Wednesday 23 November 2011

ह डरा हुआ है इन दिनों  

एक कद्दावर पेड़ है वह
और अपने काठ से डरा हुआ है

वह एक समुद्र है
उसे पानी से बेहद डर लगता है इन दिनों.
ऊँचाई से डरा हुआ
एक पहाड़ है वो.

जो चीज़े जितनी सरल दिखती थीं
शुरू में उसे
वही उसकी
सबसे मुश्किल पहेलियां हैं अब
जैसे नींद  जैसे चिड़ियां
जैसे स्त्रियां  जैसे प्रेम  जैसे हँसी.

जिसकी धार में वह उतर गया था
बिना कुछ पूछे
उस नदी को ही
अब नहीं था उस पर भरोसा.

जिनका गहना था वो
वही अब परखना चाह रहे थे उसका खरापन
नये सिरे से.
जिन्होंने काजल की तरह आँजा था बरसों उसे
उन्हें अब उसके
काले रंग पर था एतराज़.

जिनका सपना था वह

No comments:

Post a Comment