है /अच्छा इन्सान बनाने के लिए तो बिलकुल जरूरी नहीं है /जीवन की आप धापी में माता पिता को बच्चों के लिए समय देना जरूरी है /आज लोग यह नहीं सोचते की बच्चे अच्छे इन्सान बने /वह क्या बने माता पिता तय करते हैं /यह गलत है आप अच्छा इन्सान बनाइये बाकि उन्हें बनाने दीजिये इसपर विचार किया जाना चाहिए /यह टालने का विषय नहीं है /अभिभावक विचार करें/
साहित्य हमारे रोजमर्रा के जीवन में है ,माँ का प्यार /चिड़ियों की चहचहाहट ,सूरज का उगाना ,तारों का टिमटिमाना ,चंद्रमा की कलाएं ,हवा की रुनझुन ,पत्तों का खड़कना ,पानी बरसना ,इन सब से साहित्य ही निकलता है ,अगर आप ने सूरज को उगते चंद्रमा को चमकते नहीं देखा, पेड़ से आम नहीं तोडा ,कदम की डाल तक हाथ नहीं बढाया ,बरसते पानी में नहीं भीगा ,बूंदों का संगीत नहीं सुना ,तो समझ लीजिये की आप मनुष्य होने के असली सुख से वंचित हैं ,यही तो संगीत साहित्य और कला के जनक हैं ,बचपन के झगड़ों ,और लड़कपन के अपने सुख हैं इसी लिए सूर की पंक्ति -मैया मोरी मै नहीं माखन खायो .आज भी हमें अच्छा लगता है/ , मनुष्य के तीन मन होते हैं तीसरा अचेतन मन ही हमें झिंझोड़ता है ,जगाता है ,पश्चाताप कराता है ,पश्चताप सबसे बड़ा सदगुण है /तीसरे मन की बात सुनाने की कोशिस करनी चाहिए /अच्छा बनाने का यही उपाय है /

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