Friday 18 November 2011

 आपस में हम हुए अजनवी कलह कपट गहराया ,आत्मीयता हुई पराई भोला मन भरमाया /
अविश्वास इतना गहराया कड़ी हुईं दीवारें, मर्यादा की ख़त खड़ी है बहे  विकृति पवनारे/
अपने प्रति ही बढ़ता संशय ऐसी चुकी आस्था ,सम्बेदना और जड़ हो गई ऐसी बनी ब्यवस्था /
राजनीतिकी घृणित कुटिलता कितनी हम को खलती ,पीड़ा की यह पराकास्ठाकैसे तुम्हे दिखाएँ
रोटी बहन,बिलखती माता जलती बहु सुलगता भ्राता,शेष नही कुछ भी रस धर्मी फैले चारो ओर बिधर्मी /
स्वार्थ और कुंठा में डूबी मृगतृष्णा सी छद्म जिन्दगी ,जो कुछ था वह भी खो डाले कहाँ रमरमी कहाँ बंदगी /
कृत्रिमता की खोल चढ़ायेअहम बोलता रहता हर क्षण ,घुटन और मुस्कान लपेटे हर जीत में फंसी जिन्दगी /
स्नेह प्रेम अपनापन भोगे बीत गया है बरसों ,तपेदिक्क सी कठिन जिन्दगी बीते नही बिताये /
कहीं मिले वसुधा में यदि तो अब की तुम ले आना ,जिसकी हमको बहुत जरूरत वही तत्व बरसना /
लाना स्नेह मात्र मुट्ठी भर अगर कहीं मिलजाए ,फैलाना भीगी धरती में जिस से वह उगआये /
अंजुरी भर अपनापन लाना बड़े जतन से बोना ,तरस रहाहै अपने पण को देश का हर एक कोना /
अगर कहीं मिलता होगा तो मुट्ठी भर ले आना प्यार ,मत्री स्नेह का चुकता निर्झर निश्चित भरना अबकी बार /
इसका चूकना कितना खलता कैसे तुम्हे बताएं, यह उधार की पस्त जिन्दगी और जिया नहीं जाये/         
 

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