Saturday, 1 December 2012

गाँव के दो चित्र


गाँव के दो चित्र
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प्रात के फैले गुलाबी धुप के संग
चहचहाते बुलबुलों के कई जोड़े
पूर्व की बंसवारियों के झुरमुटों में
मुक्त चंचल फुदकते निर्द्वन्द
देखती थी रोज ललचाई सुरेखा
फाड़ कर दींदे बड़ी उत्फुल्लता से
बज रही होतीं हैं मंगल घंटियाँ
पास के ही मंदिरों के गर्भ की
दौड़ने लगता है सारा गाँव
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एक कोने बिछी गुदड़ी में समाये
एक दूजी बांह का तकिया लगाये
सो रहा है एक दम्पति
झोपडी से जहर रही होती सफेदी चांदनी की
दमकता है रूप जीवन संगिनी का
झांकता है फटे वस्त्रों से अभावों में बिलम्बित क्षुब्ध यौवन
फिर समर्पण स्नेह का इतिहास लिखता
स्वप्न में खोया समूचा गाँव

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