Tuesday 22 November 2011

मै अपने गाँव लौटूंगा

मै अपने गाँव लौटूंगा
झरवेरियों  और बंसवारियों में उलझे
पंखो को बटोरते ,वंही कंही छूट गया  बचपन
समेट लूँगा ,पहन लूँगा मोर पंख //
कोरी आँखों के सपने बिखरे होंगे ,वहीँ
उड़ रही होंगी तितलियाँ
चुन लूँगा, बटोर लूँगा बीर बहूटियाँ/
मेरे चले आने के बाद
खलिहान में पुआलों की खरही के नीचे
छिपा कर रखे मेरे कंचे
सुबक  रहे होंगे/भर लूँगा अपनी फटी जेबों में /
बांसों के झुरमुट में फंसी ,कहीं पड़ी होगी
मेरी कपडे की गेंद ,मेरे लौटने की प्रतीक्षा में
आँखे बिछाए बाट विसूरते ,तर तर हो रही होगी /
मेरी सिंकियाई धमनियां वहीं कहीं
गहूं के गांजों के बीच ,फिर से पा लेंगी
अपने लहू का आवेग /
मंदिर के बावली के किनारे
सिमटते चरागाह से सटी अमराई में
 आकाश से उतर करसपनो जैसे सुग्गे
 मुझे खोज रहे होंगे /  धुंध से घिरे गन्ना और मकई के
लहलहाते खेतों के टेढ़े मेढ़े मेड़ों के मुजौटों  के बीच
सावन की तेज बंवछारों में गदराये सांवाँ के बन्दर पुच्छी
बालों से झरते ,अक्षरों को समेट कर
अपने भीतर का स्वर मै पा लूँगा
मै अपने गाँव लौटूंगा/                    

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