Wednesday 23 November 2011

मै अपनी ही परछाहीं पर उकुडू हूँ परछाहीं की तरह

मै अपनी ही परछाहीं पर उकुडू हूँ परछाहीं की तरह
उतना बहर नहीं हूँ बाहर जितना अपने बहार है
 उतना ही खली हूँ बाहर जितना भीतर खली है
अंधकार में फैलते हुए अंधकार का फैलाव है
उसी में फैलता हुआ मै अपनी परछाहीं पर झुकी
अपनी पीठ पर टिका घुटनों में सर दिए
समझना चाहता हूँ प्रयोजन अपने होने का
मेरा सारा अस्तित्व मेरे ऊपर जहर रहा है /
एक सपना टूट कर विक्षत जीवन सा विखरा है
उसी मे से बिन कर इक्षाएं ,अपनी फटी जेबों में ठूंस कर
जनाचाहता हूँ हर दिशा में--
जाने की हर दिशा बंद है ,हर बंद दिशा का दरवाजा मै हूँ
अकेले मै हूँ अपने सिवाय ,यह मै कौन हूँ जो मै नहीं हूँ /
अपने ही बारे में मै गड़बड़ा गया हूँ / 

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