Saturday 17 December 2011

vad mantr

कल हमने ऋग्वेद के सूर्य मन्त्र.. ओं भूर्भुवः स्वः ततसवितुर्वरेनियम भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नह प्रचोदयात ... से शुरुआत की थी /आज यजुर्वेद अध्याय ३६ मन्त्र १२.. से *ओं. सन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये/ शंयोरभि स्रवन्तु नः /
(कल्याण कारी सर्व प्रकाशक ईश्वर इक्षित फल के लिए, आनंद प्राप्ति के लिए हम पर सर्वब्यापक हों /सुख की वर्षा करें )
*ओं..वाक़ ,वाक़ /ओं प्राणः प्राणः/ ओं चक्षुःचक्षुः/ओं श्रोत्रं श्रोत्रं/ ओं नाभिः/ ओं हृदयं/
ओं कंठः/ ओं शिरः/ ओं भाहुभ्यामयशोबलम / ओं करतलकरप्रिश्ठ्ये /(हे ईश्वर मेरी वाणी, प्राण (नासिका )चक्षु, कर्ण ,नाभि, ह्रदय ,कंठ ,शिर, बाहु और हाथ के ऊपर नीचे के भाग ,अर्थात सभी इन्द्रियां बलवान और यश वाली हों / याद रखें बिस्तर छोड़ने के पूर्ब दोनों हाथ सामने फैला कर बोलें ..कराग्रे बसते लक्ष्मी, करमद्धे सरस्वती, करमूले च गोबिन्दम प्रभाते कर दर्शनम / (आगे कल फिर ) शुभ प्रभात ....आप का दिन सार्थक हो .

पढ़िए कल से आगे ;-
प्राणायाम मन्त्र -ओं भू:,ओं भुव:,ओं स्वः, ओं मह:,ओं जन:,ओं ताप:, ओं सत्यम (अथर्व)
ओं ऋतंच सत्यांचाभीद्धात्तापसोअद्ध्यजायत,ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः / समुद्रअद्र्न्वादाधि संवत्सरो अजायत ,अहो रात्रानि विदधद्विश्व्स्य मिषतो वशी / सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वंमकल्प्यत,दिवंच पृथ्वींचान्तरिक्षमथोस्वः /(ऋ .वेद१०/१९०/१/२/३) अर्थात ईश्वरीय ज्ञान वेद जो तीनो काल में एक जैसा रहा करता है और प्रकृति ईश्वर के ज्ञान मय अनंत सामर्थ्य से प्रकट हुए हैं उसी सामर्थ्य से महाप्रलय , महारात्रि प्रकट हुई है /आकाश जालों से भरा है/ धाता (धारण करने वाले )ने सूर्य और चन्द्र को पूर्व कल्प के सामान रच लिया थाप्रकाश मन और प्रकाश रहित लोक भी रच लिया था और अन्तरिक्ष भी /(अभी तक आप ने जो तीन दिनों में पढ़ा यह आप की नित्य प्रातः पूजा का पहला कर्तब्य है काल से दूसरा कर तबी....)आप का दिनमान शुभ हो ...

मित्रों अभी तक आप ने जो पढ़ा वह आप का रोज का अपने लिए किया जाने वाला पहला कर्तब्य था / अब,दूसरा कर्तब्य ..
अथर्व वेद-(3/१७/१//) से ........
ओं प्राची दिगग्निराधिपतिरक्षितो रक्षितादित्याइषवः /तेभ्यो नमो अधिपतिभ्यो नमो रक्षित्रिभ्यो नम इशुभ्यो नमं एभ्यो अस्तु /यो असमान द्वेस्ति यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः //१//अर्थात ..पूर्व दिशा में प्रकाश स्वरूप ईस्वर स्वमी अंध कर से रक्षा करने वाला है /सूर्य की किरने वन रूप हैं ,उस स्वामी के लिए नमस्कार /रक्षक को नमस्कार,वाणो के लिए आदर उन सब के लिए भी आदर जो हमसे द्वेष करता है ,जिससे हम द्वेस करते हैं ,उस द्वेष भाव को आप के विनाशक शक्ति के सम्मुख रखते हैं /
अथर्व वेद ३/२७/२//
ओं दक्षिणा दिगिन्द्रो अधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पिटर इषवः /तेभ्यो नामोअधिप्तिभ्यो नमो रक्षित्रिभ्यो नम इशुभ्यो नम एभ्यो अस्तु /यो असमान द्वेस्ति यं वयं द्विमस्तं वो जम्भी दध्मः //२//अर्थात ...दक्षिण दिशा में ऐश्वर्यवान इंद्र स्वामी है ,टेढ़े चलने वालो से रक्षा करता है, चन्द्र किरणे उसके बाण तुल्य हैं /शेष अर्थ ऊपर के अनुसार ....

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