Sunday 4 December 2011

bimlendu kavita

विमलेन्दु आप की कविता ने फिर एक बार जखाझोरा ,बहुत मसक्कत से एक एक शब्द तौल कर जड़ा है आप ने ,हमारी अनुभूतियाँ जिजीविषा का पल्ला पकड़ कर ही आती हैं ,यही जिजीविषा ही मनुष्य को अनादी काल से स्थापित करती रही है,जिजीविषा की इस दुर्दमनीय धारा को हमारी स्मृतियाँ प्रवाह देती रहीं हैं ...फिर तो जो भी संततियों के पराजय बोध में जमे होते हैं तलछट की तरह ,गर्वीले भूलों की दरार में उग जाते हैं दूबकी तरह ,और ध्वस्त कर देते हैं इतिहास को ...बहुत महीन तह में जाकर कविता की आत्मा को उकेरा है ...यह दूब मुझे कई महीनो से परेशान कर रही थी, पंडित की पूजा ,मृतक की तेरहीं .विवाह की थाली.सभी जगह एक सी महत्ता, जिजीविषा इतनी की मरे जानवर की हड्डी पर फेंक दो तो भी जड़ जमाले, फ़ैल जाय,यह तिनका भी है,लान भी/ आपने मेरी सोच से भी अच्छा प्रयोग किया / सार्थक किया /कविता की भाषा कमाल की है ,जिसे आप ने गुम- सुम स्त्रियों के काजल की ओट से निकाला है,इसी तरह लिखते रहें, इसी तरह लोक की स्मृति को जीते रहें //बधाई //

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